Thursday, November 26, 2015

ध्‍यान और मुद्राओं की साधना के लिए पहले जरूरी है शरीर की शुद़धता

शरीर को शुदध करने और ततपश्‍चात ध्‍यान मार्ग की ओर अग्रसर होने पर ही व्‍यक्ति अभिष्‍ट की प्राप्ति कर सकता है। मुद्रा रहस्‍य के अनुसार जब तक  आपका शरीर स्वस्थ नहीं होगा तब तक आपका ध्‍यान किसी कार्य में एकाग्र नहीं होगा।
आदि शंकराचार्य ने सौन्दर्य लहरी नामक ग्रन्थ में मां त्रिपुरसुन्दरी के स्वरूप का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। वहीं हमारे ऋषियों ने मुद्राओ को मंत्र साधना के साथ इसलिए जोड़ दिया ताकि व्यक्ति भगवान के साथ- साथ एक अच्छा स्वस्थ शरीर भी प्राप्त कर सके ।
सम्पूर्ण शरीर में मुख्य रूप से प्राण वायु स्थित है। यहीं प्राण वायु शरीर के विभिन्न अवयवों एवं स्थानों पर भिन्न-भिन्न कार्य करती है। इस दृष्टि से उनका नाम पृथक-पृथक दिया गया है। जैसे- प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। यह वायु समुदाय पांच प्रमुख केन्द्रों में अलग-अलग कार्य करता है। प्राण स्थान मुख्य रूप से हृदय में आंनद केंद्र (अनाहत चक्र) में है। प्राण नाभि से लेकर कठं-पर्यन्त फैला हुआ है। प्राण का कार्य श्वास-प्रश्वास करना, खाया हुआ भोजन पकाना, भोजन के रस को अलग-अलग इकाइयों में विभक्त करना, भोजन से रस बनाना, रस से अन्य धातुओं का निर्माण करना है। अपान का स्थान स्वास्थय केन्द्र और शक्ति केन्द्र है, योग में जिन्हें स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधर चक्र कहा जाता है। अपान का कार्य मल, मूत्र, वीर्य, रज और गर्भ को बाहर निकालना है। सोना, बैठना, उठना, चलना आदि गतिमय स्थितियों में सहयोग करना है। जैसे अर्जन जीवन के लिए जरूरी है, वैसे ही विर्सजन भी जीवन के लिए अनिर्वाय है। शरीर में केवल अर्जन की ही प्रणाली हो, विर्सजन के लिए कोई अवकाश न हो तो व्यक्ति का एक दिन भी जिंदा रहना मुश्किल हो जाता है। विर्सजन के माध्यम से शरीर अपना शोधन करता है। शरीर विर्सजन की क्रिया यदि एक, दो या तीन दिन बन्द रखे तो पूरा शरीर मलागार हो जाए। ऐसी स्थिति में मनुष्य का स्वस्थ्य रहना मुश्किल हो जाता है। अपान मुद्रा अशुचि और गन्दगी का शोधन करती है।

विधि– मध्यमा और अनामिका दोनों अँगुलियों एवं अंगुठे के अग्रभाग को मिलाकर दबाएं। इस प्रकार अपान मुद्रा निर्मित होती है। तर्जनी (अंगुठे के पास वाली) और कनिष्ठा (सबसे छोटी अंगुली) सीधी रहेगी।
आसन– इसमें उत्कटांसन (उकड़ू बैठना) उपयोगी है। वैसे सुखासन आदि किसी ध्यान-आसन में भी इसे किया जा सकता है।
समय– इसे तीन बार में 16-16  मिनट करें।48 मिनट का अभ्यास परिर्वतन की अनुभूति के स्तर पर पहुँचाता है। प्राण और अपान दोनों का शरीर में महत्व है। प्राण और अपान दोनों को समान बनाना ही योग का लक्ष्य है। प्राण और अपान दोनों के मिलन से चित्त में स्थिरता और समाधि उत्पन्न होती है।
लाभ—
शरीर और नाड़ियों की शुद्धि होती है।
मल और दोष विसर्जित होते है तथा निर्मलता प्राप्त होती है।
कब्ज दूर होती है। यह बवासीर के लिए उपयोगी है। अनिद्रा रोग दूर होता है।
पेट के विभिन्न अवयवों की क्षमता विकसित होती है।
वायु विकार एवं मधुमेह का शमन होता है।
मूत्रावरोध एवं गुर्दों का दोष दूर होता है।
दाँतों के दोष एवं दर्द दूर होते है।
पसीना लाकर शरीर के ताप को दूर करती है।
हृदय शक्तिशाली बनता है।

मुद्राओं के अभ्यास से गंभीर से गंभीर रोग भी समाप्त हो सकता है। मुद्राओं से सभी तरह के रोग और शोक मिटकर जीवन में शांति मिलती है।

मुख्‍यत:  पांच बंध  हैं-- .मूल बंध, उड्डीयान बंध, जालंधर बंध, बंधत्रय और महा बंध।

छह आसन मुद्राएं -- व्रक्त मुद्रा, अश्विनी मुद्रा, महामुद्रा, योग मुद्रा, विपरीत करणी मुद्रा, शोभवनी मुद्रा।

दस हस्त मुद्राएं : ज्ञान मुद्रा, पृथ्‍वी मुद्रा, वरुण मुद्रा,वायु मुद्रा,शून्य मुद्रा,सूर्य मुद्रा, प्राण मुद्रा,लिंग मुद्रा, अपान मुद्रा, अपान वायु मुद्रा।

