Thursday, November 26, 2015

ध्‍यान और मुद्राओं की साधना के लिए पहले जरूरी है शरीर की शुद़धता

शरीर को शुदध करने और ततपश्‍चात ध्‍यान मार्ग की ओर अग्रसर होने पर ही व्‍यक्ति अभिष्‍ट की प्राप्ति कर सकता है। मुद्रा रहस्‍य के अनुसार जब तक  आपका शरीर स्वस्थ नहीं होगा तब तक आपका ध्‍यान किसी कार्य में एकाग्र नहीं होगा।
आदि शंकराचार्य ने सौन्दर्य लहरी नामक ग्रन्थ में मां त्रिपुरसुन्दरी के स्वरूप का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। वहीं हमारे ऋषियों ने मुद्राओ को मंत्र साधना के साथ इसलिए जोड़ दिया ताकि व्यक्ति भगवान के साथ- साथ एक अच्छा स्वस्थ शरीर भी प्राप्त कर सके ।
सम्पूर्ण शरीर में मुख्य रूप से प्राण वायु स्थित है। यहीं प्राण वायु शरीर के विभिन्न अवयवों एवं स्थानों पर भिन्न-भिन्न कार्य करती है। इस दृष्टि से उनका नाम पृथक-पृथक दिया गया है। जैसे- प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। यह वायु समुदाय पांच प्रमुख केन्द्रों में अलग-अलग कार्य करता है। प्राण स्थान मुख्य रूप से हृदय में आंनद केंद्र (अनाहत चक्र) में है। प्राण नाभि से लेकर कठं-पर्यन्त फैला हुआ है। प्राण का कार्य श्वास-प्रश्वास करना, खाया हुआ भोजन पकाना, भोजन के रस को अलग-अलग इकाइयों में विभक्त करना, भोजन से रस बनाना, रस से अन्य धातुओं का निर्माण करना है। अपान का स्थान स्वास्थय केन्द्र और शक्ति केन्द्र है, योग में जिन्हें स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधर चक्र कहा जाता है। अपान का कार्य मल, मूत्र, वीर्य, रज और गर्भ को बाहर निकालना है। सोना, बैठना, उठना, चलना आदि गतिमय स्थितियों में सहयोग करना है। जैसे अर्जन जीवन के लिए जरूरी है, वैसे ही विर्सजन भी जीवन के लिए अनिर्वाय है। शरीर में केवल अर्जन की ही प्रणाली हो, विर्सजन के लिए कोई अवकाश न हो तो व्यक्ति का एक दिन भी जिंदा रहना मुश्किल हो जाता है। विर्सजन के माध्यम से शरीर अपना शोधन करता है। शरीर विर्सजन की क्रिया यदि एक, दो या तीन दिन बन्द रखे तो पूरा शरीर मलागार हो जाए। ऐसी स्थिति में मनुष्य का स्वस्थ्य रहना मुश्किल हो जाता है। अपान मुद्रा अशुचि और गन्दगी का शोधन करती है।

विधि– मध्यमा और अनामिका दोनों अँगुलियों एवं अंगुठे के अग्रभाग को मिलाकर दबाएं। इस प्रकार अपान मुद्रा निर्मित होती है। तर्जनी (अंगुठे के पास वाली) और कनिष्ठा (सबसे छोटी अंगुली) सीधी रहेगी।
आसन– इसमें उत्कटांसन (उकड़ू बैठना) उपयोगी है। वैसे सुखासन आदि किसी ध्यान-आसन में भी इसे किया जा सकता है।
समय– इसे तीन बार में 16-16  मिनट करें।48 मिनट का अभ्यास परिर्वतन की अनुभूति के स्तर पर पहुँचाता है। प्राण और अपान दोनों का शरीर में महत्व है। प्राण और अपान दोनों को समान बनाना ही योग का लक्ष्य है। प्राण और अपान दोनों के मिलन से चित्त में स्थिरता और समाधि उत्पन्न होती है।
लाभ—
शरीर और नाड़ियों की शुद्धि होती है।
मल और दोष विसर्जित होते है तथा निर्मलता प्राप्त होती है।
कब्ज दूर होती है। यह बवासीर के लिए उपयोगी है। अनिद्रा रोग दूर होता है।
पेट के विभिन्न अवयवों की क्षमता विकसित होती है।
वायु विकार एवं मधुमेह का शमन होता है।
मूत्रावरोध एवं गुर्दों का दोष दूर होता है।
दाँतों के दोष एवं दर्द दूर होते है।
पसीना लाकर शरीर के ताप को दूर करती है।
हृदय शक्तिशाली बनता है।

मुद्राओं के अभ्यास से गंभीर से गंभीर रोग भी समाप्त हो सकता है। मुद्राओं से सभी तरह के रोग और शोक मिटकर जीवन में शांति मिलती है।

मुख्‍यत:  पांच बंध  हैं-- .मूल बंध, उड्डीयान बंध, जालंधर बंध, बंधत्रय और महा बंध।

छह आसन मुद्राएं -- व्रक्त मुद्रा, अश्विनी मुद्रा, महामुद्रा, योग मुद्रा, विपरीत करणी मुद्रा, शोभवनी मुद्रा।

दस हस्त मुद्राएं : ज्ञान मुद्रा, पृथ्‍वी मुद्रा, वरुण मुद्रा,वायु मुद्रा,शून्य मुद्रा,सूर्य मुद्रा, प्राण मुद्रा,लिंग मुद्रा, अपान मुद्रा, अपान वायु मुद्रा।

अन्य मुद्राएं : सुरभी मुद्रा, ब्रह्ममुद्रा,अभयमुद्रा,भूमि मुद्रा,भूमि स्पर्शमुद्रा,धर्मचक्रमुद्रा, वज्रमुद्रा,वितर्कमुद्रा,जनाना मुद्रा, कर्णमुद्रा, शरणागतमुद्रा,ध्यान मुद्रा,सूची मुद्रा,ओम मुद्रा,अंगुलियां मुद्रा, महात्रिक मुद्रा,कुबेर मुद्रा, चीन मुद्रा,वरद मुद्रा,मकर मुद्रा, शंख मुद्रा,रुद्र मुद्रा,पुष्पपूत मुद्रा,वज्र मुद्रा, हास्य बुद्धा मुद्रा, ज्ञान मुद्रा, गणेश मुद्रा,मातंगी मुद्रा,गरुड़ मुद्रा, कुंडलिनी मुद्रा,शिव लिंग मुद्रा,ब्रह्मा मुद्रा,मुकुल मुद्रा महर्षि मुद्रा,योनी मुद्रा,पुशन मुद्रा,कालेश्वर मुद्रा, गूढ़ मुद्रा,बतख मुद्रा,कमल मुद्रा, योग मुद्रा,विषहरण मुद्रा, आकाश मुद्रा,हृदय मुद्रा, जाल मुद्रा, पाचन मुद्रा, आदि।

मुद्राओं के लाभ : कुंडलिनी या ऊर्जा स्रोत को जाग्रत करने के लिए मुद्रओं का अभ्यास सहायक सिद्धि होता है। कुछ मुद्रओं के अभ्यास से आरोग्य और दीर्घायु प्राप्त ‍की जा सकती है। इससे योगानुसार अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों की प्राप्ति संभव है। यह संपूर्ण योग का सार स्वरूप है।


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