सुमित्रिया न आप ओषधय: सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै संतु योऽस्मान् द्वेष्टि वयं द्विष्म।
यजुर्वेद:-22। 36। 23
भावार्थ: सुमित्रिया:- सुखदायक
न:- हमलोगों के लिए
आप:- प्राण, जल तथा विद्या ओषधय:-ओषधि
सन्तु- सदा हो
दुर्मित्रिया- प्रतिकूल
तस्मै- उसके लिये
या- जो
अस्मान्- हम से
द्वेष्टि- द्वेष, अप्रीति, शत्रुता करता है यम्- जिस दुष्ट से
च- तथा
वयम्- हम
द्विष्म: द्वेष करते हंै।
व्याख्या:- हे सुखदायक, आप की कृपा से प्राण और जल तथा विद्या और ओषधि हमलोगों के लिए सदा हो। यह कभी प्रतिकूल न हों और जो हमसे शत्रुता करता है तथा जिस दुष्ट से हम द्वेष करते हैं उसके लिए पूवोक्त प्राणादि दु:खकारक हो। हमलोग सदा सुखी ही रहें।
यजुर्वेद:-22। 36। 23
भावार्थ: सुमित्रिया:- सुखदायक
न:- हमलोगों के लिए
आप:- प्राण, जल तथा विद्या ओषधय:-ओषधि
सन्तु- सदा हो
दुर्मित्रिया- प्रतिकूल
तस्मै- उसके लिये
या- जो
अस्मान्- हम से
द्वेष्टि- द्वेष, अप्रीति, शत्रुता करता है यम्- जिस दुष्ट से
च- तथा
वयम्- हम
द्विष्म: द्वेष करते हंै।
व्याख्या:- हे सुखदायक, आप की कृपा से प्राण और जल तथा विद्या और ओषधि हमलोगों के लिए सदा हो। यह कभी प्रतिकूल न हों और जो हमसे शत्रुता करता है तथा जिस दुष्ट से हम द्वेष करते हैं उसके लिए पूवोक्त प्राणादि दु:खकारक हो। हमलोग सदा सुखी ही रहें।
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