अन्य मुद्राएं : सुरभी मुद्रा, ब्रह्ममुद्रा,अभयमुद्रा,भूमि मुद्रा,भूमि स्पर्शमुद्रा,धर्मचक्रमुद्रा, वज्रमुद्रा,वितर्कमुद्रा,जनाना मुद्रा, कर्णमुद्रा, शरणागतमुद्रा,ध्यान मुद्रा,सूची मुद्रा,ओम मुद्रा,अंगुलियां मुद्रा, महात्रिक मुद्रा,कुबेर मुद्रा, चीन मुद्रा,वरद मुद्रा,मकर मुद्रा, शंख मुद्रा,रुद्र मुद्रा,पुष्पपूत मुद्रा,वज्र मुद्रा, हास्य बुद्धा मुद्रा, ज्ञान मुद्रा, गणेश मुद्रा,मातंगी मुद्रा,गरुड़ मुद्रा, कुंडलिनी मुद्रा,शिव लिंग मुद्रा,ब्रह्मा मुद्रा,मुकुल मुद्रा महर्षि मुद्रा,योनी मुद्रा,पुशन मुद्रा,कालेश्वर मुद्रा, गूढ़ मुद्रा,बतख मुद्रा,कमल मुद्रा, योग मुद्रा,विषहरण मुद्रा, आकाश मुद्रा,हृदय मुद्रा, जाल मुद्रा, पाचन मुद्रा, आदि।

मुद्राओं के लाभ : कुंडलिनी या ऊर्जा स्रोत को जाग्रत करने के लिए मुद्रओं का अभ्यास सहायक सिद्धि होता है। कुछ मुद्रओं के अभ्यास से आरोग्य और दीर्घायु प्राप्त ‍की जा सकती है। इससे योगानुसार अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों की प्राप्ति संभव है। यह संपूर्ण योग का सार स्वरूप है।


Thursday, November 19, 2015

अमोघ शक्ति का पूंज है गायञी मंञ

मुंडकोपनिषद् में गायत्री के वेदों की जननी कहा गया है। यही एक मात्र ऐसा मंत्र है जिसकी उपासना व आराधना से ब्रह्मांड के समस्त देवी-देवताओं का ध्यान हो जाता है। इन्हीें शक्तियों के कारण इसे अतिगोपनीय मंत्र माना गया है। यही कारण है कि उपनयन संस्कार के समय बटुकों को उनके आचार्य कान में पूरे शरीर को ढक कर मंत्र का उच्चारण करते हैं।
देवी पुराण में गायत्री मंत्र और उस मंत्र के अक्षरों की चैतन्य शक्तियों के बारे मे विस्तार से बताया गया है।
ऊॅ भूभुर्व: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो योन: प्रचोदयात्।
गायत्री के इन मन्त्रों में " ऊॅ भूभुर्व: स्व" को देवी का प्रणव माना जाता है। इसके बाद के शब्दों की कुल संख्या 24 है। इनकी अक्षरों की चैतन्य शक्तियां और इनके कार्य अलग- अलग हैं। यजुर्वेद के अनुसार इनका विभाजन ऐसे किया गया है...
गायत्री वर्ण देवता शक्ति / कार्य
तत् गणेश सफलता,विध्नहरण, बुद्धि, वृद्धि
नरसिंह     पराक्रम,पुरूषार्थ, शत्रुनाश
वि विष्णु  पालन,प्राणियों का पालन रक्षा
तु:         शिव निश्वलता,आत्मपरायण, मुक्तिदान, आत्मनिष्ठा
श्री कृष्ण योग, क्रियाशीलता, कर्मयाेग, सौन्दर्य
रे राधा प्रेम, द्वेष समाप्ति, प्रेम दृष्टि
णि लक्ष्मी धन, धन,पद,यश और योग्य पदार्थ की प्राप्ति
यं अग्नि तेज, उष्णता,प्रकाश, सामर्थ्‍यवृदिध, तेजस्विता
इन्द्र रक्षा,भूत-प्रेतादि से मुक्ति, शत्रु के अनिष्ट आक्रमण से रक्षा
र्गो सरस्वती बुद्धि, मेघावृद्धि, चातुर्य, दूरदर्शिता, विवेकशीलता
दे दुर्गा दमन,विध्न पर विजय, शत्रुसंहार
हनुमान निष्ठा,कर्तव्य परायणता, निर्भयता, ब्रह्मचर्य निष्ठा
स्य पृथ्वी गम्भीरता, क्षमाशीलता, भारवहनक्षमता, सहिष्‍णुता
घी सूर्य        प्राण, प्रकाश,आरोग्य वृद्धि
श्रीराम मर्यादा, मैत्री, अविचलता
हि सीता तप,  निर्विकारता, पवित्रता,शील
घि चन्द्र शांति,  क्षोभ,उद्धिग्धनता का शमन
यो यम काल,मृत्यु से निर्भयता, समय सदुपयोग जागरूकता
यो ब्रह्म उत्पादन वृद्धि ,संतान वृद्धि
न: वरुण ईश, भावुकता, आर्द्रता, माधुर्य
प्र नारायण आदर्श, महत्वाकांक्षावृद्धि, उज्जवल चरित्र
चो हयग्रीव साहस,उत्साह, वीरता,निर्भयता,जूझने की शक्ति
हंस विवेक,उज्जवल कृति,सत्संगति, आत्मतुष्टि
यात् तुलसी सेवा, सत्यनिष्ठा,पतिव्रत्यनिष्ठा,आत्मशक्ति,परकष्ट निवारण
 सचमुच अगर साधक एकमात्र इसी मंत्र की साधना करे तो वह सभी देवी-देवताओं का कृपापात्र बन सकता है।

 

