Thursday, March 31, 2016

नवग्रह देवता श्रृंखला-5

                बृहस्पति देवता

-----------------------------------------------------
बृहस्पति देव अंगिरा ऋषि के पुत्र हैं। यह देवताओं के गुरु हैं। ये अपनी शक्ति से रक्षोघ्न मंत्रों का प्रयोग कर दैत्यों को दूर भगा देवताओं को उनका यज्ञ भाग प्राप्त करा देते हैं।
 स्कंद पुराण के अनुसार बृहस्पति अपने अभ्युदय के लिए घोर तपस्या करने लगे। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ही भगवान भोलेनाथ ने इन्हें देवताओं के पूज्य गुरु और ग्रहत्व प्रदान किया। बृहस्पति प्रत्येक राशि पर एक-एक वर्ष रहते हैं। वक्र होने पर इसमें अंतर आ जाता है। बृहस्पति स्वयं सुन्दर हैं। ये विश्व के लिए वरणीय हैं। ये वांछित फल प्रदान कर संपत्ति और बुद्धि से भी संपन्न कर देते हैं। ये आराधकों को सन्मार्ग पर चलाते हैं और उनकी रक्षा भी करते हैं।

बृहस्पति देव का वर्ण :-मत्स्य पुराण के अनुसार इनका वर्ण पीत है। यह धनु व मीन राशि के  स्‍वामी हें।

वाहन- इनका वाहन रथ है जो सोने का बना है। इसमें वायु के समान वेग वाले पीले रंग के 8 घोड़े जुते हैं।

आयुद्ध :- ऋग्वेद के अनुसार इनका आयुद्ध स्वर्णनिर्मित दण्ड है।

बृहस्पति देव का परिवार :-इनकी पहली पत्नी का नाम शुभा और दूसरी का तारा है। शुभा से सात कन्याएं हुई जबकि तारा से सात पुत्र और एक कन्या उत्पन्न हुई। बृहस्पति के दो भाई हैं। बड़े भाई का नाम-उतथ्य और छोटे का नाम संवर्त है। इनकी एक बहन भी है जिसका नाम वरस्री है।
बृहस्पति के अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा हैं। इनके चार हाथों में क्रमश: दण्ड, रूद्राक्ष की माला, कमण्डलु और वरद मुद्रा है।


गुरु बृहस्पति की वक्र दृष्टि से :-पेट में गैस रहना, बुखार, कान से मवाद गिरना, वायुयान दुर्घटना आदि की संभावना रहती है।

बृहस्पति देव का आह्वाहन मंत्र :-देवदैत्यगुरु तद्वत पीतश्वेतौ चतुर्भुजो।
                                                   दण्डिनौ वरदो कार्यों साक्षसूत्रकमण्डलू।।

वैदिक मंत्र :- ऊं बृहस्पतेऽअति यदर्याेऽअर्हाद्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु।
                      यदीदयच्छं वसऽऋतप्रजा तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्।।

तांत्रिक मंत्र :- ऊं ऐं क्लीं बृहस्पतये नम:।

जप संख्या :-76 हजार। इसका दशांश 7600 तर्पण व इसका दशांश 760 मार्जन हवण करें। हवण में पीपल की लकड़ी का उपयोग अवश्‍य करें।

रत्न धारण :-पुखराज, उपरत्न टोपाज सोने में बनाकर गुरुवार के दिन तांत्रिक मंत्र से अभिषिक्त कर दोपहर बाद धारण करना चाहिए।
जातक रत्न के बदलें केले की जड़ या हल्दी की गांठ को भी पीले कपड़े में लपेटकर पीला धागा से बांधकर गंगा जल में धोएं और उपरोक्त मंत्र से अभिषिक्त कर दाहिने बाजू में (पुरूष) बाएं में महिला धारण करें।

व्रत :-गुरुवार को बृहस्पति देव की कथा सुनें और उपवास रखें। जो जातक उपवास नहीं रख सकते वह पूजा के बाद पीला भोजन करें।.

Wednesday, March 30, 2016

वेद सार 39


अहं रूद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवै:।
अहं मित्रावरूणोभा विभम्र्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा।।
                                                                    ऋग्वेद:-8/7/11

भावार्थ :- 
अहं - मैं
रूद्रे - रूद्र
वसुभि - वसु
महादित्यै - आदित्य
विश्वदेवै: - विश्वदेवों
मिश्चरा - विचरण करती हूं
मित्रा - मित्र
वरुणो - वरुण
मिन्द्रा- इन्द्र
अग्नि - अग्नि
अश्वि - अश्विनी कुमारों के रूप
नोभा- धारण करती हूं।


व्याख्या :- 
मैं रूद्र , वसु , आदित्य और विश्वेदेवों के रूप में बिचरती हूं। वैसे ही मित्र, वरूण, इंद्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों के रूप को धारण करती हूं।

Tuesday, March 29, 2016

वेद सार 38

ऋषिर्हि पूर्वजा अस्येक ईशान ओजसा।
इन्द्रं चोष्कूयसे वसु।।
                                         ऋग्वेद:-5/8/17/41

भावार्थ :-
 ऋषि - सर्वज्ञ
हि - निश्चय से
पूर्वजा - सबके पूर्वजों के
असि - हो
एक: - अद्वितीय
ईशान - ईशानकत्र्ता, सबसे बड़े,
प्रलयोत्तर काल में रहने वाले
ओजसा - अनंतपराक्रम से युक्त
इंद्र - हे इंद्र महाराजाधिराज
चोष्कूयसे - दाता हो, अपने सबको कृपा कर रहे हो
वसु - सब धन के

व्याख्या :- 
हे ईश्वर। सर्वज्ञ और सबके पूर्वजों के अद्वितीय ईशानकत्र्ता तथा सबसे बड़े प्रलयोत्तरकाल में आप ही रहने वाले अनंत पराक्रम से युक्त हो।
   हे इंद्र महाराजाधिराज ,आप धन के दाता हो और इसका प्रवाह अपने सेवकों पर कर रहे हो। आप अत्यंत आद्र्रस्वभाव के हो।


Monday, March 28, 2016

वेद सार 37

विश्वानि देव सवितर्दुरित्तानि परा सुव। परा दुष्वप्न्यं सुव।।
                                                             शुक्ल यजुर्वेद :-30/3

भावार्थ :- 
विश्वानि - सविता
देव - देवता
सवितर्दुरित्तानि - समस्त पापों व तापों को
परा - दूर
सुव - करें
दुष्वप्न्यं - कल्याणकारी संतति व संपत्ति को

व्याख्या :- हे सविता देव आप हमारे समस्त पापों व तापों को दूर करें। कल्याणकारी संतति, गौ आदि पशु तथा अतिथि सत्कार परायण गृहादि जैसी संपत्ति को हमारी ओर उन्मुख करें।


Sunday, March 27, 2016

तंत्र-मंत्र-यंत्र भाग 6

इस कड़ी में  तंत्र-मंत्र-यंत्र से जुड़े कुछ ज्ञानवर्धक बातें दी जी रही है जिसकी जानकारी साधक को अवश्‍य होनी चाहिए।

1--किस माला से किस देवी देवता का जाप करें:- 
रूद्राक्ष की माला :- श्री गायत्री, श्री दुर्गा, शिव,गणेश व मां पार्वती।

तुलसी की माला :- श्री राम, श्री कृष्ण, सूर्यनारायण व विष्णु।

स्फटिक का माला :- श्री दुर्गा जी, श्री सरस्वती जी, गणेश।

सफेद चंदन की माला :-सभी देवी देवताओं के लिए।

लाल चंदन की माला :-श्री दुर्गा जी।

कमलागट्टे की माला :-श्री लक्ष्मी जी।

हल्दी की माला :- मां बंगलामुखी
------------------------

2--अनबुझ मुहूर्त :-

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, अक्षय तृतीया, दशहरा, दीपावली(सायं काल के बाद)। उपरोक्त मुहूर्तों को अनबूझ मुहूर्त कहा जाता है। इन मुहूर्तों में कोई भी काम शुरू करने से सफलता मिलती है।

-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------
3--अशोक वृक्ष का महत्व:- 
1.अशोक वृक्ष के नीचे जप- तप आदि करने से कार्य शीघ्र सफल होता है।
2.किसी विशेष कार्य के लिए जाते समय यदि अशोक वृक्ष का एक पत्ता तोड़कर अपने पास रखें तो कार्य सफल होगा।
3.अशोक वृक्ष के फूल को प्रतिदिन सिल पर पीसकर शहर मिलाकर लगातार खाने से भाग्य दोष और दरिद्रता दूर होती है।
4.इसके तीन पत्तों को प्रतिदिन सुबह खाली पेट चबाने से मानसिक तनाव  दूर होता है।
5.अशोक वृक्ष के बीज को तांबे के ताबीज में डालकर गले में धारण करने से सभी प्रकार के लाभ होते है।
6. चैत्र शुक्त पक्ष अष्टमी का व्रत रखने तथा अशोक की आठ पत्तियों को खाने से स्त्री की संतान कामना पूत्र्ति होती है।

