Tuesday, September 27, 2016

वेद सार-72

सा मा सत्योक्ति : परिं पातु विश्वतो द्यावा च यत्र ततनन्न हानि च ।
विश्वमन्यन्निविंशते यदेजति विश्वाहापो विश्वाहोदेति सूर्य: ।।
                                                                                      ऋग्वेद:-7/8/12/2




भावार्थ :- 
 सा - वह
मा - हमको/ हमारी
सत्योक्ति- सत्य आज्ञा
परिपातु - सर्वथा पालन और सदा पृथक रखें
विश्वत: - सब संसार से और सब दुष्ट कामों से
द्यावा - दिव्य सुख से
च - और
यत्र- जिस दिव्य दृष्टि में
ततनन् - अपने ही विस्तारे हंै
अहानि - सूर्यादिकों को दिवस आदि के होने के निमित्त
विश्वम - सब जगत
अत्यन्त - आपसे अन्य
निविश्ते - आपके सामर्थ से प्रलय में प्रवेश करता है
यद् - जिस समय यह जगत
एजति - चलित होके उत्पन्न होता है
विश्वाहप : -विश्व के हन्ताओं से रक्षा करने वाला
विश्वाहा-जो-जो विश्व का हन्ता
उदेति - आप सब जगत में उदित/
प्रकाशमान हो रहे हो
सूर्य - सूर्यवत् हमारे हदय में प्रकाशित होओ ।

व्याख्या :- हे सर्वभिरक्षकेश्वर। आप की सत्य आज्ञा जिसका हमने अनुष्ठान किया वह हमको सब संसार से सर्वथा पालन और सब दुष्ट कामों से सदा पृथक रखे ताकि कभी हमको अधर्म करने की इच्छा भी न हो और दिव्य सुख से सदा युक्त करके यथावत् हमारी रक्षा करे।
जिस दिव्य सृष्टि में सूर्यादिकों को दिवस आदि होने के निमित्त आपने ही विस्तारे हंै वहां भी हमारा सब उपद्रवों से रक्षण करो।
आप से अन्य सब जगत जिस समय आपके सामथ्र्य से प्रवेश करता है उस समय में भी आप हमारी रक्षा करें। जिस समय यह जगत आप के सामथ्र्य से चलित होके उत्पन्न होता है उस समय भी सब पीडाओं से आप हमारी रक्षा करें।
जो - जो विश्व का हन्ता उसको आप नष्ट कर दो क्योंकि आप के सामथ्र्य में सब जगत की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय होता है। आपके सामने कोई राक्षस क्या कर सकता है। क्योंकि आप सब जगत में उदित हो रहे हो। परन्तु सूरर्यवत हमारे हदय में कृपा करके प्रकाशित होओ, जिससे हमारी अविधान्धकारता सब नष्ट हो।

Saturday, September 24, 2016

वेद सार-71


मृळ नो रूद्रोत नो मयस्कृधि  क्षयद्वीराय नमसा बिधेम ते ।
यच्छं च योश्च मनुरायेजे पिता तदश्याम तव रूद्र प्रणीतिषु ।

                                                              ऋग्वेद:- 1/8/5/2



भावार्थ :-
 मृळ-सुखीकर
न: -हमको
रूद्र - हे दुष्टों को रूलाने वाले रूद्रेश्वर
उत - तथा
मयस्कृधि- अत्यन्त सुख का संपादन कर
क्षयद्वीराय- शत्रुओं के वीरों का क्षय करने वाले
नमसा- अत्यन्त नमस्कार आदि से
विधेम- परिचर्या करें
ते - आपकी
यत्- हमारी समस्त प्रजा को
शम् - सुखी कर
यो:- प्रजा के
च - रोगों का भी
मनु:- मान्यकारक
आयेजे - स्वप्रजा को संगत और अनेकविध लाडन करता है
तद - वीरों के चक्रवर्ती राज्य को
अश्याम - प्राप्त हों
तव - आपकी
रूद्र- हे रूद्र भगवन
प्रणीतिषु - उत्तम न्याययुक्त नीतियों मे

