Thursday, March 10, 2016

वेद सार 30

द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षऽशान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्ति रोषधय: शान्ति। वनस्पतय: शान्ति विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्तिस्सर्वऽशान्तिश्शान्तिरेव शान्ति: सामाशन्तिरेधि।।
                                                                                                                                 यजुर्वेद:-36/17

भावार्थ :-
 द्यौ: - सब लोकों से ऊपर आकाश शान्ति-शान्त निरुपद्रव सुखकारक ही रहे
अन्तरिक्षम् - मध्यस्थ लोक और उसमें वायु आदि पदार्थ
पृथिवी- धरती (पृथिवीस्थ पदार्थ)
आप:- जल (जलस्थ पदार्थ)
ओषधय: -ओषधि तत्रस्थ गुण
वनस्पतय: - वनस्पति तत्रस्थ पदार्थ
विश्वेदेवा :- जगत के सब विद्वान तथा द्योतक वेदमंत्र,इन्द्रिय,सूर्यादि उनकी किरण तत्रस्थ गुण
ब्रह्म- परमात्मा तथा वेदशास्त्र
सर्वम्- स्थूल और सूक्ष्म चराचर जगत ये सब पदार्थ
सा -वह
मा- मुझ को भी
एधि- प्राप्त हो।

व्याख्या:- हे सर्वदु:ख की शान्ति करने वाले। सब लोको से ऊपर जो आकाश है वह सर्वदा हमलोगों के लिये शांत सुखकारक ही रहे। मध्यस्थ लोक और उसमें स्थित वायु आदि पदार्थ, पृथ्वी, पृथिवीस्थ पदार्थ, जल, जलस्थ पदार्थ, ओषधि तत्रस्थ गुण, वनस्पति, तत्रस्थ पदार्थ, विश्वेदेव तथा विश्वघोतक वेदमंत्र, इन्द्रिय, सूर्यादि उनकी किरणें, तत्रस्थ गुण, परमात्मा तथा वेदशास्त्र, स्थूल और सूक्ष्म, चराचर जगत ये सब पदार्थ हमारे लिए हो हे सर्वशक्तिमान् परमात्मा। आप की कृपा से शान्त सदानुकूल सुखदायक हों। मुझको भी शान्ति प्राप्त हो जिससे मैं भी आप की कृपा से दुष्ट क्रोधादि उपद्रव रहित होऊं तथा सब संसारस्थ जीव भी दुष्ट क्रोधादिउपद्रव रहित हों।

No comments:

Post a Comment