__________________________________________________________

4--धन प्राप्ति के अचूक उपाय :-
1- शनिवार के दिन पीपल का एक पत्ता तोड़कर उसे गंगाजल से धोकर उसके ऊपर हल्दी तथा दही के घोल से अपने दाएं हाथ की अनामिका अंगुली से ह्रीं लिखें। इसके बाद इस पत्ते को धूप-दीप दिखाकर अपने बटुए में रखे लें। प्रत्येक शनिवार को पूजा के साथ वह पत्ता बदलते रहें। यह उपाय करने से आपका बटुआ कभी धन से खाली नहीं होगा। पुराना पत्ता किसी पवित्र स्थान पर ही रखें।
2- काली मिर्च के 5 दाने अपने सिर पर से 7 बार उतारकर 4 दाने चारों दिशाओं में फेंक दें तथा पांचवें दाने को आकाश की ओर उछाल दें। यह टोटका करने से आकस्मिक धन लाभ होगा।

3- अचानक धन प्राप्ति के लिए सोमवार के दिन श्मशान में स्थित महादेव मंदिर जाकर दूध में शुद्ध शहद मिलाकर चढ़ाएं।
4- अगर धन नहीं जुड़ रहा हो तो तिजोरी में लाल वस्त्र बिछाएं।
5- तिजोरी में गुंजा के बीज रखने से भी धन की प्राप्ति होती है।
6- जिस घर में प्रतिदिन श्रीसूक्त का पाठ होता है, वहां लक्ष्मी अवश्य निवास करती हैं।

____________________________________________________________________
5--किसी भी प्रकार के रोगों को झाडऩे का मंत्र :-
'ऊँं ऐं श्रीं हीं्र हीं्र स्फ्रें ख्फ्रें ह्सौं ह्स्फें ह्सौं ऊँ नमो हनुमते स्फोटकं क्षतज्वरमैकाहिकं द्वयहिकं चातुर्थिकं सन्ततज्वरं सान्निपातिकज्वरं भूतज्वरं मन्त्रज्वर-शूल-भगन्दर- मूत्रकृच्छ्र-कपालशूल-कर्णशूला-ऽक्षिशूलोदरशूल-हस्तशूल-पादशूलादीन सर्वव्याधीन् क्षणेन भिन्धि-भिन्धि छिन्दी छिन्दी नाशय नाशय निकृन्तय निकृन्तय छदेय छेदय भेदय भेदय महावीर हनुमान घे घे हीं्र हीं्र हूं हूं फट् स्वाहा।Ó

प्रयोग विधि :- शनिवार व मंगलवार के दिन श्रीहनुमान जी का ध्यान और प्रणाम कर कुशा या चाकू से दस मं- को पढ़ते हुए रोगी को झाडऩे से समस्त रोग समूल रूप से नष्ट हो जाते हैं।
------------------------------------------------------------------------------------------------------------

6--भूत-प्रेत आदि समस्त विघ्न बाधाओं को झाडऩे का मंत्र :- 

'ऊँं ऐं श्रीं हीं्र हीं्र स्फ्रें ख्फ्रें ह्सौं ह्स्फें ह्सौं ऊँ नमो हनुमते महाबलपराक्रम मम परस्य च भूत-प्रेत-शिाच-शाकिनी-डाकिनी-यक्षिनी-पुतना-मारी-महामारी-कृत्या-यक्ष-राक्षस-भैरव-वेताल-ग्रह-ब्रहाग्रह-ब्रह्मराक्षसा-दिकजात-क्रूरबाधान क्षणेन हन हन जम्भय जम्भय निरासय निरासय वारय वारय बन्धय बन्धय नुद-नुद सूद-सूद धुनु धुनु मोचय मोचय मामेनं मामेनं च रक्ष रक्ष महामाहेश्वर रुद्रावतार हा्र हा्र हा्र हुं हुं घे घे घे हूं फट् स्वाहा।Ó

प्रयोग विधि :-श्री हनुमान जी का ध्यान कर भूत-प्रेत आदि बाधाग्रस्त रोगी पर उपर्युक्त मंत्र को पढ़ते हुए पीला सरसों का दाना फेकने से उपरोक्त सभी बाधाएं शीघ्र दूर हो जाती है। 

Saturday, March 26, 2016

नवग्रह देवता श्रृंखला 4


                         बुध देव
--------------------------------------------------
अथर्ववेद के अनुसार बुध देवता के पिता का नाम चंद्रमा और माता का नाम तारा है। वहीं श्रीमद् भागवत गीता के अनुसार ब्रह्मा ने इनका नाम बुध इसलिए रखा कि इनकी बुद्धि बहुत ही गंभीर है। ये सभी शास्त्रों के परांगत, हस्तिशास्त्र के प्रवर्तक, सूर्य के समान तेजस्वी और चंद्रमा के समान कांतिमान हैं। जबकि मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने ब्रह्मर्षियों के साथ बुध देवता को पृथ्वी के राज्य पर अभिषिक्त किया और ग्रह भी बना दिया।

बुध परिवार :- बुध का विवाह मनु पुत्री इला के साथ हुआ। इला से पुरूरवा की उत्पत्ति हुई।

बुध ग्रह प्राय: मंगल ही करते हैं। किंतु जब ये सूर्य की गति का उल्लंघन करते हैं तब आंधी-पानी और सूखे की आशंका बन जाती है।

वाहन - इनका रथ श्वेत और प्रकाश से दिप्त है। इसमें वायु के समान वेग वाले पीले रंग के दस घोड़े जुते रहते हैं।

बुध देव की आकृति:- इनका रंग कनेर पुष्प की भांति पीला है। बुध पीले रंग की पुष्पमाला और वस्त्र धारण करते हैं। ये अपने चारो हाथों में क्रमश: तलवार, ढ़ाल, गदा और वरद मुद्रा धारण किए रहते है। ये सिंह की भी सवारी करते हैं।

 बुध के अधिदेवता और प्रत्यधिदेवता विष्णु हैं। इसीलिए इनका ध्यान इस मंत्र से करना चाहिए।
पीतमाल्याम्बरघर : कर्णिकारसमद्युति:। खड्गचर्मगदापाणि: सिंहस्थो वरदो बुध:।।

बुध की वक्र दृष्टि से :- दिमागी फितुर, नाक-कान की बिमारी, बात संबंधी रोग, पित्त रोग, चर्मरोग कोढ़, विष तथा गिरने आदि की संभावना बनती है।
बुध की वक्र दृष्टि से होने वाली  पीड़ा से निवृति के लिए 27 या 108 बुधवार का व्रत करना चाहिए। गाय को हरा चारा खिलाना भी फायदेमंद होता है।

क्लेश निवारण हेतु वैदिक मंत्र :- ऊं उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूत्र्ते स र्ठ सृजेथामयं च। अस्मिन्त्सधस्थे अध्यत्तुरस्मिन। विश्वे देवा यजमानश्च सीदत।।

क्लेश निवारण हेतु तांत्रिक मंत्र :- ऊॅ ऐं श्रीं श्रीं बुधाय नम:।

जप संख्या 36 हजार । इसका दशांश 3600 तर्पण। इसका दशांश 360 मार्जन हवण करें।

रत्न धारण - पन्ना या विधारा अथवा हरा मरगज की जड़ को विधि पूर्वक मंत्र से अभिषिक्त कर हरे कपड़े में हरे धागे में बांधकर बुधवार के दिन 10 बजे से पूर्व बांह पर बांधें। पन्ना की अंगुठी सोने मे बनवाएं और बुधवार को ही उपरोक्त विधि के अनुसार ही कनिष्ठा अंगुली में धारण करें।

वेद सार 36

स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्ती पावमानी द्विजानाम।
आयु: प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविगम्।
ब्रह्मवर्चसं महा्रं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम।।
                                                                      अथर्ववेद :-19/71/1

भावार्थ :- 
स्तुता - स्तुति की है
मया - हमने
वरदा - मनोरथों को
प्रचोदयंती - परिपूर्ण करने वाली, प्रेरणा देने वाली
वेदमाता - वेद रूपी मां
पावमानी - पापों का शोधन करने वाली
द्विजानाम् - द्विजों को
आयु : - दीर्घायु
प्राणं - प्राणवान्
प्रजां - प्रजावान्
पशुं - पशुमान्
कीर्ति - तेजस्वी
द्रविणम् - धनवान
ब्रह्म वर्चसं - कीर्तिशाली
महा्रं - होने का
दत्वा - देकर ही
ब्रह्मलोकम - ब्रह्मलोक को
व्रजत - पधारें

