Wednesday, August 31, 2016

वेद सार-62

नेह भद्रं रक्षस्विने नावयै नोपया उत । 
गवे च भद्रं धेनवे वीराय च श्रवस्यते ऽ नेहसो ऊतय: सु ऊतय: ।।
                                                                   ऋग्वेद:-6/4/9/12

 

भावार्थ :- न- मत
इह- इस संसार में
भद्रम - सुख
रक्षस्विने - पापी , हिंसक , दुष्टत्मा को
अवयै -धर्म से विरीत चलने वाले को
उपयै-अधर्मी के समीप रहने वाले और उसके सहायक को भी
उत - तथा
गवे - शमादमादियुक्त इंन्द्रियों के लिए
च -और
धेनवे - दुग्ध देने वाली गौ आदि के लिए
वीराय - वीरपुत्र के लिए
श्रवस्यते - विद्या, विज्ञान, अज्ञाद्यैश्वर्य युक्त हमारे देश के राजा घनाढ््य जन के लिए
अनेहस : - निष्पाप निरूपद्रव स्थिर दृढ़ सुख
व: - आप
ऊतय: - सर्वरक्षकेश्वर
सुऊतय: - सर्वरक्षण
व: - पूर्वोक्त धर्माात्माओ की
ऊतय:- रक्षा करने वाले हैं।

व्याख्या :- हे भगवन। पापी, हिंसक दुष्टात्मा को इस संसार मे सुख मत देना । धर्म से विपरीत चलने वाले को सुख कभी मत हो तथा अधर्मी के समीप रहने वाले उसके सहायक को भी सुख नहीं हो। ऐसी प्रार्थना है आपसे हमारी कि दुष्ट को सुख कभी नहीं होना चाहिए। नहीं तो कोई जन धर्म मे रूचि नहीं करेगा। किन्तु इस संसार मे धर्मात्माओं को ही सुख दीजिए। हमारी शमदमादियुक्‍त इन्द्रियां, दुग्ध देने वाली गौ आदि वीरपुत्र, और शूरवीर भृत्य , विद्या ,विज्ञान और अन्नाद्यैश्वर्युक्त हमारे देश के राजा और घनाढ्य जन तथा इनके लिए निष्पाप निरूपद्रव स्थिर दृढ़ सुख हो ।
हे सर्वरक्षकेश्वर। आप सर्वरक्षक, अर्थात पूर्वोक्त सब धर्मात्माओं की रक्षा करने वाले हो।  जिनके आप रक्षक हो उनको सदैव भद्र कल्याण प्राप्त होता है, अन्य को नहीं।

Tuesday, August 30, 2016

देवी देवताओं के रंगों का स्वरूप

हिन्दू देवताओं में रंगों के चुनाव का निश्चित तौर पर मनोवैज्ञानिक सांकेतिक अर्थ है। इन रंगों में कुछ की स्वास्थ्य, दीर्घजीवन, और धर्म की दृष्टि से विशेष उपयोगिता है। विविध रंग हमारे दैनिक जीवन मे उपयोगिता के साथ साथ नव स्फूत्र्ति, सुन्दरता और कल्याण का संदेश देते है। रंगो का स्वास्थ और मन पर प्रवल प्रभाव पड़ता है। रंगो के आकर्षक वातावरण में मन आह्लादित रहता है और निराशा भागती है। धार्मिक कार्यो में रोली का लाल, हल्दी का पीला, पत्तियों का हरा, आटे का सफेद रंग प्रयोग में लाया जाता है। यह हमारे लिए स्वास्थदायक, स्फूत्र्तिदायक और कल्याणकारी होता है।

रंगों में छिपा है कल्याण और सुन्दरता का संदेश:-
प्राचीन काल से वर्तमान काल तक हमारे धर्म तथा समाज मे रंगों का सम्मिश्रण नये रूपों मे होता रहा है। एक ओर रंग जहां हमारे यहां सौन्दर्य प्रसाधनों के विविध रूपों में प्रयुक्त हुए हैं। वहीं ये धर्म में निहित उपयोगी तथ्यों को भी जनमानस तक पहुंचाते रहे हैं। विज्ञान के अनुसार सभी रंग सूर्य की किरणों के प्रभाव से बनते हैं। सूर्य की छत्रछाया मे नाना प्रकार की वनस्पतियां तथा जीवधारी जैसे पनपते हैं उसी प्रकार हरा,लाल और नीला रंग मनुष्य को स्वस्थ,यशस्वी और गौरवशाली बनाने वाले हैं। लाल रंग सौभाग्य का चिन्ह है तो हरी रंग शुभकामना व्यक्त करता है।

लाल रंग में सर्वाधिक धार्मिकता:- 
  हिन्दू धर्म मे लाल रंग का सर्वाधिक महत्व स्वीकार किया गया हैे। अधिक से अधिक मंगल कार्यो मे इसका उपयोग होता है। प्राय: सभी देवी देवताओं की प्रतिमा को लाल रंग का टीका लगाया जाता है। लाल चंदन चंद्रमा  का परिचायक है। लाल टीका शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल रंग मनुष्य के शरीर को स्वस्थ एवं मन को हर्षित करने वाला है। उत्तम स्वास्थ्य और शक्ति गुलाबी आभायुक्त रंग से प्रकट होता है। लाल रंग नारी की मर्यादा की रक्षा भी करता है और यह उसके सौभाग्य का प्रतीक भी है। इसीलिए हिन्दू तत्वदर्शियों ने सिंह वाहिनी मां दुर्गा को लाल, ऐश्वर्य वाहिनी लक्ष्मी को लाल, पौरूष व आत्मगौरव के प्रतीक हनुमान को लाल रंग से सुसज्जित किया है।

