अथर्ववेद के अनुसार,भगवान सूर्य ग्रहों और नक्षत्रों के स्वामी हैं। ये अपने ताप और प्रकाश से तीनों लोकों में ऊर्जा का संचारण करते हैं। वे उत्तरायण, दक्षिणायण और विषुवत क्रमश: मन्द, शीघ्र तथा समान गतियों से चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियों में ऊंचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन-रात को बड़ा-छोटा करते हैं। वहीं जब वृश्चिकादि पांच राशियों पर चलते हैं तब प्रति मास राशियों में एक-एक घड़ी कम हो जाती है और उसी गणित से दिन बढऩे लगता है। इस प्रकार दक्षिणायण आरंभ होने तक दिन चढ़ता है और उसका उत्तरायण होने पर रात्रि होती है। सूर्यदेव की सत्ता और महत्ता पर सम्पूर्ण ब्रह्मांड की संरचना टिकी है। भगवान सूर्य की उपासना के लिए चैत्र मास में भानू , वैशाख मास में इन्द्र, जेष्ठ मास में रवि, आषाढ़ मास में गर्भस्ति, श्रावण मास में यम, भाद्र मास में वरुण, आश्विन मास में सुवर्णरेखा, कार्तिक में दिवाकर, अग्रहण मास में मित्र, पौष में सनातन,माघ मेंअरुण और मलमास में पुरुष तपते हैं।
सूर्योपासना से विभिन्न दिशाओं की ओर क्रमश: मुख कर आराधना करने से बहुतेरे मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। यथा-भगवान सूर्य की पूरब दिशा की ओर मुख कर आराधना करने से उन्नति, पश्चिम मुख होकर आराधना करने से दुर्भाग्य का अंत, उत्तर मुख साधना करने से धन की प्राप्ति तथा दक्षिण मुख साधना करने से रोग शोक क्षय तथा शत्रु का नाश होता है।
प्रत्येक वर्ष के कार्तिक एवं चैत्र मास के शुक्ल पक्ष पष्ठी को तथा सप्तमी की उपासना करने पर सर्वांगीण मनोकामना की सिद्धि प्राप्त होती है। प्रत्येक रविवार को सूर्योपासना करने से चतुर्दिक सुख की प्राप्ति होती है। प्रत्येक मास के शुक्ल पष्ठी रविवार के दिन नमक- तेल व तामसी भोजन का त्याग करना चाहिये। इन तिथि या दिन में सूर्योंपासना करने से नेत्र रोग दूर हो जाते हंै।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की पष्ठी तिथि, रविवार के दिन तथा सप्तमी तिथि भगवान सूर्य को प्रिय है। क्योंकि सप्तमी तिथि को ही भगवान सूर्य का आविर्भाव हुआ था। इस पर्व को छठ पर्व के रूप में मनाते हैं। चार दिवसीय यह पर्व सनातन धर्मावलंबियों के लिए नियम-निष्ठा और स्वच्छता का कठोर पर्व है। कार्तिक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को नहाय-खाय के साथ यह पर्व शुरू होता है। इस दिन व्रती समेत सभी लोग कद्दू और भात का प्रसाद ग्रहण करते हैं। उसके दूसरे दिन पंचमी को खरना होता है। व्रती किसी नदी या तालाब किनारे या फिर घर में नया चूल्हा पर गूड़ का रसिया बनाती है। इसी का भोग मां षष्ठी को लगता है और उन्हें अघ्र्य दिया जाता है। ततपश्चात सभी प्रसाद ग्रहण करते हैं। षष्ठी तिथि एवं सप्तमी तिथि को नदी,तालाब,पोखर या फिर घर में बने गड्ढे में स्वच्छ जल भर कर व्रती उसमें खड़ी होकर सूर्यदेव का ध्यान करते हैं। षष्ठी तिथि के दिन शाम के समय डूबते सूर्य को और सप्तमी तिथि को उदयीमान सूर्य की पूजा होती है और उन्हें फल एवं पकवानों के साथ दूध व जल से अघ्र्य दिया जाता है। दोनों तिथियों में छठ पूजा होने के बावजूद षष्ठी तिथि को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि इस दिन डूबते सूर्य की पूजा होती है।