व्याख्या :- हे दुष्टों को रूलानेहारे रूद्रेश्वर हमको सुखी कर। शत्रुओं के वीरों का क्षय करने वाले अत्यन्त नमस्करादि से आपकी परिचर्या करने वाले हमलोगों का रक्षण यथावत कर ।
हे रूद्र। आप हमारे पिता हो,हमारी समस्त प्रजा को सुखी कर। प्रजा के रोगों का भी नाश कर । जैसे मनु स्वप्रजा को संगत और अनेक विधि से लाडन करता है वैसे आप हमारा पालन करो । हे रूद्र आपकी आज्ञा का प्रणय अर्थात उत्तम न्याययुक्त नीतियों में प्रवृत होके वीरो के चक्रवर्ती राज्य को आपके अनुग्रह से प्राप्त हो।

Friday, September 23, 2016

वेद सार-70

मा नो वधीरिन्द्र मा परा दा मा न:प्रिया भोजनानि प्रमोषी:।
आण्डा मा नो मघवञ्छक्र निर्भेन्मा न:  पात्रा भेत सहजानुषाणि ।।

                                                                                      ऋग्वेद:-1/7/19/8





भावार्थ :-
मा - मत
न:- हमारा
वधी :- बध कर
इन्द्र - हे परमैश्वरर्ययुक्तेश्वर
परा - अलग
दा :- हो
प्रिया - प्रिय
भोजनानि- भोगो को
प्रमोषी :- चोर और चोरवावो
आण्डा - गर्भो का
मघवन - हे सर्वशक्तिमान
शक्र - समर्थ और पुत्रों का
निर्भेत - विदारण कर
पात्रा - भोजनार्थ सवर्णनादि पात्रों को
भेत-अलग कर / नष्ट करो सहजानुषाणि - सहज अनुषक्त स्वाभाव से अनुकूल मित्र है, उनको ।

व्याख्या :- हे इन्द्र परमैश्वर्ययुक्तेश्वर । हमको आप अपने से अलग मत गिरावें अर्थात हमारा वध मत कर। हमसे अलग आप भी मत हो। हमारे प्रिय भोगों को मत चोर चोरवावें।
हमारे गर्भों का विदारण मत कर । हे मघवन हमारे समर्थ पुत्रों का विदारण मत कर । हमारे भोजनार्थ सुवर्णादि पात्रों को हमसे अलग मत कर । जो जो हमारे सहज अनुषक्त स्वाभाव से अनुकूल मित्र हैं उनको आप नष्ट मत करो अर्थात कृपा करके पूर्वोक्त सब पदार्थो की यथावत रक्षा करो। 

Thursday, September 22, 2016

वेद सार-69

विष्णो : कर्मणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे।
 इन्द्रस्य युज्य : सखा ।।

                                                              ऋग्वेद:-1/2/7/19




भावार्थ :- विष्णो:- व्यापक ईश्वर के ।
कर्माणि - जगत की उत्पति, स्थिति, प्रलय आदि कर्मो को
पश्यत - तुम देखो
यत :- जिससे
व्रतानि - ब्रह्मर्यादिव्रत तथा सत्यभाषणादिव्रत और ईश्वर के नियमों के अनुष्ठान करने को
पस्पशे - समर्थ हुए हैं
इन्द्रस्य - इन्द्रियों के साथ वर्तमान कर्मों के कर्ता,भोक्ता जीव का
युज्य- योग्य
सखा - मित्र।
व्याख्या :- हे जीवो , विष्णु के किये दिव्य जगत की उत्पति स्थिति , प्रलय आदि कर्मों को तुम देखो। जिससे हमलोग ब्रह्मचर्यादि व्रत तथा सत्यभाषणादि व्रत और ईश्वर के नियमों का अनुष्ठान करने को जीव सुशरीरधारी हो के समर्थ हुए हैं। यह काम उसी के सामथ्र्य से है क्योंकि इन्द्रियों के साथ वर्तमान कर्मों का कर्ता, भोक्ता जो जीव इस का वहीं एक मित्र है अन्य कोई नहीं। क्योंकि ईश्वर जीव का अन्तर्यामी है। उससे परे जीव का हितकारी कोई और नहीं हो सकता, इसलिए परमात्मा से सदा  मित्रता रखनी चाहिए।



