Saturday, December 31, 2016

वेद सार--91

शं में परस्येंंं गात्राय शमस्त्ववराय मे ।
शं मे चतुभ्र्यो अंगेभ्य: शमस्तु तन्वेे मम।।
                                                        अथर्ववेद:-1/12/4
व्याख्या:-- हमारे सिर, उदर आदि अंगों में, दोनो हाथोंं और दोनो पैरों में तथा समस्त शरीर में व्याप्त रोगों का शमन होकर हमें सुख शांति मिले।


निर्लक्ष्म्यं ललाम्यंं निररातिं सुवामसि।
अथ या भद्रा तानि न: प्रजाया अरातिं नयामसि ।।
                                                        अथर्ववेद:-1/18/1

व्याख्या:-- बुुरे लक्षणों वाले अशुभ सूचक चिह्न को हम ललाट से दूर करते हैं। जो लाभकारक लक्षण हैं उन्हे अपने लिए और अपनी संतानों के लिए ग्रहण करते हैं तथा कुलक्षणों को हटाते हैं।  

वेद सार..90

एषां यज्ञमृत वर्चो ददेऽहं रायस्पोषमुत चित्तान्थग्ने।
सपत्ना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेयम्।।
                                                               अथर्ववेद:-1/9/4
व्याख्या:-- हे तेजस्वी अग्ने तू इस मनुष्य को दु:खरहित श्रेष्ठ स्वर्ग में पहुंचा दे। इसे उत्तम सुख और शांति प्राप्त हो। तेरी कृपा से शत्रु हमारे वश में हो जाएं । हम उनके तेज, धर्म, पुण्यकर्म को स्वीकार करते हैं।

मुंच शीर्षक्तया उत कास एनं परुष्परुराविवेशा यो अष्य।
 यो अभ्रजा वातजा यश्य शुष्मो वनस्पतीन्त्सचतां पर्वतांश्च।।
                                                                        अथर्ववेद:-1/12/3
व्याख्या:-- इस पुरुष के शरीर मे जो सिरदर्द, श्लेष्म, खांसी, वात्, पित्त, कफ और वर्षा, शीत व गर्मी के  कारण जो रोग रच - बस गए हैं, हे सूर्य तू उन रोगो का निवारण कर। 

Thursday, December 29, 2016

वेद सार---89

त्‍वमग्‍ने यातुधानानुपबद़धां इहा वह।
अथैषामिन्‍द्रो वज्रेणापि शीर्षाणि वृश्‍चतु ।।
                                 अथर्ववेद –-1/7/7
व्‍याख्‍या—दुष्‍टों को अपने पाश आदि में जकड़कर यहां लाने वाले हे अग्‍ने । इन्‍द्र अपने वज्र के तीव्र प्रहार से उन दुष्‍टों के सिरों को खंड़ विखंड़ करे। 
शं मे परस्‍मै गात्राय शमस्‍त्‍ववराय मे।
शं मे चतुर्भ्‍यो अंगेभ्‍य: शमस्‍तु तन्‍वे मम।    
                               अथर्ववेद –-1/12/4  

व्‍याख्‍या—हमारे सिर, उदर आदि अंगो में, दोनों हाथों और दोनों पैरों में तथा समस्‍त शरीर में व्‍याप्‍त रोगों का शमन होकर हमें सुख शांति मिले।   

Wednesday, December 28, 2016

वेद सार--88

अस्मिन वसु वसवो धारयविन्‍त्‍वन्‍द्र: पूषा वरुणो मित्रो अग्नि:
इममादित्‍या एत विश्‍वे च देवा उत्‍तरस्मिज्‍योतिषि  धारयन्‍तु।।
                                     अथर्ववेद –-1/9/1   
व्‍याख्‍या– धन वैभव की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को वसु, इन्‍द्र, पूषा, वरुण, सूर्य, अग्नि आदि सभी देवता धन वैभव से परिपूर्ण करें। आदित्‍यादि सभी देवता भी उसे तेज और अनुग्रह प्रदान करें।

यत्रैषामग्‍ने जनिमानि वेत्‍थ गुहा सतामत्त्रिणां जातवेद:
तांस्‍त्‍वं ब्रह्रमणा वावृधानो जहयेषां शततर्हमग्‍ने।
                                 अथर्ववेद –-1/8/4     
व्‍याख्‍या—हे अग्‍ने ज्ञानसंपन्‍न तू ब्राहमणों के दवरा प्राप्‍त मंत्र बल से वृदिध पाकर असुरों को अनेक प्रकार से नष्‍ट करने वाला हो। गुफाओं मे रहनेवाले इन दुष्‍टों की संतानों को भी तू अच्‍छी तरह जानता है अत: तेरे दवारा उनका भी समूल नाश हो।  

Friday, December 23, 2016

वेद सार- 87

ये त्रिसप्‍ता परियन्ति विश्‍वा रूपाणि बिभ्रत:
वाचस्‍पतिर्बला तेषां तन्‍वो अद्ध दधातु मे।।
                      अथर्ववेद—1/1/1  
व्‍याख्‍यापृथ्वि, जल, तेज, वायु, आकाश, तन्‍मात्रा और अहंकार – ये सात पदार्थ और सत्‍व, रज तथा तम- ये तीन गुण इस प्रकार    
जगत में तीन गुणा सात इक्‍कीस देवता सब ओर आवागमन करते हैं। वाणी का स्‍वामी ब्रह्मा उनके अद्भुत बल को हमें प्रदान करें।  