व्याख्या :- 
हे पापों का शोधन करने वाली वेदमाता हम द्विजों को प्रेरणा दें। मनोरथों को परिपूर्ण करने वाली वेदमाता आज हमने स्तुति की है। मनोऽमिंलपित वरप्रदात्री यह माता हमें दीर्घायु, प्राणवान्, प्रजावान, पशुमान्, धनवान, तेजस्वी तथा कीर्तिशाली होने का आशीर्वाद देकर ही ब्रह्मलोक को पधारें।


Friday, March 25, 2016

वेद सार 35

स न : पितेव सूनबेऽग्ने सूपायनो भव। सचस्वा न : स्वस्तये।।
                                                                             यजुर्वेद :-3/ 34

भावार्थ - स: - आप
न : - हमारे लिए
पिता - करूणामय पिता
इव - जैसे
सूनवे - अपने पुत्रों को
अग्ने - हे विज्ञानस्वरूप पेश्वएग्ने
सूपायन - श्रेष्ठोपाय के प्रापक
अत्युत्तम स्थान के दाता
भव - सर्वदा हो
सचस्व - सदा सुखी रखो
स्वस्तये - हे स्वस्तिद परमात्मन सब दु:खों का नाश करके

व्याख्या :- हे विज्ञान स्वरूपेश्वराग्ने आप हमारे लिये सुख से प्राप्त श्रेष्ठोपाय के पापक, अत्युत्तम स्थान के दाता कृपा से सर्वदा हो तथा हमारे रक्षक भी आप ही हो। हे स्वस्तिद परमात्मन सब दुखों का नाश करके हमारे लिए सुख का वत्र्तमान सदैव कराओ जिससे हमारा वर्तमान श्रेष्ठ ही हो। 'स न: पितेव सूनवेÓ जैसे करूणामय पिता अपने पुत्र को सुखी ही रखता है, वैसे आप हमको सदा सुखी रखो, क्योंकि जो हमलोग बुरे होंगे तो उसमें आप की शोभा नहीं होना। किंचन संतानो को सुधारने से ही पिता की शोभा और बड़ाई होती है, अन्यथा नहीं।

Tuesday, March 22, 2016

नवग्रह देवता श्रृंखला-3

                  चंद्र देव

चंद्रदेव महर्षि अत्रि के पुत्र हैं। सोलह कलाओं से युक्त होने के कारण इन्हें सर्वमय कहा गया है। श्रीमद् भगवत् गीता के अनुसार चंद्र देव ही सभी देवता, पितर, मनुष्य, भूत, पशु, पक्षी, सरीसृप और आदि प्राणियों के प्राण का आप्यायन करते हैं। ब्रह्म देव ने चंद्रमा को बीज, ओषधि, जल तथा ब्राह्मणों का राजा बना दिया। प्रजापति दक्ष ने अश्विनी, भरणी सहित अपनी 27 कन्याओं का विवाह चंद्र देव से कराया। ये 27 कन्याएं ही 27 नक्षत्र कहलाती है। (हरिवंश पुराण के अनुसार) इन नक्षत्र रूपी पत्नी के साथ चंद्रदेव परिक्रमा करते हुए प्राणियों के पोषण के साथ-साथ पर्व, संधियों एवं विभिन्न मासों का विभाजन करते हैं। महाभारत के अनुसार-पूर्णिमा को चन्द्रोदय के समय तांबे के बर्तन में मधुमिश्रित पकवान को यदि चंद्र देव को अर्पित किया जाय तो इससे इनकी तृप्ति होती है।


चंद्रमा का वर्ण श्वेत है। यह कर्क राशि के स्वामी हैं। इनका गोत्र-अत्रि है।
चंद्र परिवार :-इनकी कुल 27 पत्नियां है जो विभिन्न नक्षत्रों के नाम से जानी जाती हंै। इनका पुत्र बुध है जो तारा से उत्पन्न हुआ है।

मत्स्य पुराण के अनुसार-इनका वाहन रथ है। इस रथ में तीन चक्र होते हैं। रथ में 10 घोड़े जुते होते हैं। इनके नेत्र और कान भी गौर वर्ण का है। स्वयं चंद्र देव शंख के समान उज्जवल हैं। इनके एक हाथ में गदा तथा दूसरे हाथ वरदमुद्रा में है।
चंद्र के वक्र दृष्टि से :- अनिन्द्रा, कफ संबंधी रोग, पाचन संस्थान का बिगडऩा, अजीर्ण, ठंडक, बुखार, गठिया, मानसिक असंतुलन, पेट संबंधी बीमारियां आदि होने की संभावना रहती है।

चंद्र देव की शाति के लिए तांत्रिक मंत्र :- ऊँ ऐं ह्रींं सोमाय नम:।

चंद्र देव की शाति के लिए वैदिक मंत्र :- ऊँ इमं देवाऽअसपत्न र्ठ सुवध्वं महते क्षत्राय महते जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय। इमममुष्यै पुत्रम मुस्यै विष एष वोऽमीराजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणाना र्ठ राजा।।

जप संख्या :- 44 हजार। इसका दशांश 4400 तर्पण। इसका दशांश मार्जन 440 हवन करें।

रत्न :- मोती धारण सोमवार या पूर्णिमा की रात्रि। या खिडऩी की जड़ सोमवार प्रात:सफेद कपड़े में सफेद धागे से बांधकर 'ऊं सों सोमाय नम:Ó से अभिषिक्त कर धारण करें।

व्रत-सोमवार का व्रत या पूर्णिमा को उपवास करें।
चंद्रदेव की पूजा में श्वेत वस्तुओं, फूलों आदि का प्रयोग करें।

वेदसार 34

यो विश्वस्य जगत: प्राणतस्पतिर्यो ब्राह्मणे प्रथमो गा अविन्दत्।
इन्द्रो यो दस्यूंरधरां अवातिरन मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे।।
                                                            ऋग्वेद :-1/ 7/ 12/ 5

भावार्थ - य: - जो
विश्वस्य - सब का
जगत: - जगत्
स्थावर - जड़ अप्राणी का
प्राणत: - चेतना वाले जगत का
पति: - अधिष्ठाता और पालक
ब्रह्मणे - ब्रह्म अर्थात विद्वान के लिए ही
प्रथम: - प्रथम सदा से हंै
गा: -पृृथिवी का
अविन्दत् - लाभ और उसका
पृथिवी का - राज्य है
इंद्र: - परमैश्वर्यवान परमात्मा
दस्यून - डाकुओं को
अधरान- नीचे
अवरतिरत् -गिराता है
 मरुत्वन्तम् - उस परमानंद वल वाले इंद्र परमात्मा को
सख्याय - सखा होने के लिए
हवामहे - अत्यंत प्रार्थना से गदगद होके बुलावें।

व्याख्या - हे मनुष्यो। जो समस्त जगत जड़ अप्राणी का और चेतनावाले जगत का अधिष्ठाता और पालक है तथा जो समस्त जगत से सदा से प्रथम है और जिसने यही नियम बनाया है कि विद्वानों के लिए पृथिवी का लाभ और उसका राज्य है। जो परमेश्वर्यवान परमात्मा डाकुओं को नीचे गिराता है तथा उसको मार ही डालता है।
  अत: हे मित्रो आओ। अपने सब संप्रीति से मिलकर मरुत्वान अर्थात परमानन्त बल वाले इंद्र को सखा होने लिए अत्यंत गदगद होकर प्रार्थना कर बुलावें। वह शीघ्र ही कृपा करके अपने से परममित्रता करेगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

----------------------

Monday, March 21, 2016

सामाजिक समरसता बनाने और आंतरिक कटुता को भूलनें का त्‍योहार है होली

होली हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का यह त्योहार पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। भारत,नेपाल के अलावा अन्य देशों में जहां भारतीय रह रहे हैं वहां भी धूम धाम से यह त्योहार मनाया जाता है।
पहले दिन होलिका जलायी जाती है जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी या धुरखेल कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं।  होली के गीत गाये जाते हैं। होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं।
इस दिन घरों में बने पकवानों का भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूं की बालियों और चने के झार  को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। होली के दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं।
वहीं परंपराओं में ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी 15 दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है।
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। वसंत में खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं।


विष्णु पुराण के अनुसार
होली को लेकर सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई लेकिन प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।


साहित्य के अनुसार:-
 संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋ तु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। हर्ष की प्रियदर्शिका,कालिदास की कुमारसंभवम्, मालविकाग्निमित्रम्,
ऋ तुसंहार आदि प्रमुख हैं। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है।

इतिहासकारों के अनुसार:-
 विंध्य क्षेत्र के रामगढ़  स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं।


एक अन्य किंवदंतियों के अनुसार यह पर्व राधा- कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।

धार्मिक मान्यता के अनुसार:-
इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा, नारद पुराण और भविष्य पुराण,श्रीमद् भागवत महापुराण में होली का वर्णन मिलता है।