भगवा रंग त्याग तपस्या और वैराग्य का प्रतीक:-
भगवा रंग अग्नि की ज्वाला का रंग है। सनातन धर्म मे इस रंग को साधुता,पवित्रता,शुचिता,स्वच्छता और परिष्कार का द्योतक माना गया है। यह रंग अध्यात्मिक प्रकाश का रंग है जिसमें धार्मिक ज्ञान, तप, संयम और वैराग्य की अनुभूति होती है। इसीलिए अग्नि और सूर्य देव सहित ऋषियों-मुनियों, संतों की प्रतिमा मे इस रंग का उपयोग किया जाता है।

हरा रंग आध्यात्मिक प्रेरक वातावरण का प्रतीक:-
हरा रंग समग्र प्रकृति मे व्याप्त है। यह मन को शांति और हृदय को शीतलता प्रदान करता है। यह नेत्रों को प्रिय लगता है। इससे मन संतुलित और प्रसन्न रहता है। ऋषि-मुनीयों ने अपनी आध्यात्मिक उन्नति ऊँचे पर्वत - शिखरों, घास के मैदानों, सरिताओं आदि के तटों पर की है। लक्ष्मी जी को नेत्र सुखदायक हरे रंग से विभूषित किया है। लाल और हरे रंग से लक्ष्मी जी की सात्विकता, जितेन्द्रियता, सत्यपरायणता, कल्याणकामय और सौभाग्य को स्पष्ट किया गया है। यही कारण है की लक्ष्मी जी उन्हीं पुरुष श्रेष्ठों के पास रहती है जो उद्योगी परिश्रमी , स्फूत्र्तिदायक और आत्मश्विासी हैं।

पीला रंग ज्ञान, विद्या और विवेक का प्रतीक:-
शांति, अध्ययन, विद्वता , योग्यता, एकाग्रता और मानसिक बौद्धिक उन्नति का प्रतीक है। यह रंग  मस्तिष्क को प्रफुल्लित करता है। यह बसंती रंग है तभी तो इसे ऋतुराज कहा गया है। जो मन को आनंदित और उद्धेलित करने वाला ऋतु है। भगवान विष्णु व देव गुरु वृहस्पति सहित कई देवों, दिक्पाल देवताओं आदि के वस्त्रों का रंग पीला है जो उनके असीम ज्ञान का द्योतक है।

नीले रंग में बल और पौरूष का संदेश:-
सृष्टिकर्ता ने प्रकृति मे नीला रंग सबसे अधिक रखा है। हमारे सिर के उपर आकाश और सृष्टि मे समुद्र तथा सरिताओं का वर्ण नीला रखा है। मनोविज्ञान के अनुसार नीला रंग बल पौरूष और वीर भाव का प्रतीक है। जिस देवी, देवताओं, ग्रहों, महापुरुषों में जितना ही अधिक बल पौरूष है, दृढता,साहस, शौर्य है, कठिन से कठिन परिस्थितियों मे निरंतर सत्य, नीति धर्म के लिए संघर्ष करने की योग्यता है,वचनों में स्थायित्व है,संकल्पशक्ति और धीरता है उसे उतने ही नीले रंग से चिह्नित किया गया है। मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम , लीला पुरुष श्रीकृष्ण,देवाधिदेव महादेव सहित कई देवी-देवताओं को इसी रंग से चिह्नित किया गया है।

सफेद रंग पवित्रता,शुद्धता,विद्या और शांति का प्रतीक:-
श्वेत रंग सातो रंगो के सम्मिश्रण से बना है। सूर्य की सफेद रश्मि को तोडऩे पर उससे सभी रंग प्रकट हो जाते हैं। इससे मानसिक, बौद्धिक और नैतिक स्वच्छता प्रकट होती है। ज्ञान और विद्या का रंग सफेद है क्योंकि जो विद्या के पुजारी हैं उनमें किसी प्रकार का कल्मष नहीं ठहर सकता है। इसीलिए तो विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती और श्रृष्टिकर्ता ब्रह्मा के चित्र को सफेद रंग से चित्रित किया गया है।
 इस प्रकार देवी- देवताओं का वर्ण तथा उनके वस्त्राभरणोंं एवं अलकारों का जो विभिन्न रंग है वह विशिष्ट शक्तियों का प्रतीक है तथा उनकी उपासना मे तदर्थ रंगों के पवित्र पदार्थो का उपयोग उनकी शीघ्र अनुकंपा प्राप्ति मे सहायक हो सकता है।

Sunday, August 28, 2016

वेद सार -61

 तद्विष्णो: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय: ।
दिवींव चक्षु- रातत
म्
                                            ऋग्वेद :-1/ 2/ 7/ 20

भावार्थ :-
 तद - उस
विष्णो: - विष्णु के
परमम् - परम अत्यन्तोत्कृष्ठ
पदम्- पद (जानने योग्य पूर्णान्द पद को)
 सदा - यथावत अच्छे विचार से  पश्यन्ति- देखते हैं
सूरय: - धर्मात्मा
दिवि- आकाश में
इव- जैसे
चक्षु:- नेत्र की व्याप्ति व सूर्य का प्रकाश
आततम्- सब ओर से व्याप्त है।