Tuesday, September 20, 2016

वेद सार-68


वयं जयेम त्वया युजा वृतमस्माकमशमुदवा भरे भरे ।
 अस्मभ्यमिन्द्र वरिव: सुगं कृधि प्र शत्रुणां मघबन्बृष्ण्या रूज ।।
                                                                          ऋग्‍वेद:- 1/7/14/4





भावार्थ :-
वयम् - हमलोग
जयेम- दुष्ट जन को जीतें
त्वया - आपके तथा वर्तमान
युजा - आपकी सहायता से
आबृतम - हमारे बल से घेरा हुआ
अस्माकम््-हमारे
अंशम् - अंश(बल)
उदवा - उत्तम रीति से रक्षण करो
भरे भरे- युद्ध युद्ध में
अस्मभ्यम्- हमारे लिए
इन्द्र मघबन - हे महाघनेश्वर
वरिव: - चकवर्ती राज्य और साम्राज्य धन को
सुगम - सुख से प्राप्त
कृधि - कर
शत्रुनाम् - हमारे शत्रुओं के
मघबन - महाघनेश्वर
बृष्ण्या - वीर्य पराक्रमादि को
रुज-प्रभग्न
रुग्न करके नष्ट कर दे

व्याख्या :- हे इन्द्र आपके साथ वर्तमान में आपकी सहायता से हमलोग दुष्ट शत्रुजन को जीतें। वह शत्रु हमारे बल से घिरा हुआ हो।
हे महाराजाधिराजेश्वर, युद्ध - युद्ध में हमारे बल का उत्तम रीति से कृपा करके रक्षण करो, जिससे किसी युद्ध में क्षीण होके हम पराजय को न प्राप्त हों। क्योंकि जिनको आप की सहायता है उसका सर्वत्र विजय ही होता है।
हे इन्द्र हमारे शत्रुओं के पराक्रम को नष्ट कर दे। हमारे लिए चक्रवर्ती राज्य और साम्राज्य धन को सुख से प्राप्त कर।

Monday, September 19, 2016

वेद सार-67

तमूतयो रणयञ्छूसातौ तं क्षेमस्य क्षितय: कृ ण्वत त्राम्।
 स विस्वस्य करूणस्येश एको मरुत्वन्नो भवत्विन्द्र ऊती।।

                                                                                     ऋग्वेद:-1/7/4/7

 

भावार्थ :-
तम् - उसी इन्द्र परमात्मा की प्रार्थनादि से
ऊतय: -अनंत रक्षण तथा बलादि गुण
शूरसातों - युद्ध में
रणयन् - रमण और शूरवीरो के गुण
क्षेमस्य- क्षेम कुशलता का
क्षितये :- हे शूरवीर मनुष्यो
त्राम - रक्षक
कृण्वत् - करो
स:- सो
विश्वस्य - सब जगत पर
करूणस्य - करूणामय (करूणा करने वाला)
ईश: - परमात्मा
एक: - एक ही है
मरुत्वान -प्राण,वायु बल सेना युक्त
न: -हमलोगों पर
भवतु - हो
ऊती - रक्षक।

व्याख्या:- हे मनुष्यो उसी इन्द्र की प्रार्थना तथा शरणागति से अपने को अनंत रक्षण तथा बलादि गुण प्राप्त होंगे। वही युद्ध मे अपने को यथावत रमण और रणभूमि मे शूरवीरों के गुण परस्पर प्रीत्यादि प्राप्त करावेगा।
हे शूरवीर मनुष्यो, उसी की प्रार्थना करों जिससे अपनी पराजय कभी ना हो। क्योंकि समस्त जगत का कल्याण करने वाला वही है, दूसरा कोई नहीं है। सो परमात्मा हमलोगो पर कृपा करे और हमारे रक्षक भी हों। जिसकी रक्षा से हमलोग कभी पराजय को न प्राप्त हों ।

Sunday, September 11, 2016

वेद सार-66

ब्रह्मंं जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्विसीमत : सुरूचो वेनऽआव:।
 स बुध्न्याऽ३उपमा अस्स विष्ठा : सतश्च योनिसतश्च विन: ।।

