Saturday, June 25, 2016

वेद सार 53

विभूरसि प्रवाहण:। बहिरसि हव्यवाहन:। श्र्वात्रोऽसि प्रचेतास्तुथोऽसि विश्ववेदा।
                                                                                           यजुर्वेद:- 5/31

भावार्थ:-विभू-हे व्यापकेश्वर,सर्वत्र प्रकाशित
असि- हो
प्रवाहण:-स्वस्व नियमपूर्वक चलानेवाले तथा सबके निर्वाहक
बहिरसि-हे स्वप्रकाशक
हव्यवाहन:- सब हव्य ,उत्कृष्ठ रसों के भेदक
श्र्वात्रा-हे आत्मन
प्रचेता-प्रकृष्ट ज्ञान स्वरूप
तुथ:-हे सर्ववित
विश्ववेदा-सब जगत में विद्यमान प्राप्त और लाभ कराने वाले

व्याख्या-हे व्यापकेश्वर आप सर्वत्र वैभवैश्वर्ययुक्त हो। आप समस्त जगत के निर्वाहकारक और उसे चलाने वाले हो । हे स्वप्रकाशक आप सभी हव्य उत्कृष्ठ रसों के भेदक आकर्षण तथा यथावत संस्थापक हो ँ हे आत्मन आप शीघ्र व्यवनशील हो तथा ज्ञान स्वरूप प्रकृष्ठ ज्ञान देने वाले हो। हे सर्वविद आप विश्ववेदा हो। समस्त जगत में विद्यमान प्राप्त और लाभ करानेवाले हो।

Monday, June 20, 2016

श्‍मशान


                    श्‍मशान

यही तो है श्‍मशान---
बराबर होता जहां सबकी शान
रहे न दंभ और झूठी आन ।
धरा रहे जहां झूठा अभिमान
विलिन होता जहां सब एक समान।
यही तो है श्‍मशान----।
पंच तत्‍व की बनी यह काया
विखरती है यहीं उसकी छाया।
यहां नहीं मानवता की माया
सब कुछ झुठलाती है यहीं साया।
यही तो है श्‍मशान----।
झूठ, फरेबी और मक्‍कारी
सबकी होती सहीं खिंचाई ।
मानव ,दानव और प्रकृति
सब सीखते हैं यहीं सच्‍चाई।
यही तो है श्‍मशान---।
सत चित और आनंद
मिलता है जहां ।
लोभ, मोह और क्षोभ
जाता है वहां।
यही तो है श्‍मशान---।।   
         

Thursday, June 16, 2016

वेद सार 52

इन्द्रोविश्वस्य राजति। श्ंा नो ऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे।।
                                                                       यजुर्वेद:-36/8

भावार्थ:-
इन्द्र-हे इन्द्र आप परमैश्वर्ययुक्त हो
विश्वस्य- समस्त संसार के
राजति-राजा हो,सर्वप्रकाशक हो
शम्-परमसुखदायक
न:-हमलोगों के
अस्तु- हो
द्विपदे- पुत्रादि के लिए
चतुष्पदे-हस्ती,अश्व और गवादि पशुओं के लिए

व्याख्या:-
हे इन्द्र आप परमैश्वर्ययुक्त समस्त संसार के राजा हो,सर्वप्रकाशक हो। हे रक्षक आप कृपा से हमलोगों के जो पुत्रादि हैं उनके लिए परमसुखदायक हो तथा हस्ती,अश्व और गवादि पशुओं के लिए भी परम सुखकारक हो जिससे हमलोगों को सदा आनंद ही रहे।