Friday, November 13, 2015

क्यों और कैसे करे सूर्य की आराधना

अथर्ववेद के अनुसार,भगवान सूर्य ग्रहों और नक्षत्रों के स्वामी हैं। ये अपने ताप और प्रकाश से तीनों लोकों में ऊर्जा का संचारण करते हैं। वे उत्तरायण, दक्षिणायण और विषुवत क्रमश: मन्द, शीघ्र तथा समान गतियों से चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियों में ऊंचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन-रात को बड़ा-छोटा करते हैं। वहीं जब वृश्चिकादि पांच राशियों पर चलते हैं तब प्रति मास राशियों में एक-एक घड़ी कम हो जाती है और उसी गणित से दिन बढऩे लगता है। इस प्रकार दक्षिणायण आरंभ होने तक दिन चढ़ता है और उसका उत्तरायण होने पर रात्रि होती है। सूर्यदेव की सत्ता और महत्ता पर सम्पूर्ण ब्रह्मांड की संरचना टिकी है। भगवान सूर्य की उपासना के लिए चैत्र मास में भानू , वैशाख मास में इन्द्र, जेष्ठ मास में रवि, आषाढ़ मास में गर्भस्ति, श्रावण मास में यम, भाद्र मास में वरुण, आश्विन मास में सुवर्णरेखा, कार्तिक में दिवाकर, अग्रहण मास में मित्र, पौष में सनातन,माघ मेंअरुण और मलमास में पुरुष तपते हैं।
सूर्योपासना से विभिन्न दिशाओं की ओर क्रमश: मुख कर आराधना करने से बहुतेरे मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। यथा-भगवान सूर्य की पूरब दिशा की ओर मुख कर आराधना करने से उन्नति, पश्चिम मुख होकर आराधना करने से दुर्भाग्य का अंत, उत्तर मुख साधना करने से धन की प्राप्ति तथा दक्षिण मुख साधना करने से रोग शोक क्षय तथा शत्रु का नाश होता है।
 प्रत्येक वर्ष के कार्तिक एवं चैत्र मास के शुक्ल पक्ष पष्ठी को तथा सप्तमी की उपासना करने पर सर्वांगीण मनोकामना की सिद्धि प्राप्त होती है। प्रत्येक रविवार को सूर्योपासना करने से चतुर्दिक सुख की प्राप्ति होती है। प्रत्येक मास के शुक्ल पष्ठी रविवार के दिन नमक- तेल व तामसी भोजन का त्याग करना चाहिये। इन तिथि या दिन में सूर्योंपासना करने से नेत्र रोग दूर हो जाते हंै।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की पष्ठी तिथि, रविवार के दिन तथा सप्तमी तिथि भगवान सूर्य को प्रिय है। क्योंकि सप्तमी तिथि को ही भगवान सूर्य का आविर्भाव हुआ था।  इस पर्व को छठ पर्व के रूप में मनाते हैं। चार दिवसीय यह पर्व सनातन धर्मावलंबियों के लिए नियम-निष्ठा और स्वच्छता का कठोर पर्व है। कार्तिक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को नहाय-खाय के साथ यह पर्व शुरू होता है। इस दिन व्रती समेत सभी लोग कद्दू और भात का प्रसाद ग्रहण करते हैं। उसके दूसरे दिन पंचमी को खरना होता है। व्रती किसी नदी या तालाब किनारे या फिर घर में नया चूल्हा पर गूड़ का रसिया बनाती है। इसी का भोग मां षष्ठी को लगता है और उन्हें अघ्र्य दिया जाता है। ततपश्चात सभी प्रसाद ग्रहण करते हैं।  षष्ठी तिथि एवं सप्तमी तिथि को नदी,तालाब,पोखर या फिर घर में बने गड्ढे में स्वच्छ जल भर कर व्रती उसमें खड़ी होकर सूर्यदेव का ध्यान करते हैं। षष्ठी तिथि के दिन शाम के समय डूबते सूर्य को और सप्तमी तिथि को उदयीमान सूर्य की पूजा होती है और  उन्हें फल एवं पकवानों के साथ दूध व जल से अघ्र्य दिया जाता है। दोनों तिथियों में छठ पूजा होने के बावजूद षष्ठी तिथि को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि इस दिन डूबते सूर्य की पूजा होती है।
धार्मिक ग्रंथों में संध्या कालीन छठ पूर्व को संभवत: इसलिए प्रमुखता दी गयी है ताकि संसार को यह ज्ञात हो सके कि जब तक हम डूबते सूर्य अर्थात बुजुर्गों को आदर सम्मान नहीं देंगे तब तक उगता सूर्य अर्थात नई पीढ़ी उन्नत और खुशहाल नहीं होगी। संस्कारों का बीज बुजुर्गों से ही प्राप्त होता है। बुजुर्ग जीवन के अनुभव रूपी ज्ञान के कारण वेद पुराणों के समान आदर के पात्र होते हैं। इनका निरादर करने की बजाय इनकी सेवा करें और उनसे जीवन का अनुभव रूपी ज्ञान प्राप्त करें। यही छठ पूजा के संध्या कालीन सूर्य पूजा का तात्पर्य है।