व्याख्या :- हे विद्धानो और मुमुक्षु जीवो विष्णु का जो परम अत्यन्तोत्कृष्ठ पद जिसको प्राप्त होके पूर्णानंद मे रहते हैं फिर वहां से शीघ्र दु:ख में नहीं  गिरते । उस पद को धर्मात्मा, जितेन्द्रीय, सबके हितकारक विद्वान लोग यथावत अच्छे विचार से देखते हैं, वह परमेश्वर का पद है। जिस दृष्टांत से कि जैसे आकाश में चक्षु व सूर्य का प्रकाश सब ओर से व्याप्त है वैसे ही परब्रह्म सब जगह मे परिपूर्ण एक रस भरा रहा है। वही परमपद स्वरूप परमात्मा परमपद है। इसी की प्राप्ति होने से जीव सब दु:खों से छूटता है, अन्यथा जीव को कभी परम सुख नही मिलता। इससे सब प्रकार परमेश्वर की प्राप्ति मे यथावत प्रयत्न होना चाहिए ।

Saturday, August 27, 2016

वेद सार -60

पराणुदस्व मघवन्नमित्रान्त्सुवेदा नो वस् कृधि ।
अस्माकं बोध्यविता महाधने भवा वृध: सखीनाम् ।।

                                                       ऋग्वेद :-5/ 3/ 21/ 25

भावार्थ :-
पराणुदस्व - परास्त कर दे
मघवन - हे इन्द्र
अभित्रान् -सब शत्रुओं को
सुवेदा: - सुलभ
न: - हमारे लिए
वसू- समस्त पृथ्वी के धन
कृधि- कर
अस्माकम्-हमारे
बोधि- हमको अपना ही जानो
अविता - रक्षक
महाधने - युद्ध में,
भव- आप ही हो
वृध: - वदर्धक
सखीनाम् - हमारे मित्र और सेनानी के।

व्याख्या :- हे मधवन् इन्द्र आप हमारे समस्त शत्रुओं को परास्त कर दें। हे दात: हमारे लिए समस्‍त पृथ्वी के धन सुलभ करायें । युद्ध मे हमारे और हमारे मित्र तथा सेनानी के आप ही रक्षक, वदर्धक हो । इसलिए हमको अपना ही जानो।
 हे भगवन जब आप हमारे रक्षक योद्धा होंगे तभी हमारी सर्वत्र विजय होगी इसमे संदेह नहीं।  

Thursday, August 25, 2016

भ्रांति,विद्या तथा परम शिव के श्रेष्ठ रूप हैं

भूतों के भाव आदि विकारों से मुक्त रहने के कारण भगवान भोलेनाथ शिव कहे गए हैं। शिव के विष्णु के सानिध्य के कारण ही विष्णु भी शालिग्राम के रूप मे पूजे जाते हैं। इससे इतर कोई भी देवता निराकार रूप मे नहीं पूजे जाते। विष्णु भी जब शिव के साथ विराजते हैं तभी निराकार रूप मे पूजे जाते हैं। शिव तो सदैव निराकार रूप 'लिंगÓ के रूप मे ही पूजे जाते हैं।
 जगत् को जीवन प्रदान करने के गुण से युक्त महादेव को ऋर्षि - मुनियों ने वामदेव भी कहा है। वेद मंत्रो के अधिष्ठाता होने के कारण अघोर एवं समस्त लोकों मे व्याप्त रहने के कारण तत्वपुरुष कहा गया है। तत्वज्ञानी व्यक्ति महेश्वर शिव को 'क्षरÓ और 'अक्षरÓ से परे मानते हैं जिस कारण जीव समस्तप्राणी स्वरूप शिव का स्मरण करके इस पंचतत्व की काया से मुक्त हो जाता है।
 भ्रांति, विद्या तथा पर शिव के श्रेष्ठ रूप हंै। बहुत प्रकार के अर्थो मे विज्ञान को भ्रांति, आत्मरूप से जान लेने को विद्या तथा विकल्परहित तत्व को परम कहा जाता है। शिव का तीसरा अन्य कोई रूप नहीं है। इसीलिए तो लिंग पुराण मे कहा गया है कि 'ऊँ नम: शिवायÓ ही सभी वेदों का सारभूत है।
 बाबा भोलेनाथ हंै ही बड़ी अजीब प्रकृति के। लंकाधिपति रावण कैलास से उन्हे कांधे पर लेकर लंका ले जाने लगे, तैयार हो गए। शर्त पूरा नहीं होने पर देवघर मे स्थापित हो गए । रावण द्वारा तिरस्कार व प्रहार करने के वाबजूद रावण के लिए वचन के अनुसार रावणेश्वर कहलाए । बैजू नामक ग्वाला के कंधे पर रहे और उसकी कर्तव्यनिष्ठा को देखकर उसको वचन दिया और वैद्यनाथ कहलाए। उद्यात स्वाभव होने के कारण भष्मासुर को वरदान दे डाला। इसलिए तो पुराणों मे वर्णित दारूक वन क्षेत्र मे स्थित देवाधिदेव का यह लिंग कामना लिग के रूप मे विख्यात हुआ। यहां हरेक लोगो की मनोकामना पूरी होती है। इसका साक्षात उदाहरण यहां रह रहे धरनटिया व हर साल बाबा के दरबार मे आने वाले शिवभक्तों की संख्या है। विश्व के किसी भी क्षेत्र मे एक महीने तक लगातार इतनी संख्या मे किसी भी धर्म स्थल मे भक्त नहीं पहंचते । यहां बाबा मंदिर पर पंचशूल विराजमान है जो अलौकिक शक्ति का केंद्र है। यही से शुरू होती है वैदिक मंत्र का साधना। इसीलिए तो लिंग पुराण मे साक्षात शिव ने पार्वती से कहा है कि जो भी जीव इस स्थान मे भक्ति भाव से मेरी पूजा करता है वह मेरे साथ आनंद करता है। शिव के 12 लिंगों मे से किसी एक की भी जो गाय के घी से स्नान करा षोडषोपचार विधि से पूजा करता है वह अपने परिजनों समेत यज्ञों का फल प्राप्त कर लेते हैं।
 इसलिए तो पुराणों मे कहा गया है "य इदं परमाख्यानं पुण्यं वैदे:  समन्वितम् पवित्वा श्रृणुते चैव सर्वदु:खविनाशनम्।।"
                