भारतीय ज्योतिष के अनुसार:-
 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अत: यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है।

होलिका दहन के धुएं का फलाफल:- अगर होकिला का प्रथम धुआं पूर्व की ओर उठे तो क्ष्‍ज्ञेत्र के राजा और प्रजाका जीवन सुखमय होता है। अगर अग्नि कोण की तरफ उठे तो अग्निकांड का भय, दक्षिण की ओर उठे तो अकाल की संभावना, पश्चिम की ओर उठे तो भारी बारिश की संभावना,वायव्‍य कोण की तरफ उठे तो आंधी की संभावना,ईशान कोण की तरफ उठे तो उत़तम समय बीतने की संभावना औश्र अगर सीधा उठे तो क्षेत्र के प्रधान के लिए अच्‍छा नहीं होता है।

नवग्रह देवता-श्रृंखला 2

                            मंगल देव
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार बाराह रूप धारी भगवान और पृथ्वी देवी के समागम से मंगल ग्रह का जन्म हुआ। इनका गोत्र भारद्वाज है। भविष्य पुराण के अनुसार मंगल ग्रह के पूजन की बड़ी महिमा है। इस व्रत के लिए  ताम्रपत्र पर भौमयंत्र लिखकर मंगल की सुवर्णमय प्रतिमा प्रतिष्ठापित कर पूजा का विधान है। व्रत के लिए जिस मंगलवार को स्वाति नक्षत्र मिले उसी में मंगलवार का व्रत शुरु करना चाहिए। पद्म पुराण के अनुसार , मंगल देवता के नामों का पाठ करने से ऋण से मुक्ति मिलती है। मंगल को अशुभ ग्रह माना जाता है।

मत्स्य पुराण के अनुसार मंगल ग्रह का वर्ण लाल है।

वाहन :- इनका वाहन सुवर्ण निर्मित रथ है। जिमें लाल रंग वाले घोड़े जुते रहते हे। रथ पर अग्नि से उत्पन्न ध्वजा लहराता रहता है। इस रथ पर बैठकर मंगल देवता कभी सीधी तो कभी वक्रगति से विचरण करते हैं।

स्वरूप :-भूमिपुत्र मंगल चतुर्भज रूप धारी हैं। इनके शरीर के रोयें भी लाल है। इनके हाथों में शक्ति, त्रिशूल, गदा और वरदमुदा्र है। इनका वस्त्र व माला भी लाल है।

मंगल की वक्र दृष्टि से :- गले की बिमारी, कंठ रोग, फोड़ा-फुंसी, रक्त विकार, गठिया का बुखार, आंखों की बिमारी, दौरा पडऩा, सिर दर्द ,दुर्घटना का भय, पारिवारिक उपद्रव, मुकदमें तथा न्याय में हानि, वैवाहिक जीवन में तनाव आदि की संभावना रहती है।।

मंगल की उपासना के लिए वैदिक मंत्र :- ऊॅ अग्निर्भूद्र्धा दिव: ककुत्पति: पृथिव्या अयम्। अपर र्ठ रेता र्ठ सि जिन्वति: ।

मंगल की उपासना के लिए तांत्रिक मंत्र :- ऊॅ हा्रीं श्रीं मंगलाय नम : ।

जप संख्या : 40 हजार। इनका दशांश 4000 तर्पण व इसका दशांश 400 मार्जन हवण करें।

मंगल देव का आह्वान मंत्र :- रक्तमल्याम्बरधर: शक्तिशूल गदाधर:। चतुर्भुज: रक्तरोमा वरद: स्याद् धरासुत:।।

मंगलवार का व्रत :- इसमें हनुमान जी का व्रत या सुंदरकांड का पाठ अति फलदायी होता है। पूजा में ध्यान रहे कि अधिकतर सामग्री का प्रयोग लाल रंग का ही हो। यथा लाल वस्त्र, लाल चंदन, लाल फूल, मंूगा की माला आदि।

रत्न धारण :- मूुंगा  या फिर सौंफ की जड़ को विधान पूर्वक निकालकर गंगा जल से पवित्र करें। फिर उसे अभिषिक्त का लाल कपड़े में लाल धागे से बांधकर मंगलवार के दिन बाजू या गले में धारण करें। ध्यान रहें मूंगा या जड़ी का धारण जिस दिन मंगलवार कर स्वाति नक्षत्र रहे उसी में धारण करना अति उत्तम होगा।
अभिषिक्त करने का मंत्र :-  ऊं भ्रौं भौमाय नम:।

Sunday, March 20, 2016

वेद सार 33

स वज्रभृद्दस्युदा भीम उग्र: सहस्रचेता: शतनीथ ऋम्बां।
चम्रीषो न शवसा पाञ्चजन्यो मरुत्वालो भवत्विन्द्र ऊती।।
                                                                 ऋग्वेद :- 1/ 7/ 10/ 12

भावार्थ :- स: - सो आप
वज्रभृद्द - सर्वशिष्ट हितकारक दुष्ट विनाशक न्याय को धारण करने वाले
दस्युहा - दुष्ट पापी लोगों का हनन करने वाले
भीम: -आप की न्याय-आज्ञा को छोडऩे वालों पर भय देने वाले
उग्र - भयंकर
सहस्रचेता: - सहस्त्रों विज्ञानादि गुण वाले
शतनीथ: - सैकड़ों असंख्यात पदार्थों की प्राप्ति कराने वाले
ऋम्बा - अत्यंत विज्ञानादि प्रकाश वाले, सबके प्रकाशक, महान महाबल वाले
चम्रीष: - चमू, सेना में वश को प्राप्त
न - नहीं
शवसा - स्वबल से
पाञ्चजन्य: - पांच प्राणों के जनक
मरुत्वान - सब प्रकार के वायुओं के आधार तथा चालक
न: - हमारी
भवतु - प्रवृत हों
इंद्र - देवराज
ऊती - रक्षा के लिए

व्याख्या - हे दुष्टनाशक परमात्मन। आप अच्देद्य सामथ्र्य से सर्व शिष्टहितकारक, दुष्ट विनाशक रूपीे न्याय को धारण करे रहे हो। 'प्राणों का वज्रÓ इत्यादि शतपथादि का प्रमाण है। अतएव दुष्ट पापी आदि लोगों का हनन करने वाले हो। आप की न्याय आज्ञा को छोडऩेवालों पर भयंकर भय देनेवाले हो। सहस्रों विज्ञानादि गुण वाले आप ही हो। सैकड़ों असंख्यात पदार्थों की प्राप्ति कराने वाले हो। आप अत्यंत विज्ञानादि प्रकाशवाले हो और सब के प्रकाशक हो तथा महान हो। किसी की सेना में वश को प्राप्त नहीं होते हो। स्वबल से आप पांच प्राणों के जनक हो। सब प्रकार के वायुओं के आधार तथा चालक हो सो आप हमारी  रक्षा के लिए प्रवृत हो जिससे हमारा कोई काम न बिगड़े।

----------------------

Thursday, March 17, 2016

नवग्रह देवता - श्रृखंला-1

                             सूर्य देव
-------------------------------------------------------------
ऋग्वेद के अनुसार सौर मंडल के अन्त: स्थित सूर्य देव सबके प्रेरक, अन्तर्यामी और परमात्म स्वरूप हैं। ये ही समस्त स्थावर व जंगम के कारण हैं। सूर्यदेव सम्पूर्ण ग्रहों के राजा हैं। साम्ब पुराण के अनुसार- सूर्य की हजारों रश्मियों में से 300 रश्मियां पृथ्वी पर, 400 चन्द्रमस- पितृलोक पर तथा 300 देवलोक में प्रकाश फैलाती है। रश्मि के साथ सूर्य तेज का प्रकाश तथा अग्नितेज की ऊष्मा के परस्पर मिश्रण से ही दिन बनता है। केवल अग्नि की ऊष्मा के साथ सूर्य का तेज मिलने पर रात्रि होती है।

ऋग्वेद के अनुसार-
 सूर्य देवता का रंग लाल है। इनका वाहन रथ है। इनका रथ वेदस्वरूप है। इनके रथ में एक ही चक्र है जो संवत्सर कहलाता है। इस रथ में मासस्वरूप बारह अरे हैं। ऋतु रूप छ:ह नेमियां है और तीन चौमासे रूप में तीन नाभियां हैं। इसकी पुष्टि श्रीमद् भागवत गीता (5। 21। 13) में भी की गई है। इस रथ में अरूण नामक सारथि ने गायत्री आदि सात छन्दों के सात घोड़े जोत रखे हैं। (ऋग्वेद 1। 105। 31) सारथि का मुख भगवान सूर्य की ओर रहता है। भगवान सूर्यनारायण का गोत्र कश्यप है।