                                                                  यजुर्वेद:- 13/3

भावार्थ :-
 ब्रह्म - हे  परमेश्वर, आप बड़ों से भी बड़े हो। आपसे बड़ा या आपके तुल्य कोई नहीं है।
 जज्ञानम - सब जगत मे व्यापक
प्रथमम् - सब जगत के आदिकरण आप ही हो
पुरस्तात्- पूर्व
सीमत: - विविध सीमा से युक्त सुरुच : - सूर्यादि लोक आपसे प्रकाशित है
वेन: - आनंदस्वरूप कामना करने योग्य
वि-आव : - सब लोकों को विविध नियमों से पृथक - पृथक यथायोग्य वत्र्ता रहे हो
स:- सो ही
बुध्न्या : - अंतरिक्षान्तर्गत दिशादि पदार्थो को
उपमा:- वे अन्तरिक्षादि उपमा
अस्य - इस जगत के
विष्ठा: - निवास स्थल है
सत: - विद्यमान स्थूल जगत की
च- तथा
योनिम- आदिकरण आपको
असत: - अविद्या चक्षुरादि इन्द्रियों से अगोचर इस विविध जगत की
विव: -विभक्त करता है।

व्याख्या :- हे परमेश्वर आप बड़ों से भी बड़े हो। आप से बड़ा या आपके तुल्य कोई नहीं है। आप समस्त जगत मे व्यप्त हो , सब जगत के आदिकारण आप ही हो। सूर्यादि लोक आप ही से प्रकाशित है। इनको पूर्व रच के आप  ही धारण करते हो। इन सब लोकों को विविध नियमों से पृथक - पृथक यथायोग्य वत्र्ता रहे हो। आप के आनंद स्वरूप होने से ऐसा कोई जन संसार मे नहीं है जो आपकी कामना न करे। किंतु सब ही आप को मिलना चाहते हंै। तथा आप अत्यंत विद्यायुक्त हो, जब रीति से रक्षक आप ही हो। सो हे परमात्मा अंतरिक्षान्तर्गत दिशादि पदार्थो को विभक्त करता है वह अंतरिक्षादि उपमा सब व्यवहारों मे उपयुक्त होते है। और वे विविध जगत के निवास स्थान हैं।

Friday, September 9, 2016

वेद सार-65

विजानाह्यार्यान ये च दस्यबो बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान।
शाकी भव यजमानस्य चोदिता विश्वेत्ता ते सधमादेषु चाकन ।।

                                                                          ऋग्वेद:-1/4/10/8

भावार्थ :- विजानीहि - जानो
आर्यान - विद्या धर्मादि उत्कृष्ट स्वभावचरण युक्त आर्यो को
ये - जो
च- और
दस्यव: -नास्तिक, डाकू, चोर आदि को
बर्हिष्मते - सर्वोपकारक यज्ञ के विध्वंस करने वाले को
रन्धय - मूल सहित नष्ट कर दीजिए  शासद् -यथायोग्य शासन करो
अव्रतान् - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ , सन्यास आदि धर्मानुष्ठान , व्रतरहित, वेदभार्गोच्छेदक, अनाचारी  इनका
शाकी - परमशक्तियुक्त शक्ति देने वाला
भव - हो
यजमानस्य - जीव को
चोदिता - उत्तम कामों में प्रेरणा करने वाला
सधमादेषु - उत्कृष्ट  स्थानों मे   चाकन- कामना करता हंू



व्याख्या:- हे यथायोग्य सबको जानने वाले ईश्वर, आप विद्यादि उत्कृष्ट स्वाभावाचरणयुक्त आर्यो को जानो और जो नास्तिक, डाकू, चोर, विश्वासघाती, मूर्ख, विषयलम्पट, हिसांदि दोषमुक्त, उत्तम कर्म मे विघ्न करने वाले ,स्वार्थी, स्वार्थ साधन में तत्पर,वेद विद्या विरोधी , अनार्य,सर्वोपकारक यज्ञ के विध्वंस करने वाले हैं। इन सब दुष्टों  को आप मूल सहित नष्ट कर दीजिए।
  जीवों को परम शक्ति युक्त शक्ति देने और उत्तम कामों मे प्रेरणा करने वाले हो। आप हमारे दुष्ट कामों से निरोधक हो। मैं भी उत्कृष्ट स्थानो मे निवास करता हुआ तुम्हारी आत्मानुकूल सब उत्तम कर्मों की कामना करता हूं , सो उसे आप पूरा करें ।