Wednesday, August 24, 2016

भगवान शिव का पार्थिव लिंग


समस्त देवों मे  एक मात्र महादेव ही ऐसे हैं जिनकी आराधना, उपासना और पूजा कि पद्धति सबसे सरल है। इसीलिए तो भोलेनाथ की आराधना जहां चाहें, जब चाहे, जिस मन से चाहे कर सकते हैं। शिव पुराण  अनुसार भगवान चन्द्रमौलेश्वर केवल पंचाक्षर मंत्र से ही वशीभूत हो साधकों को अनुग्रहित कर देते हैं। वही स्कंद पुराण के अनुसार विभिन्न भावों के अनुसार शिव के विभिन्न लिंगो की पूजा के लिए विविध विधान बताए गए है। लिंग की पूजा से ही एक साथ उमा महेश्वर की पूजा हो जाती है। इन्हीं लिंगों मे से एक है पार्थिव लिंग। रूद्र संहिता मे कहा गया है कि पार्थिव पूजन कभी व्यर्थ नहीं हो सकता। पार्थिव लिंग के लिए गंगा की मिट्टी सबसे शुद्ध और पवित्र मानी जाती है।
 स्कंद पुराण के अनुसार 'ऊँ हराय नम:Ó इस मंत्र से मिट्टी लेकर 'ऊँ महेश्वराय नम:Ó मंत्र से अंगूठे के पोर भर का लिंग बनाना चाहिए। इसे तीन भागों मे बांट दें। इसके उपरी भाग को लिंग, मध्य भाग को गौरी पीठ और नीचले भाग को वेदी कहते हैं। लिंग दोनो मे से किसी एक ही हाथ से बनाना चाहिए। तदुपरांत शिव का पार्थिव लिंग के रूप मे ध्यान कर षोडशोपचार विधि से विल्व पत्र के साथ मस्तक पर भस्म और गले मे रूद्राक्ष की माला धारण कर पूजा करनी चाहिए। पार्थिव लिंग की पूजा उपरोक्त इच्छा से इस प्रकार कि जाए तो विशिष्ट फल कि प्राप्ति अवश्य होती है।
विभिन्न प्रकार की कामनाओं के लिए निम्न प्रकार से पार्थिव लिंग के पूजन का विधान है। विद्यार्थी - 1000, धन के इच्छुक - 500 , पुत्र के इच्छुक - 1500 , वस्त्र के इच्छुक - 500 , मोक्ष के इच्छुक - 10,000,00 , भूमि के इच्छुक - 1000 , दया के इच्छुक - 3000 , तीर्थ के इच्छुक - 2000  पार्थिव लिंग की पूजा करनी चाहिए। वहीं शिवलिंग के उपर सांगोपांग पूजा से राज्य प्राप्ति, रोग मुक्ति हेतु 50 कमल पुष्प, विद्या प्राप्ति के लिए घृत , आयु के इच्छुक 1 लाख दुर्वा, पुत्र के इच्छुक 1 लाख धतुरे के पुष्प, वस्त्र व संपति के लिए 1 लाख कनेर का पुष्प , लक्ष्मी प्राप्ति के लिए अक्षत, महापाप से मुक्ति हेतु 1 लाख दाना तील, स्वर्ग समान सुख प्राप्ति के लिए 1 लाख दाना जौ, ज्वर शांति के लिए जलधारा प्रवाहित करने का विधान है।
 शिव पुराण मे शिव ने स्वयं पार्वती से कहा है जिस किसी  की भी जिह्वा के अग्रभाग मे सदा भगवान भोलेनाथ का दो अक्षरों वाला नाम शिव विराजमान रहता है धन्य है वह महात्मा। आज भी जिन्होंने पार्थिव पूजन के बाद शिव के इस अभिनाशी नाम का उच्चारण किया है। वह निश्चय ही मनुष्य रूप मे रूद्र है। उस महात्मा के चहुं ओर शिव शूलपाणी के रूप मे विराजमान रहते हैं

    

Tuesday, August 23, 2016

वेद सार -59

देवो देवानामसि मित्रो अद्भुतो वसुर्बसूनामसि चारूरध्वरे।
शर्मन्त्स्याम तव सप्रथस्तमेऽग्ने सख्ये रिंषामा वयं तन।।