सूर्य परिवार - भगवान सूर्य की दो पत्नियां है। संज्ञा और निक्षुमा। संज्ञा को ही सुरेणु, राखी, द्यौ, त्वाष्ट्री एवं प्रभा भी कहा जाता है जबकि निक्षुमा को छाया भी कहा जाता है। संज्ञा विश्वकर्मा त्वष्टा की पुत्री है। संज्ञा से वैवस्वतमनु, यम, यमुना, अश्विनी कुमार और रैवन्त तथा छाया से शनि, तपती, विष्टि और सावर्णिमनु नामक संतान हुए। दिण्डि इनके मुख्य सेवक हैं।

सूर्य की शक्तियां :- अग्नि पुराण के अनुसार इनकी कुल 12 शक्तियां हैं जिनके नाम क्रमश: इड़ा, सुषुम्ना, विश्वर्चि, इन्दु, प्रमर्दिनी, प्रहर्षिणी, महाकाली, कपिला, प्रबोधिनी, नीलाम्बरा, घनान्त: स्था और अमृता  है।

सूर्यदेव के  अस्त्र-शस्त्र :-
चक्र, शक्ति, पाश, अंकुश। सूर्यदेव की दो भुजाएं हैं। वे अपने रथ पर जो सात घोड़ों व सात रस्सियों से जुड़े रहते हंै उसपर कमल आसन पर विराजमान रहते हैं।

सूर्य की वक्र दृष्टि से:-बुखार, कमजोरी, दिल का दौरा, चर्मरोग, आंख संबंधी बीमारी, हिस्टीरिया आदि की संभावना बनती है।

सूर्यदेव सिंह राशि का स्वामी हैं। इनकी कृपा प्राप्ति के लिए दो मार्ग बताए गए हैं।
1 वैदिक, 2 तांत्रिक
वैदिक रूप से जप किया जाने वाला मंत्र है: -
'पद्मासन: पद्मकर: पद्मगर्भ: समद्युति:। 
सप्ताश्व: सप्तरज्जुश्च द्विभुज: स्यात् सदा रवि:।।
                                                 Ó  मत्स्य पुराण-94

तांत्रिक रूप से जप किया जाने वाला मंत्र है: -
'उं ह्रीं ह्रीं सूर्याय नम:।Ó

जपसंख्या- 28 हजार। इसका दशांश (2800) तर्पण, इसका दशांश (280) मार्जन हवन करना चाहिए।

व्रत-रविवार का व्रत करना चाहिए। न चले तो रविवार को कम से कम नमक नहीं खाएं। सूर्य देव पर ताम्र के बर्तन से जल अर्पित करें, लाल पुष्प चढ़ाएं, लाल चंदन का प्रयोग करें।

रत्न-माणिक्य धारण करें अथवा बिल्वपत्र वृक्ष की जड़ को विधिपूर्वक लाकर उसे गंगा जल से धोकर अभिशिक्त कर लाल कपड़े में बांधकर लाल धागे में रविवार को बांह या गले में धारण करें।

Tuesday, March 15, 2016

तंत्र-मंत्र-यंत्र भाग 5

आदि शक्ति दुर्गा ही महाकाली, महालक्ष्मी और महा सरस्वती के रूप में त्रिधारूप हैं। इनके प्रभाव और महत्व का वर्णन करना सामथ्र्य के बाहर की बात है। इसलिए तो स्वयं महादेव ने इन्हें देवताओं के लिए देव शक्ति, तपस्वियों के लिए तप:शक्ति, साधना करने वालों के लिए साधना शक्ति, राजाओं के लिए राजशक्ति, ब्राह्मणों के लिए विद्याशक्ति, क्षत्रियों के लिए बलशक्ति, वैश्यों के लिए लक्ष्मीशक्ति, शूद्रों के लिए महत्वशक्ति, गृहस्थों के लिए मायाशक्ति, भक्तों के लिए भक्तिशक्ति, स्त्रियों के लिए सौभाग्यशक्ति और सर्वसाधारण के लिए कल्याणशक्ति कहा है। इस  ब्रह्मांड की आधारभूत शक्ति यही हंै। क्योंकि भगवान विष्णु में सात्विक, ब्रह्मा में राजसी और शिव में तामसी शक्ति के रूप में विद्यमान रहने वाली यह आद्याशक्ति है।
 मां भगवती की पूजा के तीन विधान हैं - 1.सात्विकी 2.राजसी 3.तामसी। इन तीनों में सात्विक पूजा का विशेष महत्व है। गृहस्थ जन को सात्विक पूजा ही करनी चाहिए। इसीलिए तो गृहस्थों के लिए मार्कण्डेय पुराण अंतर्गत दुर्गा सप्तशती में कुछ विशेष याचना और इच्छा रूपी फल की प्राप्ति के लिए विशेष मंत्र के अनुष्ठान की बात कही गई हैं। जिसका जप और हवन नियमानुसार करने से उसकी प्राप्ति हो जाती है।

नीचे उक्त मंत्रों की शृंखला है जिसका याचक सुविधानुसार विधि विधान के अनुसार अनुष्ठान कर मनोवांछित की प्राप्ति कर सकता है--


सामूहिक कल्याण के लिए :-
देव्या यथा ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्शोवदेवगणशक्ति समूहमूत्र्या।
तामस्बिकामखिलदेवमहर्षि पूज्यांं भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि न:।।

विपत्ति नाश के लिए :-
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारयणि नमोऽस्तु ते।।

भय नाश के लिए :-
ज्वालाकराल मत्युग्रमशेषासुरसूदनम्। त्रिशूलं पातु नो भीतेर्मद्रकालि नमोऽस्तु ते।।

पाप नाश के लिए :-
हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्ण या जगत।
सा घंटा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव।।

बाधा शान्ति के लिए :-
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रेलोक्यस्याखिलेश्वरी। एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्।।

सुलक्षणा पत्नी की प्राप्ति के लिए :-
पत्नी मनोरमां देहि मनोवृतानुसारिणीम्। तारिणी दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भाम।।

आरोग्य और सौभाग्य प्राप्ति के लिए :-
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
 रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।

महामारी नाश के लिए :-
जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
 दुर्गा क्षमा शिवाधात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।।

रोग से छुटकारा प्राप्ति के लिए :-
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान।
त्वमाश्रितानां न विपन्नराणां त्वमाश्रिता हा्राश्रयतां प्रयन्ति।।

रक्षा प्राप्ति के लिए :-
शूलेन पाहि न देवि पाहिखड्गेन चाम्बिके।
 घंटास्वनेन न: पाहि चापज्यानि: स्वनेन च ।।

शक्ति प्राप्ति के लिए :-
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
 गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तुते।।


प्रसन्नता प्राप्ति के लिए :-
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणी। त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव।।

विद्या प्राप्ति के लिए :-
विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा:
 स्त्रिय: समस्ता : सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति।।

दारिद्र व दु:ख निवारण के लिए :-
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो: स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्रयदु:खभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरयणाय सदाऽऽर्द्रचिता।।

सब प्रकार के कल्याण के लिए :-
सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते।।

बाधामुक्त होकर धन पुत्रादि की प्राप्ति के लिए :-
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धन धान्यसुतान्वित:।
 मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:।।

पाप नाश तथा भक्ति की प्राप्ति के लिए:-
नतेभ्य: सर्वदा भक्तया चण्डिके दुरितापहे।
 रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।

स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए:-
सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी। त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तय:।।

विविध उपद्रवों के बचाव के लिए:-
रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानतो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्।।

समस्त बाधाओं का नाश एवं देवि की शरणागति के लिए :-
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति।
 तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्।।

विश्व की रक्षा के लिए :-
या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी: पापात्पनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्।।

-------------------------------------------------------------------------------
-------------------------------------------------------------------------------
-------------------------------------------------------------------------------

Monday, March 14, 2016

जाने नवग्रह को

पाठकों की अभिरूचि व लगातार मेल व फोन के कारण हमें अपनें सुधि पाठकों के लिए ब्लाग पर नवग्रह मंडल के देवताओं का परिचय, उनके कार्य, उन्हें प्रसन्न करने
व उनकी वक्रदिष्टि से मुक्ति के संदर्भित उपाय बतानें पर मजबूर होना पड़ा। मैं पाठकों के मन की जिज्ञासा को शांत करने और धर्म, अध्यात्म के बारे में अधिक से अधिक जानकारी देने की चेष्टा करूंगा ताकि उनका आपार स्नेह और सहयोग मुझे मिलता रहे।
ग्रहों की पूजा से इस लोक में भी कामनाओं की प्राप्ति होती है। साथ ही कालांतर में स्वर्ग की प्राप्ति होती है। यदि किसी को कोई ग्रह पीड़ा पहुंचा रहा हो उस ग्रह की विशेष विधि विधान से पूजा-अर्चना की जाय। यदि किसी दुर्दृष्टवश कोई व्यक्ति क्लेशग्रस्त हो रहा है तो ग्रहशांति कवच बनाकर उसका निवारण कर सकता है। मत्स्य पुराण के अनुसार नवग्रह यज्ञ से शांति और पुष्टि दोनों की प्राप्ति होती है।