डा.राजीव रंजन ठाकुर

उगऽ-उगऽ हो सुरुज देव भे गेल अरघ के बेर

'षष्ठी तिथि महाराज सर्वदा सर्वकामप्रदा।
उपोष्ण तु प्रयत्नेन सर्वकाल जयर्थिना।।Ó भविष्य पुराण
छठ पर्व सूर्योपासना का अमोघ अनुष्ठान है। सनातन धर्म के पांच प्रमुख देवताओं में भगवान भास्कर का प्रमुख स्थान है। वाल्मीकि रामायण में आदित्य हृदय स्तोत्र के द्वारा सूर्यदेव का जो स्तवन किया गया है उससे उनके सर्वशक्तिमयस्वरूप का बोध होता है। चार दिवसीय इस पर्व के बारे में मान्यता है कि पारिवारिक सुख-समृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए लोग इसे मनाते हैं।
 रामायण के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया था और सूर्यदेव की आराधना की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।
वहीं महाभारत के अनुसार कुंती पांच पुत्रों की माता थी और छठी माता के रूप में उन्हें कलंकित होना पड़ा था। माता को कलंक से मुक्ति दिलाने के लिए कर्ण ने गंगा में सूर्य को अर्घ्?य देना शुरू किया। इसके बाद भगवान सूर्य कर्ण के पास आए और अंग की जनता के समक्ष उन्हें अपना पुत्र माना। इस प्रकार कुंती की पवित्रता कायम रही। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने ही सूर्यदेव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य का भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों पानी में खड़ा होकर सूर्य को अर्घ्?य देता था। वहीं जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा था। जिससे उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया।
देवी भागवत पुराण के अनुसार राजा स्वयंभू मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत नि:संतान थे। तब महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियव्रत की पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र तो हुआ लेकिन वह मृत पैदा हुआ। दु:खी होकर राजा शिशु के शव को लेकर शमशान पहुंचे और पुत्र को हृदय से लगाकर फूट-फूट कर रोने लगे। तभी वहां एक अति सौदर्यमयी देवी प्रकट हुई। उनकी दिव्य आभा से अभिभूत हो राजा ने पुत्र के शव को पृथ्वी पर रखकर देवी की पूजा- अर्चना की। प्रसन्न होकर देवी ने कहा राजन मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री देवसेना हूं। गौरी पुत्र कार्तिकेय से मेरा विवाह हुआ है। मैं सभी मातृकओं में विख्यात स्कंद की पत्नी हूं। मूल प्रकृति के छठे वंश से मेरी उत्पत्ति हुई है। जिस कारण मैं षष्ठी कही जाती हूं। हे राजन मैं पुत्रहीन को पुत्र, पत्नीहीन को पत्नी, धनहीन को धन तथा कर्मवीरों को उनके श्रेष्ठ कर्मों के अनुरुप फल देती हूं। मैं तुम्हारे इस पुत्र को जीवित करती हूं। यह गुणी ज्ञानी और कमलकांति से युक्त होगा। यह भगवान नारायण की कला से उत्पन्न है इस कारण यह सुब्रत नाम से विख्यात होगा। इस तरह अपना परिचय देकर तथा शिशु को राजा को सौंपकर देवी अंतर्धान हो गयी। यह घटना कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को घटी थी। अत: इस तिथि को षष्ठी देवी की पूजा-अर्चना होने लगी और तभी से यह छठी मइया की पूजा के नाम से प्रचलित है।
वहीं लोक परंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। षोडस मातृकाओं में एक षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। जबकि मिथिला और अंग क्षेत्र में धारणा है कि छठ के दौरान पानी में खड़े होने मात्र से ही किसी भी प्रकार के चर्म रोग से छुटकारा मिल जाता है।

डा.राजीव रंजन ठाकुर

Tuesday, November 10, 2015

मां काली की आराधना किस मंञ से करें

'घंटा शूल हलानि शंखममुसलें। चक्रम धनु: सायकं हस्त्राव्जैर्दधति घनान्त विलसच्छीतांशू तुल्य प्रभाम्।
गौरी देह समुदभ्वां त्रिजगतां आधार भूतामहां पूर्वामत्र सरस्वतीमनु भजे शुम्भादि दैत्यार्दिनीम।
प्राणियों का दु:ख दूर करने के लिए देवी भगवती अलग-अलग रूप में  अवतार लेती हैं। सत्व, रज और तम-इन तीनों गुणों का संकलन और समायोजन की शक्ति भी मां भगवती के पास ही है। मां अपनी इन्हीं शक्तियों के माध्यम से संपूर्ण विश्व का सृजन, पालन और संहार करती हैं। काल पर भी शासन करने के कारण महाशक्ति काली कहलाती हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार शुम्भ-निशुम्भ नामक दो दैत्य थे। उनके उपद्रव से पीडित होकर देवताओं ने महाशक्ति का आह्वान किया। तब पार्वती के शरीर से कौशिकी प्रकट हुई। देवी से अलग होते ही देवी का स्वरूप काला हो गया। इसलिए शिवप्रिया पार्वती काली नाम से विख्यात हुई।
तंत्रशास्त्रमें कहा गया है- कलौ काली कलौकाली नान्यदेव कलौयुगे।
कलियुग में एकमात्र काली की आराधना ही पर्याप्त है। साथ ही यह भी कहा गया है-कालिका मोक्षदादेवि कलौशीघ्र फलप्रदा। मोक्षदायिनीकाली की उपासना कलियुग में शीघ्र फल प्रदान करती है।
काली माता का ध्यान करने से उनके मन में सुरक्षा का भाव आता है। उनकी अर्चना और स्मरण से बडे से बडा संकट भी टल जाता है। माता काली के स्वरूप और शक्तियां सभी देवताओं से अधिक हैं। माता काली के शीघ्र्र फलदायक और प्रबल शक्तिशाली मन्त्रों तथा अनेक विभित्र रूपों के भी मन्त्रों का संकलन सभी मन्त्रों में, 'क्रीं, हूं, हीं और स्वाहा शब्दों का प्रयोग होता है।
इनमें क्रीं का अत्यंत विशिष्ट महत्व है। इसमें अक्षर 'क जलस्वरूप और मोक्ष प्रदायक माना जाता है। 'क्र में लगा आधा र अग्रि का प्रतीक तथा सभी प्रकार के तेजों का प्रदायक है। ई की मात्रा मातेश्वरी के तीन कार्यों यथा- सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व संहार का प्रतीक है जबकि  मात्रा के साथ लगा हुआ बिंदू उनके ब्रह्मस्वरूप का द्योतक है। इस प्रकार केवल क्रीं शब्द ही एक पूर्ण मन्त्र का रूप ले लेता है। हूं का प्रयोग अधिकांश मन्त्रों में बीजाक्षर के रूप में होता है। इसे ज्ञान प्रदायक माना जाता है।
हीं शब्द ई की मात्रा के समान आद्याशक्ति के सृष्टि के रचयिता, धारणकर्ता और संहारकर्ता के रूपों का प्रतीक तथा ज्ञान का प्रदायक है। जहाँ तक मन्त्रों के अंत में लगने वाले स्वाहा शब्द का प्रश्‍न है, यह सभी मन्त्रों का मातृस्वरूप है तथा सभी पापों का नाशक माना जाता है।