                                                            ऋग्वेद:-1/ 6/ 32/13

भावार्थ:-
देव-परम विद्वान तथा परम आनंद देने वाले देवों को
असि- हो
वसु:-बास करने वाले
वसूनाम-पृथिवी आदि वसुओं के भी
चारू:-अत्यंत शोभायमान और शोभा देने वाले
अघ्वरे-ज्ञानादि यज्ञ में
शर्मन-आनंद स्वरूप
स्याम-हम लोग स्थिर हों
तव- आपके
सप्रथस्तमे- अति विस्तीर्ण में
सख्ये-आनंद स्वरूप सखाओं के कर्म में
मा- कभी न
रिषाम-परस्पर अप्रीतियुक्त हों
वयम्-हम लोग
तव-आपके अनुग्रह से

व्याख्या:- हे मनुष्यो। वह कैसा परमात्मा है? कि हम लोग उसकी स्तुति करें। हे अग्ने। आप परमविद्वान हो तथा उसको परमानंद देने वाले हो तथा अद्भुत मित्र और सबके सुखकारक सखा हो। पृथिव्यदि वसुओं के भी वास कराने वाले से तथा ज्ञानादि यज्ञ में अत्यंत शोभायमान और शोभा के देने वाले हो।
हे परमात्मन। आप के अति विस्तीर्ण
आनंदस्वरूप सखाओं के कर्म में हमलोग स्थिर हों जिससे हमको कभी दु:ख न प्राप्त हो और आपके अनुग्रह से हम लोग परस्पर अप्रीतियुक्त कभी न हों।

Monday, August 22, 2016

देने वाला बैल वाला

सत्यम् शिवम् सुंदरम् । अर्थात जो सत्य है वही शिव हैं,वही प्रकृति में सबसे सुंदर है। इस संसार में प्रकृति और पुरूष का सम्मिश्रण अर्थात अर्धनारीश्वर स्वरूप के अलावा जानने और समझने के लिए कुछ भी नहीं है। संपूर्ण ब्रह्मांड इसी के चारो ओर घूमती है और इसी के गुरूत्वाकर्षण से अपने केंद्र पर अडिग रहती है। दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से युक्त प्राणी को अद्र्धनारीश्वर साम, दाम, दंड और भेद की नीति से संचालित करते हैं। एक दूसरे के प्रति आकर्षण और विकर्षण भी इसी भगवान की देन है। जब ये संयुक्त रूप में नीति का संचालन करते हैं तो आकर्षण होता है और जब अलग-अलग हो जाते हैं तो विकर्षण उत्पन्न होता है। जीवात्मा के अंदर की सकारात्मक और नकारात्मक सोच भी इसी का परिणाम है।
   इंसान चाहता कुछ और है पर पाता कुछ और है। अप्राप्ति की स्थिति में वह और भी मनोयोग पूर्वक अधिक उद्यम करता है। ऐसी स्थिति में उसकी असंतुष्टि, अवसादग्रस्तता और मानसिक तनाव बढ़ता जाता है। कमी न समाप्त होने वाला यह दुश्चक्र सदैव चलता रहता है। ऐसी स्थिति में जीवात्मा एक मात्र भगवान भूतभावन के शरण मेंं ही जाता है। क्योंकि उनका चरित्र है ही बड़े उद्धात किस्म का है। भोलेनाथ ज्ञान, वैराग्य और साधुता के परम आदर्श हैं। इनके समान न तो कोई दाता है,न तपस्वी,न ज्ञानी,न वक्ता, न त्यागी है, उपदेष्टा है और नाहि ऐश्वर्यशाली। वह सभी विद्या से परिपूर्ण हैं। क्योंकि दशो महाविद्याएं तो इन्हीं के अंदर विराजमान हैं। इसीलिए तो जब प्राणी चहुंओर से निराश हो जाता है तो वह भगवान आशुतोष की शरण में पहुंचता है। जहां पहुंचते ही उसके सारे क्लेश दूर हो जाते हैं।
    श्रावण मास में शिव कैलाश से निकलकर विश्व भ्रमण करते हैं। और पूरी दुनियां में जहां-जहां भी उनका प्रतीक लिंग है वहां विराजकर अपने भक्तों की व्यथा सुनकर उनकी पीड़ा को हर उन्हे मनोवांछित वरदान देते हैं। तभी तो श्रावण मास का इंतजार हर कोई करता है। मानो शिव से उनका साक्षात्कार होगा। वह अपने आराध्य को अपनी पीड़ा से अवगत करा उससे मुक्त हो जाएंगे। भक्त सोचते हैं कि हम आस्था और भक्ति रूपी बैंक के ऐसे मैनेजर शिव से मिलेंगे जिन्हे आवेदन देकर हम मन मुताबिक धन राशि, ऐश्वर्य शक्ति आदि प्राप्त कर लेंगे। तभी तो उनकी पूजा और आराधना को जाते वक्त हम कहते हैं 'देने वाला बैल वालाÓ।

Friday, August 19, 2016

वेद सार- 58

य इमा विश्वा भुवनानि जुह्वदृषिहोता न्यसीदत् पिता न:।
स आशिषा द्रविणमिच्छमान: प्रथमच्छदवरॉं २ऽ आविवेशा।।