जाने नवग्रह मंडल को-- 
नवग्रह मंडल में कुल नौ मुख्य ग्रह हैं। सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहू और केतु ।

इन ग्रहों के अधिदेवता हैं--
 सूर्य के शिव, चंद्रमा का पार्वती, मंगल का स्कन्द, बुध का विष्णु, बृहस्पति का ब्रह्मा, शुक्र का इन्द्र, शनि का यम, राहू का काल, केतु का चित्रगुप्त ।

इन ग्रहों के प्रत्यधिदेवता हैं--
 सूर्य का अग्नि, चंद्रमा का जल, मंगल का पृथ्वी, बुध का विष्णु, बृहस्पति का इन्द्र, शुक्र का इन्द्राणी, शनि का प्रजापति, राहू का सर्प, केतु का ब्रह्मा प्रजापति।

नवग्रह कवच स्तोत्र--:
ॐ ह्रां ह्रीं सः मे शिरः पातु श्री सूर्य ग्रह पति : |
ॐ घौं सौं औं में मुखं पातु श्री चन्द्रो ग्रह राजकः |
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रां सः करो पातु ग्रह सेनापतिः कुज: |
पायादंशं ॐ ह्रौं ह्रौं ह्रां सः पादौ ज्ञो नृपबालक: |
ॐ औं औं औं सः कटिं पातु पायादमरपूजित: |
ॐ ह्रौं ह्रीं सः दैत्य पूज्यो हृदयं परिरक्षतु |
ॐ शौं शौं सः पातु नाभिं मे ग्रह प्रेष्य: शनैश्चर: |
ॐ छौं छां छौं सः कंठ देशम श्री राहुर्देवमर्दकः |
ॐ फौं फां फौं सः शिखी पातु सर्वांगमभीतोऽवतु |
ग्रहाश्चैते भोग देहा नित्यास्तु स्फुटित ग्रहाः |
एतदशांश संभूताः पान्तु नित्यं तु दुर्जनात् |
अक्षयं कवचं पुण्यं सुर्यादी गृह दैवतं |
पठेद् वा पाठयेद् वापी धारयेद् यो जनः शुचिः |
सा सिद्धिं प्राप्नुयादिष्टां दुर्लभां त्रिदशस्तुयाम् |
तव स्नेह वशादुक्तं जगन्मंगल कारकम् गृह
यंत्रान्वितं कृत्वाभिष्टमक्षयमाप्नुयात् |

इन नवग्रहों की पूजा कैसे की जाय इनके लक्षण क्या है। आदि पर विशेष जानकारी नवग्रह देवता श्रृंखला 1 से 9 तक में प्रस्तुत करूंगा। इस श्रृंखला के तहत दी जा रही जानकारी कैसे लगी। इस पर मेल या कॉमेंट अवश्य भेजें। 

Sunday, March 13, 2016

वेद सार 32

सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्। सनिमेधामया शिपœ स्वाहा।। 
                                                                                                 यजुर्वेद- 32/13

भावार्थ:- सदसस्पतिम्- राजा के सभाध्यक्ष
अद्भुतम- आश्चर्य विचित्र शक्तिमय को प्रियम- प्रिय स्वरुप को
इन्द्रस्य- इन्द्र जो जीव उसके
काम्यम्- कमनीय कामना के योग्य हो
सनिम्- सम्यक् भजनीय और सेव्य को
मेधाम्- विद्या सत्य धर्मादि धारण वाली बुद्धि को
 अयासिषम्- मंै याचक हूं
 स्वाहा- यही स्वकीय वाक् कहती है कि एक ईश्वर से भिन्न कोई जीवों का सेव्य नहीं है यही वेद में ईश्वराज्ञा है।

व्याख्या:- 
हे समापते, सभा ही हमारा राजा न्यायाकारी हो ऐसी इच्छा वालो हमको कीजिए। किसी एक मनुष्य को हमलोग राजा कभी न मानें। किन्तु आपको ही हम सभापति, सभाध्यक्ष और राजा मानें। आप अद्भुत तथा प्रियस्वरूप हंै। इन्द्र जो जीव उसको कामना के योग्य आप ही है। सम्यक, भजनीय और सेव्य भी जीवों के आप ही हंै। मेधा, सत्यधर्मादि धारण वाली बुद्धि को हे भगवान कृपा करके आप मुझे दो। यही स्वकीय वाक् कहती है कि एक ईश्वर से भिन्न कोई जीवों को सेव्य नहीं है। यही वेद में ईश्वराज्ञा है सो सब मुनष्य को मानना अवश्य योग्य है।

Saturday, March 12, 2016

वेद सार 31

तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पति ध्यित्र्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पापुरदब्ध स्वतस्तये।।
                                                                            यजुर्वेद- 25/18

भावार्थ:- तम्- उस परामात्मा को ईशानम्- समस्त जगत के स्वामी और ईशान उत्पादन करने की इच्छा करने वाला को
जगत:- चर जगत् का
तस्थुष: -अचर जगत का
पतिम्-पालन करने वाले को
धियम्- विज्ञान मय
जिन्वम्-तृप्तिकारक को
अवसे-अपनी रक्षा के लिए
हूमहे-अत्यंत स्पर्धा करते हैं(इच्छा से आह्वाहन करते हैं)
वयम्- हमलोग
पूषा- पोषणप्रद है
न: - हमारे लिए
यथा- जैसे
वेदसाम्- धन और विज्ञानों की
असत्- है
वृधे- वृद्धि का
रक्षिता- रक्षक
पायु: - पालक
अदब्ध: - हिंसारहित
स्वस्तये- निरूपद्रवता के लिये।

व्याख्या:- हे सुख और मोक्ष की इच्छा करने वाले जनो। उसे परामात्मा को ही हमलोग प्राप्त होने के लिए अत्यंत स्पर्धा करते हैं कि उसको हम कब मिलेंगे क्योंकि वह समस्त जगत का स्वामी है। चर और अचर दोनों प्रकार के जगत का पालनकर्ता वही है। विज्ञानमय, विज्ञानप्रद और तृप्रिकारक ईश्वर से अन्य कोई नहीं है। उसको अपनी रक्षा के लिए हम इच्छा से आह्वाहन करते हैं।
जैसे वह ईश्वर हमारे लिए पोषणप्रद है वैसे ही 'वेद - सामÓ धन और विज्ञानों की वृद्धि का रक्षक है तथा निरुपद्रवता के लिए हमारा पालक वहीं है और वह हिंसारहित है।
इसलिए हे मनुष्यो, ईश्वर जो निराकार है, सर्वानन्दप्रद है, उसको मत भूलो। बिना उसके कोई सुख का ठिकाना नहीं है।


Thursday, March 10, 2016

वेद सार 30

द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षऽशान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्ति रोषधय: शान्ति। वनस्पतय: शान्ति विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्तिस्सर्वऽशान्तिश्शान्तिरेव शान्ति: सामाशन्तिरेधि।।
                                                                                                                                 यजुर्वेद:-36/17

भावार्थ :-
 द्यौ: - सब लोकों से ऊपर आकाश शान्ति-शान्त निरुपद्रव सुखकारक ही रहे
अन्तरिक्षम् - मध्यस्थ लोक और उसमें वायु आदि पदार्थ
पृथिवी- धरती (पृथिवीस्थ पदार्थ)
आप:- जल (जलस्थ पदार्थ)
ओषधय: -ओषधि तत्रस्थ गुण
वनस्पतय: - वनस्पति तत्रस्थ पदार्थ
विश्वेदेवा :- जगत के सब विद्वान तथा द्योतक वेदमंत्र,इन्द्रिय,सूर्यादि उनकी किरण तत्रस्थ गुण
ब्रह्म- परमात्मा तथा वेदशास्त्र
सर्वम्- स्थूल और सूक्ष्म चराचर जगत ये सब पदार्थ
सा -वह
मा- मुझ को भी
एधि- प्राप्त हो।

व्याख्या:- हे सर्वदु:ख की शान्ति करने वाले। सब लोको से ऊपर जो आकाश है वह सर्वदा हमलोगों के लिये शांत सुखकारक ही रहे। मध्यस्थ लोक और उसमें स्थित वायु आदि पदार्थ, पृथ्वी, पृथिवीस्थ पदार्थ, जल, जलस्थ पदार्थ, ओषधि तत्रस्थ गुण, वनस्पति, तत्रस्थ पदार्थ, विश्वेदेव तथा विश्वघोतक वेदमंत्र, इन्द्रिय, सूर्यादि उनकी किरणें, तत्रस्थ गुण, परमात्मा तथा वेदशास्त्र, स्थूल और सूक्ष्म, चराचर जगत ये सब पदार्थ हमारे लिए हो हे सर्वशक्तिमान् परमात्मा। आप की कृपा से शान्त सदानुकूल सुखदायक हों। मुझको भी शान्ति प्राप्त हो जिससे मैं भी आप की कृपा से दुष्ट क्रोधादि उपद्रव रहित होऊं तथा सब संसारस्थ जीव भी दुष्ट क्रोधादिउपद्रव रहित हों।