एकाक्षर मन्त्र-क्रीं
यह काली का एकाक्षर मन्त्र है। यह इतना शक्तिशाली है कि शास्त्रों में इसे महामंत्र की संज्ञा दी गई है। इसे मातेश्वरी काली का प्रणव कहा जाता है और इसका जप उनके सभी रूपों की आराधना, उपासना और साधना में किया जा सकता है।

द्विअक्षर मन्त्र-क्रीं क्रीं
इस मन्त्र का भी स्वतन्त्र रूप से जप किया जाता है। लेकिन तांत्रिक साधनाएं और मन्त्र सिद्धि हेतु बड़ी संख्या में किसी भी मन्त्र का जप करने के पहले और बाद में सात -सात बार इन दोनों बीजाक्षरों के जप का विशिष्ट विधान है।

त्रिअक्षरी मन्त्र-क्रीं क्रीं क्रीं
यह काली की तांत्रिक साधनाओं और उनके प्रचंड रूपों की आराधनाओं का विशिष्ट मन्त्र है।

मां की आराधना का सर्वश्रेष्ठ मन्त्र-क्रीं स्वाहा
महामंत्र 'क्रीं में स्वाहा से संयुक्त यह मन्त्र उपासना अथवा आराधना के अंत में जपने के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

ज्ञान प्रदाता मन्त्र-ह्रीं
यह भी एकाक्षर मन्त्र है। माँ काली की आराधना अथवा उपासना करने के पश्चात इस मन्त्र के नियमित जप से साधक को सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इसे विशेष रूप से दक्षिण काली का मन्त्र कहा जाता है।

क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं स्वाहा-
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन के चारों ध्येयों की आपूर्ति करने में समर्थ है। आठ अक्षरों का यह मन्त्र। उपासना के अंत में इस मन्त्र का जप करने पर सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

ऐं नम: क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा-
ग्यारह अक्षरों का यह मन्त्र अत्यंत दुर्लभ और सर्व सिंद्धियों को प्रदान करने वाला है। उपरोक्त पांच, छह, आठ और ग्यारह अक्षरों के इन मन्त्रों को दो लाख की संख्या में जपने का विधान है। तभी यह मन्त्र सिद्ध होता है।

डॉ राजीव रंजन ठाकुर

Sunday, November 8, 2015

आधी आबादी सब पर भारी

बिहार में विधानसभा के चुनाव का परिणाम आ चुका है। चुनाव के परिणाम ने एक बार फिर इतिहास के अनेकों उदाहरण को सही साबित कर दिया कि अगर रमणियां चेहरे से नकाब उतारकर रणक्षेत्र में उतरती हैं तो उसका परिणाम अप्रत्यशित होता है।
चुनाव के पूर्व सपनों के सौदागर ने सपने बेचने की जबरदस्त कोशिश की। वह यह भूल गए कि बिहार की भूमि पर जौहरियों की कमी नहीं है। यहां सपनों को भी परखा जाता है। चुनाव में मतदाताओं ने यह प्रमाणित कर दिया कि लोकतंत्र के भीड़तंत्र कहीं और मायने रखता हो लेकिन बिहार की जनता लोकतंत्र का मतलब अच्छी तरह समझती है। और यह हो भी क्यों नहीं क्योंकि उत्तर वैदिक काल के सोलह महाजनपदों में से एक लिच्छवी गणराज्य ही विश्व का पहला लोकतांत्रिक प्रदेश था।
चुनाव के प्रथम चरण से ही आधी आबादी ने जिस प्रकार अपनी आंतरिक शक्ति को संजो कर मौन रूप में उसका प्रयोग किया इससे तो लग ही रहा था कि परिणाम कुछ अप्रत्याशित ही होंगे। लेकिन स्वाभिमान और अहं वश बड़े-बड़े महारथी जनता को सपनों के जाल में उलझानें की कोशिश करते रहे। आधी आबादी जहां झूठे सनपों से उब चुकी थी वहीं जंगलराज के खौफ से सिहर भी रही थी। लेकिन उन्होंने अपने मौन की धारा को सुशासन की तरफ मोडऩे के लिए घुंघट से निकलकर ईबीएम का बटन दबाया।
इस चुनावी परिणाम के परिप्रेक्ष्य पर अगर नजर डालें तो आईने की तरह साफ-साफ यह दिखता है कि सुशासन के दौरान मुनिया बिटिया के लिए साइकिल,मध्याह्न भोजन,कन्या विवाह योजना,पोशाक राशि योजना,युवाओं के लिए ऋण योजना,छात्रवृति योजना के साथ -साथ विकास और सुशासन का खुशनुमा चेहरा दिखाई पड़ा। सुशासन के सामाजिक प्रबंधन का भी नजारा सामने था। मतदान का परिणाम भी जात-पात से उठकर सामाजिक विकास के नाम पर मिले मत की ओर ध्यान इंगित कर रहा है। मतदान में पुरुषों के मुकाबले 6 फीसद अधिक मतदान करने वाली महिलाओं ने गजब का कारनामा कर दिखाया। सही मायने में सिक्स ने कर ही दिया फिक्स।
सचमुच आधी आबादी ने दिखा दिया कि वह जब अपनी मर्यादा को तोड़कर बाहर निकलती है तो सारी शक्तियां तहस-नहस हो जाती है।      

