Wednesday, March 23, 2011

मधुसूदन, मधु और माधवन की गाथा का प्रतीक है मंदार

मधुसूदन, मधु और माधवन की गाथा का प्रतीक है मंदार
भारतवर्ष संसार के प्राचीनतम देशों में से एक है। यहां सभ्यताओं के उत्थान-पतन और राजनीतिक उथल-पुथल अधिक हुए हैं। देश में शायद ही ऐसा कोई स्थल होगा जो ऐतिहासिक महत्व नहीं रखता हो। भारत के कोने-कोने में ही नहीं कण-कण में इतिहास भरा पड़ा है। यहां तक कि इसके इतिहास को जब ऊपरी धरातल पर स्थान नहीं मिला तो वह भारत के भूगर्भ में चला गया और भूगर्भ में भी एक स्तर नहीं, कितनी खुदाई करने पर यह स्पष्ट पता चल रहा है कि हमारा कितना प्राचीन, विशाल और सुन्दर इतिहास अंदर समाया हुआ है। इसी कड़ी में इतिहास और पुराण प्रसिद्ध सम्प्रति बांका जिले के बौंसी में अवस्थित मंदराचल (मंदार पर्वत)एक महत्वपूर्ण पर्वत है। मंदार पुण्य शिला गंगा की तरह पवित्र है। गंगा यदि मानव के लिए देवनदी है तो मंदार मानव की देवगिरि। देवताओं में मधुसूदन के रुप में यदि विष्णु की प्रतिष्ठा मंदार पर हुई तो मधुसूदन शब्द ने मंदार के पराक्रमी असुर वीर मधु को भी सदा के लिए अमर कर दिया। पुराणोक्त मंदार में मधुसूदन, मंदार और मधु तीनों का अच्छा समन्वय हुआ है। अति प्राचीन काल में देवों (आर्यों) और असुरों (अनार्यों) ने मिलकर ही मंदार पर्वत को मथनी बनाकर समुद्र मंथन किया था। जिससे चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई थी। मंदार इसी सामंजस्य का प्रतीक है और अपने में मधु और मधुसूदन के गौरव को भी समेटे हुए है। यही कारण है कि मंदार पर, मंदार के सन्निकट यदि भगवान मधुसूदन की पूजा होती रही तो मंदार के नीचे असुर मधु की पूजा। मकर संक्रांति के अवसर पर संभवत: असुर वीर मधु की याद में ही संथाल आदिवासी (अनार्यों)की भीड़ मंदार पर्वत और पर्वत के निकट तथा बौंसी मेले में आज भी एकत्र होती है। संथाल परम्परा के कुछ गीतों में भी मंदार पर्वत (मंदार बुरु)का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। आर्यों ने भी मंदार के प्रसिद्ध असुर सरदार मधु के वध से अपने को इतना गौरवान्वित समझा कि उसकी पुण्यस्मृति में मधुसूदन के रुप में विष्णु भगवान की पूजा पर्वत पर प्रारंभ कर दी और मंदार पर मधुसूदन धाम, भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। धीरे-धीरे इस पर्वत के समीप एक नगर बसा और वह 'बालिशानगरÓ कहलाया। इस नगर को और मंदार पर्वत स्थित अधिकांश मंदिरों को 1573 ई. के आसपास कालापहाड़ नामक एक आक्रमणकारी ने ध्वस्त कर दिया। प्रसिद्ध मुगल सम्राट जहांगीर के राज्यकाल में मधुसूदन भगवान का मंदिर बौंसी में बनाया गया और तब से भगवान की पूजा बौंसी में ही होने लगी।
मंदार पर्वत जैनियों का भी एक तीर्थ स्थल है। उनका मानना है कि उनके 12वें तीर्थकर भगवान वासुपूज्य का निर्वाण इसी पर्वत पर हुआ था। लेकिन जैनियों का आगमन मंदार पर कब और कैसे हुआ इसका ठीक-ठीक पता नहीं है। आजकल पर्वत के शिखर पर स्थित दोनों मंदिर जैनियों के अधिकार में है, जिसे देखने दूर-दूर से जैन धर्मावलम्बी यहां आते हंै।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी पहाड़ी व जंगली इलाका होने के कारण रणबांकुरे अंग्रेजी सरकार की नजरों से बचने के लिए इस पहाड़ के इर्द-गिर्द छिपते थे।