धार्मिक ग्रंथों में संध्या कालीन छठ पूर्व को संभवत: इसलिए प्रमुखता दी गयी है ताकि संसार को यह ज्ञात हो सके कि जब तक हम डूबते सूर्य अर्थात बुजुर्गों को आदर सम्मान नहीं देंगे तब तक उगता सूर्य अर्थात नई पीढ़ी उन्नत और खुशहाल नहीं होगी। संस्कारों का बीज बुजुर्गों से ही प्राप्त होता है। बुजुर्ग जीवन के अनुभव रूपी ज्ञान के कारण वेद पुराणों के समान आदर के पात्र होते हैं। इनका निरादर करने की बजाय इनकी सेवा करें और उनसे जीवन का अनुभव रूपी ज्ञान प्राप्त करें। यही छठ पूजा के संध्या कालीन सूर्य पूजा का तात्पर्य है।
डा.राजीव रंजन ठाकुर
सूर्योपासना से विभिन्न दिशाओं की ओर क्रमश: मुख कर आराधना करने से बहुतेरे मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। यथा-भगवान सूर्य की पूरब दिशा की ओर मुख कर आराधना करने से उन्नति, पश्चिम मुख होकर आराधना करने से दुर्भाग्य का अंत, उत्तर मुख साधना करने से धन की प्राप्ति तथा दक्षिण मुख साधना करने से रोग शोक क्षय तथा शत्रु का नाश होता है।
प्रत्येक वर्ष के कार्तिक एवं चैत्र मास के शुक्ल पक्ष पष्ठी को तथा सप्तमी की उपासना करने पर सर्वांगीण मनोकामना की सिद्धि प्राप्त होती है। प्रत्येक रविवार को सूर्योपासना करने से चतुर्दिक सुख की प्राप्ति होती है। प्रत्येक मास के शुक्ल पष्ठी रविवार के दिन नमक- तेल व तामसी भोजन का त्याग करना चाहिये। इन तिथि या दिन में सूर्योंपासना करने से नेत्र रोग दूर हो जाते हंै।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की पष्ठी तिथि, रविवार के दिन तथा सप्तमी तिथि भगवान सूर्य को प्रिय है। क्योंकि सप्तमी तिथि को ही भगवान सूर्य का आविर्भाव हुआ था। इस पर्व को छठ पर्व के रूप में मनाते हैं। चार दिवसीय यह पर्व सनातन धर्मावलंबियों के लिए नियम-निष्ठा और स्वच्छता का कठोर पर्व है। कार्तिक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को नहाय-खाय के साथ यह पर्व शुरू होता है। इस दिन व्रती समेत सभी लोग कद्दू और भात का प्रसाद ग्रहण करते हैं। उसके दूसरे दिन पंचमी को खरना होता है। व्रती किसी नदी या तालाब किनारे या फिर घर में नया चूल्हा पर गूड़ का रसिया बनाती है। इसी का भोग मां षष्ठी को लगता है और उन्हें अघ्र्य दिया जाता है। ततपश्चात सभी प्रसाद ग्रहण करते हैं। षष्ठी तिथि एवं सप्तमी तिथि को नदी,तालाब,पोखर या फिर घर में बने गड्ढे में स्वच्छ जल भर कर व्रती उसमें खड़ी होकर सूर्यदेव का ध्यान करते हैं। षष्ठी तिथि के दिन शाम के समय डूबते सूर्य को और सप्तमी तिथि को उदयीमान सूर्य की पूजा होती है और उन्हें फल एवं पकवानों के साथ दूध व जल से अघ्र्य दिया जाता है। दोनों तिथियों में छठ पूजा होने के बावजूद षष्ठी तिथि को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि इस दिन डूबते सूर्य की पूजा होती है।
धार्मिक ग्रंथों में संध्या कालीन छठ पूर्व को संभवत: इसलिए प्रमुखता दी गयी है ताकि संसार को यह ज्ञात हो सके कि जब तक हम डूबते सूर्य अर्थात बुजुर्गों को आदर सम्मान नहीं देंगे तब तक उगता सूर्य अर्थात नई पीढ़ी उन्नत और खुशहाल नहीं होगी। संस्कारों का बीज बुजुर्गों से ही प्राप्त होता है। बुजुर्ग जीवन के अनुभव रूपी ज्ञान के कारण वेद पुराणों के समान आदर के पात्र होते हैं। इनका निरादर करने की बजाय इनकी सेवा करें और उनसे जीवन का अनुभव रूपी ज्ञान प्राप्त करें। यही छठ पूजा के संध्या कालीन सूर्य पूजा का तात्पर्य है।
डा.राजीव रंजन ठाकुर
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