Tuesday, March 8, 2016

वेद सार 29

सुमित्रिया न आप ओषधय: सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै संतु योऽस्मान् द्वेष्टि वयं द्विष्म। 
                                                                                                    यजुर्वेद:-22। 36। 23 

भावार्थ: सुमित्रिया:- सुखदायक
न:- हमलोगों के लिए
आप:- प्राण, जल तथा विद्या ओषधय:-ओषधि
सन्तु- सदा हो
दुर्मित्रिया- प्रतिकूल
तस्मै- उसके लिये
या- जो
अस्मान्- हम से
द्वेष्टि- द्वेष, अप्रीति, शत्रुता करता है यम्- जिस दुष्ट से
च- तथा
वयम्- हम
द्विष्म: द्वेष करते हंै।

व्याख्या:- हे सुखदायक, आप की कृपा से प्राण और जल तथा विद्या और ओषधि हमलोगों के लिए सदा हो। यह कभी प्रतिकूल न हों और जो हमसे शत्रुता करता है तथा जिस दुष्ट से हम द्वेष करते हैं उसके लिए पूवोक्त प्राणादि दु:खकारक हो। हमलोग सदा सुखी ही रहें। 

Sunday, March 6, 2016

वेद सार 28

यतो यत: समीहसे ततो नो अभय कुरू।
शं न: कुरू प्रजाभ्यो मयं न: पशुभ्यं।। 
                  यजुर्वेद:- 36। 22

भावार्थ :- यतो यत: -जिस देश से  
 सम्यक- चेष्टा करते हो
 तत: - उस- उस देश से
 न:- हमको
अभयम्- भय रहित
कुरु- करो
शम्- सुख
प्रजाम्य: -प्रजा से
पशुम्य: -पशुओं से।

व्याख्या:- हे महेश्वर, जिस-जिस देश से आप सम्यक चेष्टा करते हो उस- उस देश से हमको अभय करो। अर्थात जहां-जहां से हमको भय प्राप्त होने लगे वहां-वहां से सर्वथा हमलोगों को भयरहित करो तथा प्रजा से हमको सुख की व्यवस्था करो। हमारी प्रजा सब दिन सुखी रहे। वह भय देने वाली कभी न हो। आप पुशओं से भी हमको अभय करो। किसी से किसी प्रकार का भय हमलोगों को आप की कृपा से कभी न हो। जिससे हम लोग निर्भय होकर सदैव परमानंद को भोगें ओर निरंतर आपका राज्य तथा आपकी भक्ति करें।

Saturday, March 5, 2016

तन, मन और वाणी के उद्वेग को विराम देने का व्रत है महाशिवरात्रि

'वन्दे देवमुमापति सुरगुरुं वन्दे जगत्कारणं
वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं वन्दे पशूनां पतिम्।
वन्दे सूर्यशशाड्कविह्वनयनं वन्दे मुकुन्दप्रियं
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिव शंकरम्।।Ó
सचमुच वगैर शिव की वन्दना किए मनुष्य देवाधिदेव के बारे में कहना, लिखना, बोलना तो दूर कुछ चिंतन-मनन भी नहीं कर सकता। उसमें इस अमोघ व्रत महाशिवरात्रि पर तो कदापि नहीं।
शिवरात्रि सच में मनुष्य के तन, मन और वाणी के उद्वेग को विराम देने का व्रत है। इसी दिन चाहे तो मनुष्य जागृत अवस्था में ही शिवत्व का ज्ञान चेतना जागृत कर प्राप्त कर सकता है। इस संबंध में आचार्य ओशो ने भी 'शिवसूत्रÓ के पांच महत्वपूर्ण तत्व बताए हैं।
1. चैतन्यमात्मा - अर्थात आत्मा चैतन्य है।
2. ज्ञान बंध: - ज्ञान बंध है।
3. योनिवर्ग: कलाशरीरम् - योनिवर्ग और कला शरीर है।
4. उद्यमो भैरव: - उद्यम ही भैरव है।
5. शक्तिचक्र संधाने विश्वसंहार - शक्तिचक्र के संद्यान से विश्व का संहार हो जाता है।
चूंकि शिव का मतलब केवल भगवान शिव ही नहीं है, बल्कि शिवनाम किसी नाम या रूप की सीमाओं से मुक्त है। सर्वप्रथम फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की मध्य रात्रि में ही भोलेनाथ लिंग के रूप में प्रकट हुए थे। इसलिए इस तिथि को ही महाशिवरात्रि मनाई जाती है। शिवलिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा उपरी भाग में महेश्वर विराजते हंै। साथ ही वेदी में भगवती अम्बिका विराजती हैं। इसलिए लिंग पुराण में कहा गया है कि शिवरात्रि व्रत के लिए पूजन, व्रतपालन और रात्रि जागरण तीनों आवश्यक है। स्वयं भगवान विष्णु ने कहा है-लिंग रूपाय,लिंगाय, लिंगानाम पतये नम:।
जो भी मनुष्य इस व्रत को करने की इच्छा रखता है उसे चाहिए कि उस दिन मन, कर्म और वचन की पवित्रता का संकल्प ले और स्नान के पश्चात शिव मंदिर या घर में ही आसन पर बैठकर गंगा जल से शरीर को पवित्र करें। फिर तीन बार 'आशुरेषे वज्ररेषे हूं फट स्वाहाÓ का उच्चारण करें। इसके उच्चारण से वह स्थान व आसन पवित्र हो जाता है जहां बैठकर आप भोलेनाथ की पूजा या ध्यान करेंगे।
तत्पश्चात शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराकर शुद्ध जल से पवित्र करें। फिर भोलेनाथ पर गंगाजल, चंदन, भष्म, अबीर, कुमकुम, पुष्प, अक्षत, भांग, धतुर, आक, विल्वपत्र आदि से उनकी सांगोपांग पूजा करें।
ततुपरांत - 'मंदारमाला कुलितालकायै, कपाल मालांकित शेखराय। 
दिव्यां मंबरायै च दिगम्बराय, तस्मै वकाराय नम: शिवाय।Ó
 मंत्र पढ़कर एक साथ उमामहेश्वर का ध्यान कर आह्वान करें। यह मंत्र अद्र्धनारीश्वर रूप में उमामहामहेश्वर के आह्वान के लिए अति उत्तम है। इसके बाद रूद्र गायत्री मै 'ऊं भू भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यम भर्गो रूद्र: प्रचोदयातÓ का जप कम से कम 11000 बार अवश्य करें। तत्पश्चात भगवान की कर्पूर जलाकर आरती करें।
रूद्र संहिता में कहा गया है कि जो भी साधक शिवरात्रि के दिन शिव की उपरोक्त तरीके से पूजा करेगा उसके समस्त पाप नष्ट हो जाएंगे और वह सदा मन, वाणी और कर्म से पवित्र रहेगा और उसकी सदा उन्नति होगी।
  लेकिन ध्यान रहे कि कोई भी प्रार्थना, पूजा, पाठ, आराधना, मंत्र, स्त्रोत व स्तुतियों का फल तभी प्राप्त होता है जब आराधना विधि विधान और शास्त्रोक्त तरीके से की जाय। 