                                                                          यजुर्वेद:- 17 /17

भावार्थ:-
य:- जो
इमा:- इन
विश्वा- सब
भुवनानि-लोक लोकान्तरों को
जुह्वत- अपने सामथ्र्य कारण में होम करके
ऋषि- सर्वज्ञ
होता-उत्पत्ति समय में देने और प्रलय समय में सबको लेने वाला परमात्मा
न्यसीद-नित्य अवस्थित है
पिता- पिता है
न:-हमारा
स:-सो ही
आशिषा-सामथ्र्य से
द्रविणम्-द्रव्य रूप जगत को
इच्छमान:-स्वेच्छा से उत्पन्न किया चाहता है
प्रथमच्छत-विस्तीर्ण जगत को रच के अनन्त स्वरूप से आच्छादित करता है
अवरान्-बाहर और भीतर
आविवेश-अन्तर्यामी साक्षी स्वरूप से प्रविष्ट हो रहा है।

व्याख्या:- उत्पत्ति समय में देने और प्रलय समय में सबको लेनेवाला परमात्मा ही है। सर्वज्ञ इन सब लोक लोकान्तर भुवनों का अपने सामथ्र्य कारण में होम नित्य अवस्थित है। वही हमारा पिता है। फिश्र जब द्रविण द्रव्यरूप जगत को स्वेच्छा से उत्पन्न किया चाहता है उस सामथ्र्य से यथायोग्य विविध जगत को सहज स्वभाव से रच देता है। इस चराचर जगत को रच के अनन्तस्वरूप से आच्छादित करता है और अन्तर्यामी साक्षी स्वरूप उसमें प्रविष्ट हो रहा है,वही हमारा पिता है।
उसकी सेवा छोड़कर जो मनुष्य अन्य मूत्र्यादि की सेवा करता है वह कृतघ्नत्वादि महादोष युक्त होकर सदैव द़:ख का ही भागी होता है। और जो मनुष्य परमदयामय पिता की आज्ञा में रहता है वह सर्वानंद का सदैव भोग करता है।

Thursday, August 18, 2016

वेद सार- 57

न तं विदाथ य इमा जजानान्यद्युष्माकमन्तर बभूव।
नीहारेण प्रावृता जल्पया चासुतृप उक्थशासश््चरन्ति।।
                                                                   यजुर्वेद:- 17/ 31

भावार्थ:-
न- नहीं
तम्-उसको
विदाथ-तुमलोग जानते हो
य:-जो परमात्मा
इमा-इन सब भुवनों का
जजान-बनाने वाला है
अन्यत -एकता वेद और युक्ति से सिद्ध कभी नहीं हो सकती
युष्माकम-ब्रह्म और जीव की
अन्तरम्-जीव और ब्रह्म का भेद
वभूव-पूर्व से ही है
नीहारेण-अत्यन्त अविद्याा से
प्रावृता-आवृत
जल्पथा- नास्तिकत्व बकवाद करते हो
च- और
असुतृप:-केवल स्वार्थ साधक
उक्थशास:-केवल विषय भोगों के लिए ही अवैदिक कर्म करने में प्रवृत
चरन्ति-परब्रह्म से उलटे चलते हो

व्याख्या:-हे जीवो जो परमात्मा इन सब भुवनों का बनाने वाला है उसको तुमलोग नहीं जानते हो। इसी कारण तुम अत्यन्त अविद्या से आवृत मिथ्यावाद,नास्तिकत्व बकवाद करते हो। इससे तुमको दु:ख ही मिलेगा। तुम लोग केवल साधक प्राण पोषण मात्र में ही प्रवृत हो रहे हो। केवल विषय भोगों के लिए ही अवैदिकर्म करने में प्रवृत हो रहे हो। और जिसने ये सब भुवन रचे हैं उस सर्वशक्तिमान न्यायकारी,परमब्रह्म से उलटा चलते हो। अतएव उसको तुम नहीं जानते।

Sunday, August 14, 2016

कामदेव की वंदना

श्रृष्टि के उद्भव से
बात ये सामने आई।
करो वंदन कामदेव की
यही है सच्चाई।
भोग की परायणता है
रसास्वादता काम का।
घट-घट कर पीले हे बंदे
यही परायणता है काम का।
सत,रज और तम हैं
काम के वाण।
सत् चित और आनंद से
सुशोभित करता है प्राण।।
पौरुष में जंभाई भरता
बढ़ाने को श्रृष्टि का काम।
तब रति का समर्पण ही
फैलाता जग में अपना नाम।।
हे रति, तुम परायणा रहना
बरबस वंदन करना काम की।
हे कामदेव,तुम भी समर्पित रहना
रति के दामन प्राण की।।



Saturday, August 13, 2016

हिन्दो-कि-स्तान

दिलों की नफरत से
नासमझी की बू पनपी थी।
बांटो और राज करो
गोरो की यह सूक्ति थी।।

भोली-भाली जनता प्यारी
समझ न सकी रहनुमाई।
अपनें अहं की पूर्ति हेतु
रहनुमाओं ने द्विराष्ट्र व्यवस्था अपनाई।।

सन छियालिस की सीधी कार्यवाई नें दो दिलों में नफरत जगाई।
सन सैंतालिश की आजादी ने मानवता की रंज दिखलाई।।

गोरे तो चले गए
पर बोए उसने ऐसे नासूर।
कि, जब तक रहेगा हिन्दो- कि- स्तान
शायद कटते रहेंगे सपूत महान।।

सन पैंसठ का जंग हो
या इकहत्तर का रंज।
मिलेनियम में भी हमारे सपूतों ने उन्हे किया बेदम।।

पर, हार हो या मार
स्तान को अहं है बेसुमार।
क्योंकि, वह जनता ही नहीं प्यार
उसे तो चाहिए बरबस फटकार।।

