Friday, August 19, 2016

वेद सार- 58

य इमा विश्वा भुवनानि जुह्वदृषिहोता न्यसीदत् पिता न:।
स आशिषा द्रविणमिच्छमान: प्रथमच्छदवरॉं २ऽ आविवेशा।।

                                                                          यजुर्वेद:- 17 /17

भावार्थ:-
य:- जो
इमा:- इन
विश्वा- सब
भुवनानि-लोक लोकान्तरों को
जुह्वत- अपने सामथ्र्य कारण में होम करके
ऋषि- सर्वज्ञ
होता-उत्पत्ति समय में देने और प्रलय समय में सबको लेने वाला परमात्मा
न्यसीद-नित्य अवस्थित है
पिता- पिता है
न:-हमारा
स:-सो ही
आशिषा-सामथ्र्य से
द्रविणम्-द्रव्य रूप जगत को
इच्छमान:-स्वेच्छा से उत्पन्न किया चाहता है
प्रथमच्छत-विस्तीर्ण जगत को रच के अनन्त स्वरूप से आच्छादित करता है
अवरान्-बाहर और भीतर
आविवेश-अन्तर्यामी साक्षी स्वरूप से प्रविष्ट हो रहा है।

व्याख्या:- उत्पत्ति समय में देने और प्रलय समय में सबको लेनेवाला परमात्मा ही है। सर्वज्ञ इन सब लोक लोकान्तर भुवनों का अपने सामथ्र्य कारण में होम नित्य अवस्थित है। वही हमारा पिता है। फिश्र जब द्रविण द्रव्यरूप जगत को स्वेच्छा से उत्पन्न किया चाहता है उस सामथ्र्य से यथायोग्य विविध जगत को सहज स्वभाव से रच देता है। इस चराचर जगत को रच के अनन्तस्वरूप से आच्छादित करता है और अन्तर्यामी साक्षी स्वरूप उसमें प्रविष्ट हो रहा है,वही हमारा पिता है।
उसकी सेवा छोड़कर जो मनुष्य अन्य मूत्र्यादि की सेवा करता है वह कृतघ्नत्वादि महादोष युक्त होकर सदैव द़:ख का ही भागी होता है। और जो मनुष्य परमदयामय पिता की आज्ञा में रहता है वह सर्वानंद का सदैव भोग करता है।

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