Sunday, March 13, 2016

वेद सार 32

सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्। सनिमेधामया शिपœ स्वाहा।। 
                                                                                                 यजुर्वेद- 32/13

भावार्थ:- सदसस्पतिम्- राजा के सभाध्यक्ष
अद्भुतम- आश्चर्य विचित्र शक्तिमय को प्रियम- प्रिय स्वरुप को
इन्द्रस्य- इन्द्र जो जीव उसके
काम्यम्- कमनीय कामना के योग्य हो
सनिम्- सम्यक् भजनीय और सेव्य को
मेधाम्- विद्या सत्य धर्मादि धारण वाली बुद्धि को
 अयासिषम्- मंै याचक हूं
 स्वाहा- यही स्वकीय वाक् कहती है कि एक ईश्वर से भिन्न कोई जीवों का सेव्य नहीं है यही वेद में ईश्वराज्ञा है।

व्याख्या:- 
हे समापते, सभा ही हमारा राजा न्यायाकारी हो ऐसी इच्छा वालो हमको कीजिए। किसी एक मनुष्य को हमलोग राजा कभी न मानें। किन्तु आपको ही हम सभापति, सभाध्यक्ष और राजा मानें। आप अद्भुत तथा प्रियस्वरूप हंै। इन्द्र जो जीव उसको कामना के योग्य आप ही है। सम्यक, भजनीय और सेव्य भी जीवों के आप ही हंै। मेधा, सत्यधर्मादि धारण वाली बुद्धि को हे भगवान कृपा करके आप मुझे दो। यही स्वकीय वाक् कहती है कि एक ईश्वर से भिन्न कोई जीवों को सेव्य नहीं है। यही वेद में ईश्वराज्ञा है सो सब मुनष्य को मानना अवश्य योग्य है।

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