कौन होगा वह रहनुमा
जिसे दूर दृष्ट्रि भाएगी।
तब ईश्वर और अल्ला होंगे एक
और गॉड को भी नींद आएगी।।

Friday, August 12, 2016

सरहद का शतरंज

जंगे आजादी के दिनों से ही
दोनों खानों में गोटियां सजी है।
एक पासे पर पांडव
तो दूसरे पर शकुनी सहित कौरव हैं।।
      नेहरू उलटे जो जिन्ना पलटे
       गांधी ने ह्वीसिल बजाई है।
      अखंड भारत की अस्मत हेतु
      बरबस युद्धक नाच नचाई है।।
भारत का बंटवारा सुझाई
दो पृथक राष्ट्र बना दिया भाई।
कौमो ने भुलवाई
धर्म और मानवता भाई।।
     जो साथ बढ़े, सो हाथ लड़े
    अपने मुल्क में ही बेघर हुए।
    अपनों ने ही इज्जत लूटी
    खून से भी प्यास न बुझी।।
कोई चैन से रहे
तो कोई मुहाजिर बने।
कोई दिनों-दिन बढ़े
तो कोई जुल्म सहे।।
   हमने दिया उनको मान-सम्मान
  लेकिन उसने किया बरबस अपमान।
  कारण ! उसे है झूठा अभिमान
  इसीलिए तो जंग को समझता है आसान।।
सन सैंतालिश की त्रासदी हो, सा पैंसठ का जंग
सन इकहत्तर का आक्रमण हो, या नीनानवे का जंग।
भारतीय जवानों ने किया उसका सपना भंग
सरहद पर बिखर गया उसका शतरंज।।

Thursday, August 11, 2016

शिवरूपम्

शिवरूपम्
जगतस्वरूपम्
तेज निरूपम
है अनुपम
पुलकित चरणम््
शिवरूपम्।
कामोद्दीपक
मदहोश्वरूपम्
चंचल चित्तम्
साक्ष्य सूत्रम्
शिवरूपम्।
सर्वश्रेष्ठम्
श्रृष्टिचक्रम
विछोह दुरूपम
पश्चाताप करनम्
दृढ़ प्रतिज्ञम्
शिवरूपम्।
मातृ उत्पन्नम
मातृ शरनम्
दाम्पत्य जीवनम्
हो अखण्डम्
दुआ है सर्वम
शिवरूपम्।
कुलानन्दन
गौरी शंकरम्
रंभा भय मर्दनम्
उमा शंकरम्
है अति सौम्यम्
शिवरूपम्।
हेम सूतम
अनुजोदुतम
हंसमुखम्
निश्छल अन्तरण
है पूर्ण रूपम्
शिवरूपम्।।

Friday, August 5, 2016

वेद सार-56

परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वा: प्रदिशो दिश्वश्च।
उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभि संविवेश।।
                                                              यजुर्वेद:-32/11


भावार्थ :-
 परीत्य - व्याप्त हो के
भूतानि- सब भूतों में
लोकान - सब लोक
सर्वा: - सब
प्रदिश : - ऐशान्यादि उपदिशा
दिश: - सब पूर्वादिदिशा
च - और
उपस्थल - यथावत जानकर उपस्थित
प्रथमजाम - मुख्य प्राणी
ऋतस्य - यर्थाथ सत्य स्वरूप परमात्मा को
आत्मना - अपनी आत्मा से, आत्मानम् - परमानंद स्वरूप में
अभिसंविवेश-प्रवेश करके सब दु:खों से दूर उसी परमात्मा में रहता है।

व्याख्या : सब जीवों में वह परमेश्वर व्याप्त होकर परिपूर्ण रहता है। तथा सब लोक, सब पूर्वादि दिशा और ऐश्यान्यादि उपदिशा, ऊपर, नीचे अर्थात एक कण भी उसके बिना खाली नहीं है।
 प्रथमोत्पन्न जीव, सब संसार से आदि कार्य जीव को ही समझना सो जीव अपने आत्मा से अत्यंत सत्याचरण, विद्या,श्रद्धा, भक्ति से यर्थाथ स्वरूप परमात्मा को यथावत जान उपस्थित अभिमुख होके उसमें प्रविष्ट करके सब दु:खों से दूर उसी परमानंद में रहता है।

Monday, August 1, 2016

शिव और शिवतत्व

भवानि शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम् ।।
अर्थात भवानी और शंकर की हम वंदना करते हैं। श्रद्धा का नाम पार्वती और विश्वास का शंकर। श्रद्धा और विश्वास- का प्रतीक विग्रह मूर्ति हम मंदिरों में स्थापित करते हैं। इनके चरणों पर अपना मस्तक झुकाते हैं।  उनपर जल व बिल्वपत्र चढ़ाते हैं। उनकी आरती करते हैं। लेकिन इसके लिए श्रद्धा और विश्वास अत्यावश्यक है। इसके बिना कोई सिद्धपुरुष भी भगवान को प्राप्त नहीं कर सकता। देवाधिदेव का सही स्वरूप समझनें के बाद ही हम उनका आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।
शिव पुराण एवं लिंग पुराण के अनुसार शिव के तत्व को समझ लेने के बाद उस विधि व उस तत्व से जब साधक उनकी पूजा और उपासना करता है तो भोलेनाथ अति प्रसन्न होते हैं और मनोवांछित आशीर्वाद प्रदान करते हैं। उपरोक्त तत्व हैं--