Thursday, September 8, 2016

वेद सार-64

त्वमस्य पारे रजसो व्योमन: स्व मृत्योजा अवसे घृषन्मन:।
चकृषे भूमि प्रतिमानमोजसोप: स्व: परिभूरेष्या दिवम् ।।

                                                        ऋग्वेद:- 1/ 4/ 14/ 12

 

भावार्थ :-
 त्वम-आप
अस्य-समस्त जगत के तथा विशेष हमलोगों के
पारे-पार में तथा भीतर
रजस: - लोक के
व्योमन - आकाश के
स्वभूत्योजा: - अपने ऐश्वर्य और बल से
अबसे-सम्यक रक्षण के लिए
घृषत- घर्षण करते हुए
मन: - दुष्टों के मन को
चकृषे- रचके
भूमिम्- भूमि को
प्रतिमानम् - परिमाण
परिमाण- कर्ता
ओजस:- अपने सामथ्र्य से
अप: - अंतरिक्ष लोक और जल के     स्व: - सुख विशेष
परिभू: - सब पर वर्तमान
ऐषि - प्राप्त हो रहे हो
आदिवम् - सूर्यदिलोक के 


व्याख्या:-हे परमात्मन, आकाश लोक के पार में तथा भी
परम आकाश भूमि तथा सुख विशेष मध्यस्थ लोक इन सबों को अपने सामथ्र्य से ही रच के यथावत धारण कर रहे हो। सब पर वर्तमान और सब को प्राप्त हो रहे हो। सूर्यलोक, अंतरिक्ष लोक , जल आदि के प्रतिमान कर्ता आप ही हो तथा आप अपरिमेय हो ।


तर अपने ऐश्वर्य और बल से विराजमान होके दुष्टों के मन को घर्षण (तिरस्कार)करते हुए समस्त जगत तथा विशेष हमलोगों के सम्यक रक्षण के लिए आप सावधान हो रहे हो। इससे हम निर्भय होके आनंद कर रहे है।

Thursday, September 1, 2016

वेद सार- 63

स्थिरा  ब: सन्त्वायुधा पराणुदे वीलू उत  प्रतिष्कभे ।
युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मत्र्यस्य मायिन:।।

                                                             ऋग्वेद:-1/3/18/2

 




भावार्थ :-
स्थिरा: -स्थिर
व:- तुम्हारे लिए
सन्तु- हों
आयुधा - शतध्नी - तोप, भुशुण्डी - बंधूक, धनुष -बाण, करवाल - तलवार, शक्ति - बरछी आदि शस्त्र
पराणुदे - शत्रुओं के पराजय के लिए
वीलू - दृढ
उत - और
प्र्रतिष्कभे - शत्रुओं के वेग को थामने के लिए
युष्माकम्- तुम्हारी
अस्तु- हो
तविषी - बलरूप उत्तम सेना
पनीयसी- प्रशंसित
मा - नहीं
मत्र्यस्य - मनुष्य का
मायिन: - अन्यायकारी, दुष्ट, पापी, ईश्वरभक्ति रहित का।

व्याख्या:- ईश्वर सब जीवों को आशीर्वाद देता है कि हे जीवों तुम्हारे शत्रुओं की पराजय के लिए तुम्हारे आयुध अर्थात तोप, बन्दूक, धनुष-बाण, तलवार, बरछी आदि शस्त्र स्थिर और दृढ़ हों। । जिससे तुम्हारे कोई दुष्ट शत्रु लोग कभी दु:ख न दे सके। शत्रुओं के वेग को थामने के लिए तुम्हारी बलरूप उत्तम सेना समस्त संसार मे प्रशंसित हो जिससे तुमसे लडऩे को शत्रु का कोई संकल्प भी न हो। परन्तु जो अन्यायकारी मनुुष्य हैं उसको हम आशीर्वाद नहीं देते। दुष्ट, पापी, ईश्वरभक्ति रहित मनुष्य का बल और राजैश्वयादि कभी नहीं बढ़े। उसका सदा पराजय ही हो ।
हे बन्धुवर्गो आओ सब मिल कर सर्व दु:खो का विनाश और विजय के लिए ईश्वर को प्रसन्न करे । जो अपने को वह ईश्वर आशीर्वाद देवें जिससे अपने शत्रु कभी न बढ़े ।