डा. राजीव रंजन ठाकुर

Saturday, November 7, 2015

उक्‍त पांच काम करने से रूठ जाती है लक्ष्‍मी

उक्‍त पांच काम करने से रूठ जाती हैं देवी लक्ष्मी

इस भैतिकवादी समय में हर कोई चाहता है कि देवी लक्ष्मी की कृपा उस पर बनी रहे क्योंकि जिस पर भी देवी लक्ष्मी की कृपा होती है उसके पास जीवन की हर सुख-सुविधाएं उपलब्ध रहती हैं। जीवन का हर सुख उसे प्राप्त होता है। यही कारण है कि लोग देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए नित नए उपाय करते हैं।


Garuda Purana- Don't do these five works, Goddess Lakshmi will angry
 गरुड़ पुराण के अनुसार उक्‍त्‍ पांच काम करने से देवी लक्ष्मी मनुष्य तो क्या स्वयं भगवान विष्णु का भी त्याग कर देती हैं। इसलिए इन 5 कामों से बचना चाहिए। ये काम इस प्रकार हैं-

श्लोक
कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं ब्रह्वाशिनं निष्ठुरवाक्यभाषिणम्।
सूर्योदये ह्यस्तमयेपि शायिनं विमुञ्चति श्रीरपि चक्रपाणिम्।।

अर्थात्- 1. मैले वस्त्र पहनने वाले, 2. दांत गंदे रखने वाले, 3. ज्यादा खाने वाले, 4. निष्ठुर (कठोर) बोलने वाले, 5. सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाले स्वयं विष्णु भगवान हों तो उन्हें भी देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।

1. मैले कपड़े पहनना
गरुड़ पुराण के अनुसार मैले वस्त्र यानी गंदे कपड़े पहनने वालों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं। यदि आप साफ-स्वच्छ रहेंगे तो लोग आपसे मिलने-जुलने में संकोच नहीं करेंगे। आपकी जान-पहचान बढ़ेगी। यदि आप कोई व्यापार करते हैं तो जान-पहचान बढ़ने से आपके व्यापार में भी इजाफा होगा। अगर आप नौकरी करते हैं कि आपकी स्वच्छता देखकर मालिक भी खुश रहेगा।
इसके विपरीत यदि आप गंदे कपड़े पहनेंगे तो लोग आपसे दूरी बनाए रखेंगे। कोई आपसे बात करना पसंद नहीं करेगा। ऐसी स्थिति में आपका व्यापार ठप्प हो सकता है और यदि आप नौकरी करते हैं तो मालिक आपको इस अवस्था में देखकर नौकरी से भी निकाल सकता है। अतः गंदे कपड़े नहीं पहनना चाहिए।

2. दांत गंदे रखने वाले
जिन लोगों के दांत गंदे रहते हैं, देवी लक्ष्मी उन्हें भी छोड़ देती हैं। यहां दांत गंदे रहने का सीधा अर्थ आपके स्वभाव व स्वास्थ्य से है। जो लोग अपने दांत ठीक से साफ नहीं करते, वे कोई भी काम पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी से नहीं कर पाते। इससे उनके आलसी स्वभाव के बारे में पता चलता है। अपने आलसी स्वभाव के कारण ऐसे लोग अपनी जिम्मेदारी भी ठीक से नहीं निभा पाते। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से यदि देखें तो जिसके दांत गंदे होते हैं, उसका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता क्योंकि गंदे दांतों के कारण उन्हें पेट से संबंधित अनेक रोग हो सकते हैं। अतः गंदे दांत होने से व्यक्ति के आलसी व रोगी होने की संभावना सबसे अधिक रहती है। इसलिए देवी लक्ष्मी गंदे दांत वाले लोगों का त्याग कर देती हैं।

3. ज्यादा खाने वाले
जो लोग अपनी जरूरत से अधिक भोजन करते हैं वो निश्चित तौर पर अधिक मोटे होते हैं। मोटा शरीर उन्हें परिश्रम करने से रोकता है, वहीं ऐसे शरीर के कारण उन्हें अनेक प्रकार की बीमारियां भी घेर लेती हैं। ऐसे लोग परिश्रम से अधिक भाग्य पर भरोसा करते हैं। जबकि देवी लक्ष्मी ऐसे लोगों के पास रहना पसंद करती हैं जो अपने परिश्रम के बल पर ही आगे बढ़ने की काबिलियत रखते हैं। मोटा शरीर लोगों को अधिक आलसी बना देता है। इसलिए ज्यादा खाने वाले लोगों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं। अतः जरूरत से अधिक नहीं खाना चाहिए।

4. निष्ठुर (कठोर) बोलने वाले
जो लोग बिना किसी बात या छोटी-छोटी बातों पर दूसरों पर चीखते-चिल्लाते हैं, उन्हें अपशब्द कहते हैं। ऐसे लोगों को भी देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं। जो लोग इस प्रकार का व्यवहार अपने जान-पहचान वाले, नौकर या अपने अधीन काम करने वालों के साथ करते हैं उनका स्वभाव बहुत ही क्रूर होता है। इनके मन में किसी के प्रति प्रेम या दया नहीं होती। जिन लोगों के मन में प्रेम या दया का भाव न हो वो कभी दूसरों की मदद नहीं करते और जो लोग दूसरों की मदद नहीं करते, देवी लक्ष्मी उन्हें पसंद नहीं करती। मन में प्रेम व दया हो तो ही भगवान का आशीर्वाद बना रहता है। इसलिए निष्ठुर यानी कठोर बोलने वालों लोगों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।

5. सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाले
सूर्योदय व सूर्यास्त का समय भगवान का स्मरण करने तथा शारीरिक व्यायाम के लिए निश्चित किया गया है। सूर्योदय के समय योग, प्राणायाम व अन्य कसरत करने से शरीर स्वस्थ रहता है। इस समय वातावरण में शुद्ध आक्सीजन रहती है, जो फेफड़ों को स्वस्थ रखती हैं। इसके अतिरिक्त सूर्योदय के समय मंत्र जाप कर भगवान का स्मरण करने से भी अनेक फायदे मिलते हैं। अतः सूर्योदय होने से पहले ही उठ जाना चाहिए।
सूर्यास्त के समय भी हल्का-फुल्का व्यायाम किया जा सकता है। ये समय भगवान के पूजन के लिए नियत हैं। जो लोग सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोते हैं, वे निश्चित तौर पर आलसी होते हैं। अपने आलसी स्वभाव के कारण ही ऐसे लोग जीवन में कोई सफलता अर्जित नहीं कर पाते। यही कारण है कि सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोने वाले लोगों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।

Friday, November 6, 2015

क्‍या होगा बिहार का चुनाव परिणाम

सिक्स करेगा फिक्स
घुंघट की आढ़ से दिलवर का दीदार करने वाली बिहार की आधी आबादी ने इस बार सारे मिथकों को तोड़ते हुए घुंघट को हटाकर लोकतंत्र रूपी दिलवर का दीदार किया और एक बार फिर मौन रहकर बड़े-बड़े महारथियों को चुनावी संग्राम का परिणाम जानने के लिए असमंजस के भंवर में फेक दिया।
हालांकि इस क्रम में उनकी जुबान महंगी रसोई, जंगलराज के दौरान का खौफनाक मंजर को कोसती नजर आयीं, वहीं सुशासन का सकुन भी उन्हें उद्वेलित करती रहीं। बावजूद उन्होंने अपनी आंतरिक शक्ति को जागृत कर लोकतंत्र के इस महापर्व में जमकर आहुति डाली। लेकिन पांचों चरण में हुए मतदान का चुनावी आंकड़ा बताता है कि उन्होंने आहुति किस देवता(पार्टी) के नाम से डाली यह किसी को पता नहीं।
आंकड़ों पर एक नजर--
                     पुरुष वोटर  महिला वोटर
प्रथम चरण       52.67       59.42
दूसरा चरण       55.28       55.65
तीसरा चरण     53.03        54.57
चौथा चरण       53.62       64.18
पांचवां चरण     56.05       59.48
इन चुनाव के मतों का प्रतिशत औसतन करीब 6 फीसद महिला मतदाताओं की मतदान में बढ़ी भागीदारी को बता रहा है। यह संख्या बड़े-बड़े दिग्गजों व राजनीतिक महापंडितों की गणना को गड़बड़ा रहा है। वे सौ फीसद यह बताने में अक्षम दिख रहे हैं कि ऊंट किस करवट बैठेगा। इतना ही नहीं, महिलाओं के वर्गीकरण के औसतों  का अनुपात यह संकेत भी दे रहा है कि चुनाव परिणाम में सुशासन के नुमाइंदों को घाटा नहीं होने जा रहा है।
यही वजह है कि सारे प्रत्याशी अपनों की बैठक में जीतते व गैरों की महिफल में हारते नजर आ रहे हैं। लेकिन मतदान बाद प्रत्याशियों की गतिविधि से साफ लगता है कि उम्मीदों की उत्तेजना उन्हें सोने नहीं दे रही है। आंखों से नींद जैसे गायब है। सबको अपने पक्ष में वोटरों के समर्थन की आस है।

