Thursday, August 18, 2016

वेद सार- 57

न तं विदाथ य इमा जजानान्यद्युष्माकमन्तर बभूव।
नीहारेण प्रावृता जल्पया चासुतृप उक्थशासश््चरन्ति।।
                                                                   यजुर्वेद:- 17/ 31

भावार्थ:-
न- नहीं
तम्-उसको
विदाथ-तुमलोग जानते हो
य:-जो परमात्मा
इमा-इन सब भुवनों का
जजान-बनाने वाला है
अन्यत -एकता वेद और युक्ति से सिद्ध कभी नहीं हो सकती
युष्माकम-ब्रह्म और जीव की
अन्तरम्-जीव और ब्रह्म का भेद
वभूव-पूर्व से ही है
नीहारेण-अत्यन्त अविद्याा से
प्रावृता-आवृत
जल्पथा- नास्तिकत्व बकवाद करते हो
च- और
असुतृप:-केवल स्वार्थ साधक
उक्थशास:-केवल विषय भोगों के लिए ही अवैदिक कर्म करने में प्रवृत
चरन्ति-परब्रह्म से उलटे चलते हो

व्याख्या:-हे जीवो जो परमात्मा इन सब भुवनों का बनाने वाला है उसको तुमलोग नहीं जानते हो। इसी कारण तुम अत्यन्त अविद्या से आवृत मिथ्यावाद,नास्तिकत्व बकवाद करते हो। इससे तुमको दु:ख ही मिलेगा। तुम लोग केवल साधक प्राण पोषण मात्र में ही प्रवृत हो रहे हो। केवल विषय भोगों के लिए ही अवैदिकर्म करने में प्रवृत हो रहे हो। और जिसने ये सब भुवन रचे हैं उस सर्वशक्तिमान न्यायकारी,परमब्रह्म से उलटा चलते हो। अतएव उसको तुम नहीं जानते।

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