Sunday, June 12, 2016

आतंकबाद


आतंकबाद
आतंकवाद की आंधी आई थी
बीते लगभग बरस पचास।
 दुनिया को दी इसने थ्रेटनिंग
 और फैलाया अपना जाल।।
मानव को मानवता भुलव़ाया
सारे विश्‍व को धूल चटाया।
चैन छिनी और खून बहाया
जन जन को खूब कुपित कराया।।
पूरबी हो या पश्चिमी राष्‍ट्र
इससे सब खौफ खाता बेहिसाब।
मकसद चाहे जो भी हो
खून बहाता बेहिसाब ।।
कोई कहता जेहाद
तो कोई कहता जंग।
पर कुछ भी हो
इससे मानव को नहीं है संच।।
जाति धर्म को कमान बनाया
तिनके तिनके को उसमें उलझाया ।
आज हर राष्‍ट्र की मुख्‍य समस्‍या
आतंकवाद का करना सफाया।। 
   

आस्‍था का दर्द


आस्‍था का दर्द
आस्‍था का दर्द
होता है   बेदर्द।
करता धड़कनों को सर्द
बनाता है वेपर्द।
आस्‍था का दर्द
है बड़ी कठिन मर्ज।
दम भी न लेती,
कहती अभी ठहर।
आस्‍था का दर्द
काया को देती है कर्ज
कहती मैं हूं मर्द,
तभी तो हूं बेदर्द।
आस्‍था का दर्द
करती न कद्र
सब कुछ उड़ा ले जाती
केबल छोड़ती है दर्द।
आस्‍था का दर्द
अब दर्दें ही करेंगी
आस्‍था का फैसला ।
जिसमें जितना सब्र होगा
फायदा वही ले जाऐगा।
आस्‍था का दर्द

Thursday, June 9, 2016

त्तंत्र मंत्र यंत्र-11

विद्या प्रप्ति के मंत्र और यंत्रगणेश भगवान एवं विद्या दात्री माँ सरस्वती का एक चित्र लें। पूजन सामग्री सम्मुख रखें (गाय के घी का दीपक, धूप, कपूर, पीले चावल, सफेद या पीला मिष्ठान्न, गंगा जल, भोज पत्र, गोरोचन, कुंकुम, केसर, लाल चंदन, अनार या तुलसी की कलम इत्यादि)। सर्वप्रथम गुरु का ध्यान करें। तत्पश्चात गोरोचन, केसर, कुंकुम और लाल चंदन को गंगा जल में घिसकर स्याही बना लें और भोज पत्र पर निम्न मंत्र लिखकर, माँ सरस्वती के चित्र के साथ रखकर एक माला रोज मंत्र का जाप करें। 
गणेश ध्यान : ॐ वक्रतुंड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभः। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा। 
गणेश मंत्र : ॐ वक्रतुंडाय हूं॥ 

सरस्वती गायत्री मंत्र : ॐ वागदैव्यै च विद्महे कामराजाय धीमहि। तन्नो देवी प्रचोदयात्‌। प्रथम दिन 5 माला का जाप करने से साक्षात माँ सरस्वती प्रसन्न हो जाती हैं तथा साधक को ज्ञान-विद्या का लाभ प्राप्त होना शुरू हो जाता है। नित्य कर्म करने पर साधक ज्ञान-विद्या प्राप्त करने के क्षेत्र में निरंतर बढ़ता जाता है। विधि : इस यंत्र को शुभ मुहूर्त में, चाँदी या कांस्य की थाली में, केसर की स्याही से, अनार की कलम से लिखकर, सविधि पूजन करके माता सरस्वतीजी की आरती करें। यात्रांकित कांस्य थाली में भोजन परोसकर श्री सरस्वत्यै स्वाहा, भूपतये स्वाहा, भुवनपतये स्वाहा, भूतात्मपतये स्वाहा चार ग्रास अर्पण करके स्वयं भोजन करें। याद रहे, यंत्र भोजन परोसने से पहले धोना नहीं चाहिए।इसी प्रकार 14 दिनों तक नित्य करने से यंत्र प्रयोग मस्तिष्क में स्नायु तंत्र को सक्रिय (चैतन्य) करता है और मनन करने की शक्ति बढ़ जाती है। धैर्य, मनोबल, आस्थाकी वृद्धि होती है और मस्तिष्क काम करने के लिए सक्षम हो जाता है। स्मरण शक्ति बढ़ती है। विद्या वृद्धि में प्रगति स्वयं होने लगती है। एकादशाक्षर सरस्वती मंत्र : ॐ ह्रीं ऐं ह्रीं सरस्वत्यै नमः।