मंदार पर्वत के आसपास की जलवायु भी बड़ी अच्छी है। प्रतिवर्ष दूर-दूर से लोग स्वास्थ्य लाभ करने यहां आते है। मंदार पर्वत के वन, उपवन वनस्पति, औषधि, जलधराएं, निर्झर, कुंड, जलाशय, शिलाखंड, जीव-जन्तु, पक्षी, चट्टानों पर उत्कीर्ण मूर्तियां और अभिलेख आदि काफी प्रेरणापरक हैं। मंदार की तलहटी में मगध के गुप्त वंशीय राजा आदित्य सेन की पत्नी महाराणी कोण देवी द्वारा निर्मित प्रसिद्ध सरोवर पुष्करणी है जिसके बारे में मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन ब्रह्म्म मुहूर्त के समय इस सरोवर में स्नान करने से मनुष्य को सभी पापों और शापों से मुक्ति मिल जाती है। पश्चिम बंगाल के प्रथम मुख्यमंत्री डा. विधानचंद्र राय ने अपनी चिकित्सा विज्ञान की पुस्तक में लिखा है कि बौंसी के पापहरणी सरोवर के जल से प्रतिदिन स्नान करने से कुष्ठ जैसे असाध्य रोगों से मुक्ति मिल सकती है। मंदार पर्वत के अतिरिक्त मंदार क्षेत्र में और भी बहुत से दर्शनीय स्थान हैं। इस क्षेत्र की प्राकृतिक बनावट और नैसर्गिक दृश्य अत्यन्त रमणीय और मनोहर है। प्राकृतिक सौन्दर्य, अच्छी जलवायु और उपजाऊ भूमि रहने के कारण यह क्षेत्र सभी तरह से संपन्न है। इन दिनों स्थापित मंदार नेचर क्लब इस क्षेत्र की पूरी देख-रेख करता है। शिक्षा और संस्कृतिक के क्षेत्र में भी मंदार क्षेत्र कभी पीछे नहीं रहा है।
सन 1505 ई. में चैतन्य महाप्रभु भी यहां पधारे थे। योगिराज भूपेन्द्र नाथ सान्याल ने यहां के आकर्षण से प्रभावित होकर लगभग 52 वर्ष पूर्व मंदार के समीप मधुसूदन नगर में अपने गुरुदेव महर्षि श्यामाचरण लाहिरी की पुण्यस्मृति में गुरुधाम आश्रम बनवाया और वहां श्यामाचरण विद्यापीठ नामक एक संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की। फिर इसी मंदार ने श्री आनंद शंकर माधवन नामक एक दक्षिण भारतीय युवक को पर्वत के ठीक नीचे पूर्व की ओर मंदार विद्यापीठ के नाम से एक शिक्षण संस्थान के निर्माण के लिए प्रेरित किया और इसकी स्थापना 1945 ई. में हुई। श्री माधवन अपने गांव घर छोड़कर मंदार की सेवा में पूर्णतया समर्पित रहे। इन उदाहरणों की पुष्टि स्वर्गीय डा. अभय कांत चौधरी ने अपनी पुस्तक मंदार परिचय में भी की है।
सचमुच मधुसूदन मधु, मंदार और माधवन में कितना सामंजस्य है, यह चातुर्दिक दुष्टिपात करने पर ही पता चलता है। एक ओर जहां मधुसूदन धार्मिक सहिष्णुता और आस्था का प्रतीक है, वहीं मधु अनार्यों की शक्ति का परिचायक। मंदार आर्यों व अनार्यों को मिलाने की कड़ी तो माधवन दक्षिण भारत और उत्तर भारत की शिक्षा और सांस्कृतिक मिलन की कड़ी। कितना अद्भूत नजारा है इस नमोन्मेषता के मंदार में।
डा. राजीव रंजन ठाकुर
ठाकुर भवन
गुमटी न.-12 के पास
भीखनपुर, भागलपुर