डा. राजीव रंजन ठाकुर

Wednesday, November 4, 2015

कैसे करें मां लक्ष्‍मी की पूजा

लक्ष्‍मी रूपेण संस्थिता......
अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनु: कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च धर्म जलजं घंटां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दघतीं हस्तै: प्रसन्नाननां
सेवे सैभिमर्दिनीमिह महालक्ष्मी सरोजस्थिताम्।।
                                                  मार्कण्डेय पुराण
कितनी अद्भुत बात है कि मानव समस्त कामनाओं से अभिभूत हो मां लक्ष्मी की इस भाव से कि जिनके हाथ में अक्षमाला, परशु, गदा, वाण, वज्र, कमल, धनुष, कुण्डिका, शक्ति, खडग़, पर्म, शंख, घंटा, मधुपात्र, शूल, पाश और सुदर्शनचक्र धारण करने वाली कमलस्थित महिषासुरमर्दिनी महालक्ष्मी का ध्यान करता है। सचमुच शक्ति शब्द सुनते ही हमारे सामने एक स्त्री का स्वरूप ही उभरता है। उससे भी अद्भुत बात यह है कि उस स्त्री में हमें केवल और केवल मां का ही रूप दिखाई देता है। जब-जब पुरूष ने इस शक्तिरूपा को मां से इतर भोग्या के रूप में देखा है तब-तब उसका परिणाम विनाशकारी हुआ है। रावण महिषासुर, अंधकासुर, चंड-मुंड,शुंभ- निशुंभ, बाली से लेकर आज के युग तक इस जैसे आततायियों की एक लंबी फेहरिस्त है जिसका शक्ति ने संहार किया है। तमाम प्राकृतिक आपदाएं इस शक्ति के प्रकोप का जीता-जागता उदाहरण है।
माता लक्ष्मी की उपासना उनके तीन रूपों में किए जाने का विधान है।
1. श्री कनकधारा 2.श्री लक्ष्मी 3. श्री महालक्ष्मी
1. देवी कनकधारा की आराधना इस मंत्र से करनी चाहिए- अड़्गं हरे: पुलकभूषणमाश्रयन्ती, भृड़्गाड़्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।
अड़्गीकृताखिल विभूतिरपाड़्ग लीला, माड़्गल्यदास्तु मम मंगल देवताया।।
2. श्री लक्ष्मी की आराधना इस मंत्र से कारनी चाहिए- जय पद्मपलाशक्षि जय त्वं श्रीपतिप्रिये।
जय मातर्महालक्ष्मि संसारर्णवतारिणि।।
3. श्री महालक्ष्मी  की आराधना इस मंत्र से करनी चाहिए-सिंहासनगत: शक्र: सम्प्राप्य त्रिदिवं पुन:।
देवराज्ये स्थितो देवीं तुष्टावाब्जकरां तत:।।
इस स्त्रोतो मां लक्ष्मी का ध्यान व पूजा कर मनुष्य समस्त वैभवों और धान्य-धान्य से परिपूर्ण हो जाता है, ऐसा पुराणों में वर्णित है।
माता लक्ष्मी का वाहन उल्लू है जिसे रात में ही दिखाई देता है। वहीं जब माता गज की सवारी करती हंै तब वह समस्त ऐश्वर्य और वैभव प्रदान करने वाली वैभव स्वरूपा बन जाती है। इस लिए पुराणों में मां के तीन स्वरूप की पूजा अलग-अलग कामनाओं के लिए करने का विधान है। मां की पूजा स्थिर लग्न यानि जब लग्न में कुंभ, सिंह, वृष और वृश्चिक का प्रवेश होता है तब करनी चाहिए। क्योंकि इस काल में पूजा का प्रभाव सौ फीसद फलदायी माना गया है। मार्कण्डेय पुराण में जो तीन रात्रि यानि कालरात्रि, महारात्रि, महोरात्रि की जो चर्चा की गई है उसमें महोरात्रि वही रात्रि है जिसमें स्थिर लग्न के समय मां लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ है। उसी वक्त हम उस देवी की आराधना करते है। मां लक्ष्मी की पूजा में श्रीयंत्र का बहुत महत्व है। इस यंत्र की स्थापना करने या फिर इस महोरात्रि में उसकी पूजा-आराधना से समस्त कामनाओं की पूर्ति संभव है।
पूजन सामग्री-माता की पूजा के लिए लाल कमल पुष्प, स्फटिक की माला, कमलाक्ष, रोली, अक्षत, स्वर्णधातु, जल, धूप, केला,दीपक,लाल वस्त्र आदि की आवश्यकता होती है।
पूजा विधि-पूजन शुरू करने से पूर्व चौकी को धोकर उस पर रंगोली बनाएं। चौकी के चारों कोने पर चार दीपक जलाएं। जिस स्थान पर गणेश एवं लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित करनी हो वहां कुछ चावल रखें। इस स्थान पर गणेश और लक्ष्मी की मूर्ति को रखें। लक्ष्मी माता की पूर्ण प्रसन्नता हेतु भगवान विष्णु की मूर्ति लक्ष्मी माता के बायीं ओर रखकर पूजा करनी चाहिए।
इसके बाद आसन पर मूर्ति के सम्मुख बैठ जाएं। इसके बाद अपने गंगा जल से स्वयं,आसन,भूमि व समस्त सामग्री को इस मंत्र से शुद्धि करें- ऊं अपवित्र: पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। यास्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर शुचि। इसके बाद हाथ में जल लेकर ऊं केशवाय नम:,ऊं माधवाय नम: ,ऊं नारायणाय नम: नामक मंत्र से आचमन करें।
शुद्धि और आचमन के बाद चंदन लगाना चाहिए। अनामिका उंगली से श्रीखंड चंदन लगाते हुए इस मंत्र का उच्चरण करें-चन्दनस्य महत्पुण्यम् पवित्रं पापनाशनम, आपदां हरते नित्यम् लक्ष्मी तिष्ठतु सर्वदा।
इसके बाद घड़े या लोटे पर मोली बांधकर कलश के ऊपर आम का पल्लव रखें। कलश के अंदर सुपारी, दूर्वा, अक्षत, मुद्रा रखें। नारियल पर वस्त्र लपेट कर कलश पर रखें। हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरूण देवता का कलश में आह्वान करें। इसके बाद लक्ष्मी देवी की प्रतिष्ठा करें। हाथ में अक्षत लेकर बोलें -भूर्भुव: स्व: महालक्ष्मी, इहागच्छ इह तिष्ठ, एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम।
प्रतिष्ठा के बाद स्नान कराएं। रक्त चंदन लगाएं। अब लक्ष्मी देवी को इदं रक्त वस्त्र समर्पयामि कहकर लाल वस्त्र पहनाएं। फिर लक्ष्मी देवी की अंग पूजा करें। ततपश्चात देवी को इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि मंत्र से नैवैद्य अर्पित करें। फिर एक फूल लेकर लक्ष्मी देवी पर चढ़ाएं और बोले एष पुष्पान्जलि ऊं महालक्ष्मियै नम:।
लक्ष्मी देवी की पूजा के बाद भगवान विष्णु एवं शिव जी पूजा करनी चाहिए फिर गल्ले की पूजा करें। पूजन के पश्चात सपरिवार आरती और क्षमा प्रार्थना करें।

डॉ राजीव रंजन ठाकुर