दुर्गा सप्‍तशति में विद्या प्राप्ति के लिए  मंत्र :-
विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता : सकला जगत्सु।त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति।।
अथर्ववेद में विद्या प्राप्ति के मंत्र--
यस्‍ते स्‍तन:शशयुर्यो मयोभूर्य: सुम्‍नयु:सुहवो य: सुदत्र:।
येन विश्‍वा पुण्‍यसि वर्याणि सरस्‍वति तमिह धातवे क:।।

अर्थात, हे देवी सरस्‍वती तू प्रार्थना योग्‍य है। तेरा ज्ञानरूपी स्‍तन पुष्टिदाता,सुख देनेवाला,मन को पवित्र करने वाला तथा शांति प्रदान करने वाला है। हमें भी तू वह प्राप्‍त करा।   
 यजुर्वेद में विद्या प्राप्ति के मंत्रयां मेधां देवगणा: पितरश्चोपासते।तथा मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।       अर्थात, हे सर्वज्ञाग्ने परमात्मन् जिस विज्ञानवती यथार्थ धारणावाली बुद्धि को विद्वानों के पितर धारण करते हैं तथा यथार्थ पदार्थ विज्ञान वाले पितर जिस बुद्धि के उपाक्षित होते हैं उस बुद्धि के साथ इसी समय कृपा से मुझको मेधावी करें। इसको आप अनुग्रह और प्रीति से स्वीकार कीजिए जिससे मेरी सारी जड़ता दूर हो।

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Sunday, June 5, 2016

शहर


शहर बम्‍बई
एक सपनों का शहर
है बम्‍बई ,
हर कुछ भागता भगाता
 है बम्‍बई।
सारा देश जब सोता है,
तब जागती
है बम्‍बई।
फुरसत कहां किसी को
चैन लेने की
भागता जो शहर
है बम्‍बई।
आंख खुली
पर डब्‍बा गायब,
कराती
है बम्‍बई।
जूहू , चौपाटी और बांद्रा
भरती है सब मन में तन्‍द्रा
बडे़ –बड़े  भवनों की डंका
देती
है मुम्‍बई।
सागर की तरंगे जब आती
गेटवे आफ इंडिया
हिन्‍दुस्‍तानियों को याद कराती
 ईधर से ही आया विदेशी भैया
वहीं बगल में खड़ा ताज
बता रहा
 है बम्‍बई।
बोरीविलि,कांदिविली
और वही जोगेश्‍वरी
वीटी,सीटी और चर्चगेट
दौड़ाती
है बम्‍बई।
बॉलीबुड, हॉलीबुड और
उसकी कहानी
नीचे उपर, उपर नीचे
कराती है बम्‍बई।
अंडरवर्ल्‍ड और सटटेवाजों
सूटरों ओर दलालों
को
दिखाता है बम्‍बई।
धन कुबेर,यम कुबेर
खेल कुबेर व  ि‍फल्‍म कुबेर
से मिलबाता
है बम्‍बई।
तुम्‍हारी  तह में ना जा पाया
यही तो है तुम्‍हारी माया
तुम्‍हारी जिस पर पड़ती छाया
 बदल देती है उसकी काया
है मुम्‍बई।


Thursday, June 2, 2016

वेद सार 51

स पूर्वया निविदा कव्यतायोरिमा: प्रजा अजनयन्मनूनाम।
विवस्वता चक्षसा द्यामपश्चदेवा अग्नि धारमन्द्रविणोदाम्।।
                                                                      ऋग्वेद:-1/7/3/2

