Thursday, June 2, 2016

वेद सार 51

स पूर्वया निविदा कव्यतायोरिमा: प्रजा अजनयन्मनूनाम।
विवस्वता चक्षसा द्यामपश्चदेवा अग्नि धारमन्द्रविणोदाम्।।
                                                                      ऋग्वेद:-1/7/3/2

भावार्थ:-
स:-सो ही
पूर्वया- आदिसनातन
निविदा-सत्यता आदि गुणयुक्त परमात्मा था
कव्यता-अन्य कोई कार्य नहीं था
आयो:-सृष्टि के आदि में
इमा:-इस
प्रजा:-प्रजा की
अजनयत- उत्पत्ति की
मनूनाम- ज्ञानस्वरूप
विवस्वता-स्वप्रकाश स्वरूप एक ईश्वर ने
चक्षसा-विचार
द्याम-सब दृश्यमान तारे आदि
अप:-निकृष्ट दु:खविशेष नरक
च-और
देवा:-विद्वान लोग
अग्निम-अग्नि
धारयण-जानते हैं
द्रविणोदाम्-विज्ञानादि धन देने वाले को

व्याख्या:- हे मनुष्यो वहीं(सो ही) आदि सनातन,सत्यता आदि गुणयुक्त अग्नि परमात्मा था। अन्य कोई नहीं था। तब सृष्टि के आदि में स्वप्रकाश स्वरूप एक ईश्वर ने प्रजा की उत्पत्ति की। फिर परस्पर मनुष्य और पश्वादि के व्यवहार चलने के लिए सर्वज्ञता आदि सत्यविद्यायुक्त वेदों को तथा मननशील मनुष्यों की तथा अन्य पशुओं,वृक्षादि की भी प्रजा को उत्पन्न किया। इनमें उन मननशील मनुष्यों की स्तुति करने योग्य अवश्य वही है। उसी ने सूर्यादि तेजस्वी सब पदार्थों के प्रकाश वाले बल से स्वर्ग,अन्तरिक्ष में,पृथ्विीयादि मध्यम लोक में और निकृष्ट दु:खविशेष नरक और सब दृश्यमान तारे आदि लोकलोकान्तर रचे हैं। जो ऐसा सच्चिदानंदस्वरूप परमेश्वर है वही विज्ञानादि धन देने वाले को विद्वान लोग अग्नि जानते हैं। हमलोग उसी को भजें।

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