Thursday, September 1, 2016

वेद सार- 63

स्थिरा  ब: सन्त्वायुधा पराणुदे वीलू उत  प्रतिष्कभे ।
युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मत्र्यस्य मायिन:।।

                                                             ऋग्वेद:-1/3/18/2

 




भावार्थ :-
स्थिरा: -स्थिर
व:- तुम्हारे लिए
सन्तु- हों
आयुधा - शतध्नी - तोप, भुशुण्डी - बंधूक, धनुष -बाण, करवाल - तलवार, शक्ति - बरछी आदि शस्त्र
पराणुदे - शत्रुओं के पराजय के लिए
वीलू - दृढ
उत - और
प्र्रतिष्कभे - शत्रुओं के वेग को थामने के लिए
युष्माकम्- तुम्हारी
अस्तु- हो
तविषी - बलरूप उत्तम सेना
पनीयसी- प्रशंसित
मा - नहीं
मत्र्यस्य - मनुष्य का
मायिन: - अन्यायकारी, दुष्ट, पापी, ईश्वरभक्ति रहित का।

व्याख्या:- ईश्वर सब जीवों को आशीर्वाद देता है कि हे जीवों तुम्हारे शत्रुओं की पराजय के लिए तुम्हारे आयुध अर्थात तोप, बन्दूक, धनुष-बाण, तलवार, बरछी आदि शस्त्र स्थिर और दृढ़ हों। । जिससे तुम्हारे कोई दुष्ट शत्रु लोग कभी दु:ख न दे सके। शत्रुओं के वेग को थामने के लिए तुम्हारी बलरूप उत्तम सेना समस्त संसार मे प्रशंसित हो जिससे तुमसे लडऩे को शत्रु का कोई संकल्प भी न हो। परन्तु जो अन्यायकारी मनुुष्य हैं उसको हम आशीर्वाद नहीं देते। दुष्ट, पापी, ईश्वरभक्ति रहित मनुष्य का बल और राजैश्वयादि कभी नहीं बढ़े। उसका सदा पराजय ही हो ।
हे बन्धुवर्गो आओ सब मिल कर सर्व दु:खो का विनाश और विजय के लिए ईश्वर को प्रसन्न करे । जो अपने को वह ईश्वर आशीर्वाद देवें जिससे अपने शत्रु कभी न बढ़े ।

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