Tuesday, September 20, 2016

वेद सार-68


वयं जयेम त्वया युजा वृतमस्माकमशमुदवा भरे भरे ।
 अस्मभ्यमिन्द्र वरिव: सुगं कृधि प्र शत्रुणां मघबन्बृष्ण्या रूज ।।
                                                                          ऋग्‍वेद:- 1/7/14/4





भावार्थ :-
वयम् - हमलोग
जयेम- दुष्ट जन को जीतें
त्वया - आपके तथा वर्तमान
युजा - आपकी सहायता से
आबृतम - हमारे बल से घेरा हुआ
अस्माकम््-हमारे
अंशम् - अंश(बल)
उदवा - उत्तम रीति से रक्षण करो
भरे भरे- युद्ध युद्ध में
अस्मभ्यम्- हमारे लिए
इन्द्र मघबन - हे महाघनेश्वर
वरिव: - चकवर्ती राज्य और साम्राज्य धन को
सुगम - सुख से प्राप्त
कृधि - कर
शत्रुनाम् - हमारे शत्रुओं के
मघबन - महाघनेश्वर
बृष्ण्या - वीर्य पराक्रमादि को
रुज-प्रभग्न
रुग्न करके नष्ट कर दे

व्याख्या :- हे इन्द्र आपके साथ वर्तमान में आपकी सहायता से हमलोग दुष्ट शत्रुजन को जीतें। वह शत्रु हमारे बल से घिरा हुआ हो।
हे महाराजाधिराजेश्वर, युद्ध - युद्ध में हमारे बल का उत्तम रीति से कृपा करके रक्षण करो, जिससे किसी युद्ध में क्षीण होके हम पराजय को न प्राप्त हों। क्योंकि जिनको आप की सहायता है उसका सर्वत्र विजय ही होता है।
हे इन्द्र हमारे शत्रुओं के पराक्रम को नष्ट कर दे। हमारे लिए चक्रवर्ती राज्य और साम्राज्य धन को सुख से प्राप्त कर।

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