तंत्र- मंत्र- यंञ भाग -4

सिद्ध कुण्जिका स्तोत्र का पाठ करने मात्र से दुर्गासप्तशती का मिलता है फल

श्री मार्कण्डेय पुराण अंतर्गत देवी महात्मय में कुल 700 श्लोक हैं। यह महात्म्य दुर्गा सप्तशती के नाम से प्रसिद्ध है। दुर्गा सप्तशती धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारो पुरूषार्थों को प्रदान करने वाली है। जो पुरुष जिस भाव और जिस कामना से श्रद्धा एवं विधि के अनुसार दुर्गा सप्तशती का पाठ करता है उसे उसी भावना और कामना के अनुसार निश्चय ही फल की प्राप्ति होती है। लेकिन सप्तशती का पाठ करना इतना सरल भी नहीं है। इसी कठिनाई को देखते हुए स्वयं देवाधिदेव महादेव ने एक बार मां पार्वती से कहा कि हे देवी सुनो। मैं तुम्हे एक गुप्त रहस्य बताता हूं। क्योंकि तुम्हारे इस सप्तशती का पाठ समस्त मानव के लिए सुगम व आसान नहीं है, इसलिए इसके लिए मैं एक रास्ता निकालता हूं। मेरी समझ से इसका एक उपाय 'कुण्जिकास्तोत्रÓ  का पाठ होगा। यह समस्त सप्तशती का सार होगा। जिसे बीज मंत्र भी कह सकते हैं। इस मंत्र के पाठक को  कील, कवच, अर्गलास्तोत्र, शापोद्दार, न्यास, रात्रिसुक्त, देवीसुक्त के पाठ करने की भी आवश्यकता नहीं होगी और नाहि पूरा सप्तशती पढऩा होगा। जो मनुष्य प्रात: काल उपर्युक्त स्त्रोत का पाठ करेगा उसके सारे विघ्न और बाधा नष्ट हो जाएंगे और उसे समस्त दुर्गासप्तशती के पाठ के बराबर का फल प्राप्त होगा। वहीं जो मनुष्य इस कुण्जिकास्तोत्र का पाठ तथा देवी सुक्त के सहित सप्तशती पाठ से परम सिद्धि कि प्राप्ति होगी।
1.मारण- काम व क्रोध का नाश
2.मोहन- इष्टदेव की कृपा
3.वशीकरण- मन का वशीकरण
4.स्तम्भन- इंद्रियों की विषयों के प्रति उपरति और उच्चाटन, मोक्ष प्राप्ति के लिए छटपटाहट, ये सभी इस स्तोत्र के इस उद्देश्य से सेवन करने से सफल होते हैं।

सिद्ध कुण्जिका स्तोत्रम्
-----------------
'ऊं ऐं ह्रींं क्लीं चामुण्डाये विच्चै। ऊं ग्लौं हुं क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट स्वाहा।Ó
नमस्ते रूद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि। नम : कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषामर्दिनि।।
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि।
 जाग्रतं हि महादेवी जपं सिद्धंं कुरूष्व में।
 ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींंकारी प्रतिपालिका।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरुपे नमोस्तु ते।
 चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी।
 विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि।
धां धींं धूं धूर्जटे: पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
 क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवी शां शीं शूं में शुभं करू।
हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नम:।
 अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णां खां खीं खूं खेचरी तथा।
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्र सिद्धि कुरूष्व मे।Ó
अंत में देवाधिदेव ने कहा कि हे देवी  जो मनुष्य श्री मार्कण्डेय पुराण की कथा या पाठ सुनता है उसके करोड़ों कल्पों के किए हुए पाप समूह नष्ट हो जाते हैं तथा परम योग की प्राप्ति होती है। उसे न यमराज का भय होता है और न नरकों से। इस पृथ्वी पर उसकी वंश परंपरा सदा कायम रहती है।

Wednesday, March 2, 2016

तंत्र-मंत्र-यंत्र भाग-3

मनुष्य सदा विभिन्न परिस्थितियों में किसी भी कार्य को सिद्ध होते ही देखना चाहता है। यह उसकी मूल प्रकृति का हिस्सा है, क्योंकि निस्काम  कर्म करने वाले मनुष्य हैं ही कहां? जबकि श्रीमद् भागवत गीता में श्री कृष्ण ने कहा है निस्काम कर्म करो और
फल मुझ पर छोड़ दो। लेकिन आज के भौतिकवादी युग में ऐसा संभव है क्या? लेकिन मनुष्य करे भी तो क्या? भागम भाग के इस दौर में वह कभी भी अपने आपको सुरक्षित नहीं पाता है। ऐसे में मनुष्य कुछ ऐसे उपाय चाहता है जो उसे चहुंओर से सुरक्षित कर सके। तो प्रश्न उठता है कि ऐसा कोई उपाय है क्या? तो इसका जवाब है हां। वह क्या है इस बारे में मैं आपको तंत्र-मंत्र की तीसरी कड़ी में बताने जा रहा हूं :-

ऋग्वेद में मां भग्वती कहती है - 'अहं रूद्रेभिर्वसुभिश्चराम्य हमादित्यैरुत विश्वदेवै:।
अहं मित्रावरुणोभा बिभम्र्य हमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा।।Ó
                                                                                                            ऋग्वेद:-8/7/11
अर्थात मैं रुद्र, वसु, आदित्य और विश्वेदेवो के रूप में विचरती हूं। वैसे ही मित्र, वरुण, इंद्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों के रूप धारण करती  हूं।
जबकि ब्रह्मसूत्र में कहा गया है 'सर्वोपेता तद्दर्शनातÓ अर्थात वह परा शक्ति सर्वसामथ्र्य से युक्त है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष देखा जाता है। इस दृष्टि से मनुष्य मार्कण्डेय पुराण में वर्णित मेरे 32 नामों - ' दुर्गा, दुर्गार्तिशमनी, दुर्गापद्विनिवारिणी, दुर्गमच्छेदिनी, दुर्गसाधिनी, दुर्गनाशिनी, दुर्गत्तोद्धारिणी, दुर्गनिहन्त्री, दुर्गमापहा, दुर्गमज्ञानदा, दुर्गदैत्यलोकदवानला, दुर्गमा, दुर्गमालोका, दुर्गमात्मस्वरूपिणी, दुर्गमार्गप्रदा, दुर्गमविद्या, दुर्गमाश्रिता, दुर्गमज्ञानसंस्थाना, दुर्गमध्यानमासिनी, दुर्गमोहा, दुर्गमगा, दुर्गमार्थस्वरूपिणी, दुर्गमासुरसंहन्त्री, दुर्गमायुधधारिणी, दुर्गमाड्गी, दुर्गमता, दुर्गम्या, दुर्गमेश्वरी, दुर्गभीमा, दुर्गभामा, दुर्गभा, दुर्गदारिणी Ó  का पाठ करता है वह नि:संदेह सब प्रकार के भय से मुक्त हो जाएगा। कोई भी मनुष्य यदि शत्रुओं से पीडि़त हो, दुर्भेद्य बंधन में पड़ा हो वह इस 32 नामों का पाठ   कर उससे मुक्त हो सकता है। जो भारी विपत्ति में पडऩे पर भी इस 'दुर्गाद्वात्रिशन्नाममालाÓ का एक लाख बार पाठ कर लेता है, स्वयं करता है या ब्राह्मणों से करवाता है वह सब प्रकार की विपत्तियों से मुक्त हो जाता है। वहीं अग्नि में मधुमिश्रित सफेद तिल से इन नामों का लाख बार हवन कर लेने से मनुष्य समस्त विपत्तियों, आपत्तियोंं से मुक्त हो सकता है। इस नाम माला का पुरश्चरण 30 हजार का है। पुरश्चरण पूर्वक पाठ करने से मनुष्य इसके द्वारा संपूर्ण कार्य सिद्ध कर सकता है। इतना ही नहीं अगर राजा भी उसका वध करने का आदेश दे दे अथवा किसी कठोर दंड का आज्ञा दे, या युद्ध में शत्रुओं से घिर जाए अथवा वन में हिंसक आदि पशुओं से घिर जाए तो ऐसे में मनुष्य अगर 108 बार मां दुर्गा के इस 32 नाम का पाठ कर ले तो वह उस भय से मुक्त हो जाता है। स्वयं दुर्गासप्तशती में कहा गया है कि विपत्ति के समय इसके समान भयनाशक दूसरा कोई उपाय नहीं है। लेकिन इसकी फल प्राप्ति के लिए आवश्यक है पूर्णत: देवी के प्रति शरणागति।

Tuesday, March 1, 2016

व़ेद सार 27


गयस्फानो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवद्र्धन:। सुमित्र: सोम नो भव।। 
                                                                                   ऋग्वेद:- 1/16/21/12

भावार्थ:-गयस्फान:-प्रजा , धन, जनपद और सुराज्य को बढ़ाने वाला अमीवहा-शरीर, इन्द्रियजन और मानस रोगों का हनन, विनाश करनेवाला
वसुवित-सब पृथ्वी आदि वसुओं का जानने वाला, सर्वज्ञ, विद्यादि, धन का दाता
सुमित्र-सबका परम मित्र पुष्टिवद्र्धन-शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा की पुष्टि को बढ़ाने वाला सोम-हे सर्वजगदुत्पादक
न:-हमारे, भव-हो।

व्याख्या:-हे परमभक्त जीवो, अपना इष्ट जो परमेश्वर प्रजा, धन, जनपद और सुराज्य का बढ़ाने वाला है तथा शरीर, इन्द्रियजन और मानस रोगों का विनाश करने वाला है। समस्त पृथिव्यादि वसुओं का जानने वाला है अर्थात् सर्वज्ञ और विद्यादि धन का दाता है, अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा की पुष्टि को बढ़ाने वाला है। सुन्दर यथावत् सबका परममित्र वही है, सो अपने उससे यह मांगे कि हे सोम आप ही कृपा करके हमारे सुमित्र हो और हम भी सब जीवों के मित्र हों तथा अत्यंत मित्रता आप से भी रखें।