1.शिव लिंग
यह सारा विश्व ही लिंग मय है। शिव का आकार लिंग स्वरूप माना जाता है। उसका सृष्टि साकार होते हुए भी उसका आधार आत्मा है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौंदर्य का कोई बड़ा महत्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

2.नंदी
शिव का वाहन वृषभ शक्ति का पुंज  है। वह हिम्मत का प्रतीक है।

3.चांद
शांति व संतुलन का प्रतीक है। चंद्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है। वह पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है।

4.गंगा की जलधारा
सिर से गंगा की जलधारा बहने से आशय ज्ञानगंगा से है। गंगा यहां ज्ञान की प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अवतरित होती हैं। महान आध्यात्मिक शक्ति को संभालने के लिए शिवत्व ही उपयुक्त है । मां गंगा उसकी ही जटाओं में आश्रय लेती हैं। अज्ञान से भरे लोगों को जीवनदान मिल सके। शिव जैसा संकल्प शक्ति वाला महापुरुष ही उसे धारण कर सकता है।

5.तीसरा नेत्र
ज्ञानचक्षु जिससे कामदेव जलकर भस्म हो गया। यह तृतीय नेत्र स्रष्टा ने प्रत्येक मनुष्य को दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जाग्रत रहता है। पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि काम वासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है।

6.गले में सांप
शंकर भगवान ने गले में पड़े हुए काले विषधर का इस्तेमाल इस तरीके से किया है कि उनके लिए वे फायदेमन्द हो गए।

7. नीलकंठ
शिव ने उस हलाहल विष को अपने गले में धारण कर लिया, न उगला और न पीया।  अर्थात विषाक्तता को न तो आत्मसात् करें, न ही विक्षोभ उत्पन्न कर उसे उगलें। उसे कंठ तक ही प्रतिबंधित रखे।

8. मुण्डों की माला
जीवन की अंतिम परिणति और सौगात
राजा व रंक समानता से इस शरीर को छोड़ते हैं। वे सभी एकसूत्र में पिरो दिए जाते हैं। यही समत्व योग है ।

9.डमरू
शिव डमरू बजाते और मौज आने पर नृत्य भी करते हैं। यह प्रलयंकर की मस्ती का प्रतीक है। उनका डमरू ज्ञान, कला, साहित्य और विजय का प्रतीक है।

10.त्रिशूल
लोभ, मोह, अहंता के तीनों भवबंधन को ही नष्ट करने वाला यह शस्त्र त्रिशूल रूप में धारण किया गया- ज्ञान, कर्म और भक्ति की पैनी धाराओं का है।

11. बाघम्बर -
शिव बाघ का चर्म धारण करते हैं। जीवन में बाघ जैसे ही साहस और पौरुष की आवश्यकता है जिसमें अनर्थों और अनिष्टों से जूझा जा सके।

12.भस्म
शिव भस्म को शरीर पर मल लेते हैं ताकि ऋ तुओं के प्रभावों का असर न पड़े।

13. मरघट में वास
उन्हें श्मशानवासी कहा जाता है। हर व्यक्ति को मरण के रूप में शिवसत्ता का ज्ञान बना रहे, इसलिए उन्होंने अपना डेरा श्मशान में डाला है।

14. हिमालय में वास
जीवन का कष्ट कठिनाइयों से जूझ कर शिवतत्व सफलताओं की ऊंचाइयों को प्राप्त करता है।

15. शिव -गृहस्थ योगी
गृहस्थ होकर भी पूर्ण योगी होना शिव जी के जीवन की महत्वपूर्ण घटना है। सांसारिक व्यवस्था को चलाते हुए भी वे योगी रहते हैं, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं।

16. शिव परिवार
शिवजी के परिवार में सभी अपने अपने व्यक्तित्व के धनी तथा स्वतंत्र रूप से उपयोगी हैं। पत्नी पार्वती,पुत्र देव सेनापति कार्तिकेय तथा कनिष्ठ पुत्र प्रथम पूज्य गणपति हैं । सभी विभिन्न होते हुए भी एक साथ हैं। बैल -सिंह , सर्प -मोर प्रकृति में दुश्मन दिखाई देते हैं किन्तु शिवत्व के परिवार में ये एक दुसरे के साथ हैं। शिव के भक्त को शिव परिवार जैसा श्रेष्ठ संस्कार युक्त परिवार निर्माण के लिए तत्पर होना चाहिए ।

17. बिल्वपत्र
बिल्वपत्र को जल के साथ पीसकर छानकर पीने से बहुत दिनों तक मनुष्य बिना अन्न के जीवित रह सकता है। शरीर की इन्द्रियां एवं चंचल मन की वृतियां एकाग्र होती हैं तथा गूढ़ तत्व विचार शक्ति जाग्रत होती है। अत: शिवतत्व की प्राप्ति हेतु बिल्वपत्र स्वीकार किया जाता है।

18. शिव-मंत्र
ऊॅ नम: शिवाय। शिव माने कल्याण। कल्याण की दृष्टि रखकर के हमको कदम उठाने चाहिए और हर क्रिया- कलाप एवं सोचने के तरीके का निर्माण करना चाहिए।

समस्त भूतों का अस्तित्व मिटाकर परमात्मा से अल्प- समाधान की साधना ही शिव की साधना है। शिव के सच्चे उपासक वही हैं जो अपने मन में स्वार्थ भावना को त्यागकर परोपकार की मनोवृत्ति को अपनाते हैं।