भावार्थ:-
स:-सो ही
पूर्वया- आदिसनातन
निविदा-सत्यता आदि गुणयुक्त परमात्मा था
कव्यता-अन्य कोई कार्य नहीं था
आयो:-सृष्टि के आदि में
इमा:-इस
प्रजा:-प्रजा की
अजनयत- उत्पत्ति की
मनूनाम- ज्ञानस्वरूप
विवस्वता-स्वप्रकाश स्वरूप एक ईश्वर ने
चक्षसा-विचार
द्याम-सब दृश्यमान तारे आदि
अप:-निकृष्ट दु:खविशेष नरक
च-और
देवा:-विद्वान लोग
अग्निम-अग्नि
धारयण-जानते हैं
द्रविणोदाम्-विज्ञानादि धन देने वाले को

व्याख्या:- हे मनुष्यो वहीं(सो ही) आदि सनातन,सत्यता आदि गुणयुक्त अग्नि परमात्मा था। अन्य कोई नहीं था। तब सृष्टि के आदि में स्वप्रकाश स्वरूप एक ईश्वर ने प्रजा की उत्पत्ति की। फिर परस्पर मनुष्य और पश्वादि के व्यवहार चलने के लिए सर्वज्ञता आदि सत्यविद्यायुक्त वेदों को तथा मननशील मनुष्यों की तथा अन्य पशुओं,वृक्षादि की भी प्रजा को उत्पन्न किया। इनमें उन मननशील मनुष्यों की स्तुति करने योग्य अवश्य वही है। उसी ने सूर्यादि तेजस्वी सब पदार्थों के प्रकाश वाले बल से स्वर्ग,अन्तरिक्ष में,पृथ्विीयादि मध्यम लोक में और निकृष्ट दु:खविशेष नरक और सब दृश्यमान तारे आदि लोकलोकान्तर रचे हैं। जो ऐसा सच्चिदानंदस्वरूप परमेश्वर है वही विज्ञानादि धन देने वाले को विद्वान लोग अग्नि जानते हैं। हमलोग उसी को भजें।

Wednesday, June 1, 2016

वेद सार 50

जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेद:।
स न: पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नाबेव सिंधु दुरितात्यग्नि।।
                                                                    ऋग्वेद:-1/7/7/1

भावार्थ:-
जातवेदसे-समस्त जगत को जानने वाले उत्पन्न मात्र के लिए ,सब में विद्यमान के लिए अर्पित करते हैं
सोमम-प्रिय गुण विशिष्ट आदि पदार्थों को
अरातीयत:-धर्मात्माओं के विरोधी दुष्ट शत्रु के
निदहाति-नित्य दहन करो
वेद:-धन,ऐश्वर्य आदि का
स:-आप
न:-हमको
पष्ज्र्ञदति-पार करके नित्य सुख को प्राप्त करो
दुर्गाणि-दु:सह दु:खों से
विश्वा-सम्पूर्ण
नावा-नौका से
इव-जैसे
सिन्धुम्-अति कठिन नदी
दुरिताति-सब पाप जनित अत्यंत पीड़ाओं से पृथक कर
अग्नि-परम सुख

व्याख्या:-हे समस्त जगत को जानने वाले परमब्रह्म आप सर्वत्र व्याप्त(प्राप्त) हो जो विद्वानों से ज्ञात सब मे विद्यमान हो। आपके लिए जितने भी प्रिय गुण विशिष्ट पदार्थ हें सब अर्पित है। सो हे कृपालो दुष्ट शत्रु जो हम धर्मात्माओं का विरोधी है उसका नित्य दहन करो जिससे वह दुष्टता को छोड़कर श्रेष्ठता को स्वीकार करे। साथ ही समस्त दु:खों से पार करके आप नित्य सुख को प्राप्त करो जैसे अति कठिन नदी या समुद्र से पार होने के लिये नौका होती हे वैसे ही हमको सब पापजनित अत्यंत पीड़ाओं से अलग करके संसार में और मुक्ति में ही परम सुख को शीघ्र प्राप्त करो।