Friday, August 5, 2016

वेद सार-56

परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वा: प्रदिशो दिश्वश्च।
उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभि संविवेश।।
                                                              यजुर्वेद:-32/11


भावार्थ :-
 परीत्य - व्याप्त हो के
भूतानि- सब भूतों में
लोकान - सब लोक
सर्वा: - सब
प्रदिश : - ऐशान्यादि उपदिशा
दिश: - सब पूर्वादिदिशा
च - और
उपस्थल - यथावत जानकर उपस्थित
प्रथमजाम - मुख्य प्राणी
ऋतस्य - यर्थाथ सत्य स्वरूप परमात्मा को
आत्मना - अपनी आत्मा से, आत्मानम् - परमानंद स्वरूप में
अभिसंविवेश-प्रवेश करके सब दु:खों से दूर उसी परमात्मा में रहता है।

व्याख्या : सब जीवों में वह परमेश्वर व्याप्त होकर परिपूर्ण रहता है। तथा सब लोक, सब पूर्वादि दिशा और ऐश्यान्यादि उपदिशा, ऊपर, नीचे अर्थात एक कण भी उसके बिना खाली नहीं है।
 प्रथमोत्पन्न जीव, सब संसार से आदि कार्य जीव को ही समझना सो जीव अपने आत्मा से अत्यंत सत्याचरण, विद्या,श्रद्धा, भक्ति से यर्थाथ स्वरूप परमात्मा को यथावत जान उपस्थित अभिमुख होके उसमें प्रविष्ट करके सब दु:खों से दूर उसी परमानंद में रहता है।

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