 पुनरेहि वाचस्‍पते देवेन मनसा सह।
वसोष्‍पते नि रमय मय्‍येवास्‍तु मयि श्रुतम।।
                      अथर्ववेद- 1/1/2  

व्‍याख्‍या—हे वाणी के स्‍वामी परमेश्‍वर हम और आनंदित हों इसके लिए तुम हमारी कामनाओं को पूर्ण कर और पढे हुए ज्ञान को धारण करने के निमित्‍त हमारी बुद्धियों को प्रकाशित करने वाला हो।      

Thursday, December 22, 2016

वेद सार- 86

यज्ञस्‍य चक्षु: प्रभृतिमुखं च वाचा श्रोत्रण मनसा जुहोमि।
इमं यज्ञं विततं विश्‍वंकर्मणा देता यन्‍तु सुमनस्‍यमाना:।।
                                 अथर्ववेद- 2/35/5   

व्‍याख्‍या– जो पुरुष सत्‍यव्रती, सत्‍य, संकल्‍पी, सत्‍यसंध होकर ईश्‍वरीय ज्ञान को मन, वचन और कर्म से स्‍वीकार करता है तथा ॠषियों की वैदिक वाणी को श्रवण, पठन - पाठन और निरंतर विचार मग्‍न होकर ग्रहण करता है और ईश्‍वर द्वारा दिए इस ज्ञान - विज्ञान को तथा धर्म को जन - जन तक प्रचारित करता है वह पूजनीय है। अत: ईश्‍वर द्वारा प्रदत्‍त इस ज्ञान को मन, वचन और कर्म से सभी को स्‍वीकार करना चाहिए और इसका प्रचार करते रहना चाहिए।         

Wednesday, December 21, 2016

वेद साार- 85

अपूर्वेणेषिता वाचास्‍ता वदन्ति यथायथम़।
वदन्‍तीर्यत्र गच्‍दन्ति तवाहुर्ब्राह़माणं महत।।
                   अथर्ववेद—  10/8 /34
व्‍याख्‍या—जिस परमात्‍मा से पहले कोई नहीं था , एससे प्ररित वाणियां यथार्थ का वर्णन करती हुई जिस तक पहुंचती हैं वो ही महान ब्रह़म कहलाता है।

अन्‍ततं विततं पुरुत्रानन्‍तमन्‍तवच्‍चा समन्‍ते।
ते नाकपालश्‍चरति विचिन्‍वन विद़वान भूतमुत भव्‍यमस्‍य।।   
                                अथर्ववेद-- 10/8/12

व्‍याख्‍यानेक रूपों मे व्‍याप्‍त, अनन्‍त, सबमें समाया हुआ भूत, भविष्‍य तथा वर्तमान काल के सभी संबंधों को जानता हुआ इस जगत को चलाने वाला परमात्‍मा हैं ।     

Monday, December 5, 2016

वेद सार - 84

 कालो अश्वो वहति सप्तरश्मि: सहस्राक्षो अजरो भूरिरेता: ।
   तमारोहन्ति कवयो वियश्चितस्तस्य चक्रा भुवनानि विश्वा ।।
अथर्ववेद :-19/52/1

व्याख्या :- काल सात रस्सियों वाला, हजारों धुरियों को चलाने वाला अजर-अमर है। वह महाबली समयरूपी घोड़े के समान दौड़ रहा है। समस्त उत्पन्न वस्तुएं, पदार्थ, जीव और सारे भुवन अथवा लोक उसके चक्र में चक्रवत घूम रहे रहे हैं।  उस घोड़े पर ज्ञानी और क्रान्तदर्र्शी लोग ही सवार हो सकते हैं। 

Saturday, December 3, 2016

वेद सार -83

 इयं वेदि: परो अन्त: पृथिव्या अयं सोमो कृष्णो अश्वस्य रेत:
अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिर्ब्रद्यायं बाच: परमं व्योम ।।
अथर्ववेद :-9/10/14

व्याख्या :- पृथ्वी गोल है। सभी प्राणी सोम अर्थात अन्य आदि के रस से बलवान होते हैं। परमाणुओं के संयोग और वियोग से अथवा आकर्षण - विकर्षण से समस्त संसार एक नाभि में स्थित है। परमेश्वर ही समस्त वाणियों, अर्थात ज्ञान का भंडार है। पृथ्वी के गोल होने की बात वैदिक ऋषि जानते थे।

 सूर्यो द्यां सूर्य: पृथिवीं सूर्य आपोति पश्यति । 
    सूर्यो भूतस्यैकं चक्षुरा रुरोह दिवं महीम्।। 
अथर्ववेद :-13/1/45
व्याख्या :- सूर्य सबको चलाने वाला है। वह परमेश्वर है। वह प्रकाशमान सूर्य, जो सर्वप्रेरक है, सर्वनियामक है, सारी पृथ्वी को, सारे कार्यो को सदैव निहारता रहता है। वह सर्वनियन्ता, समस्त संसार का द्रष्टा, एक नेत्र स्वरूप इश्वर आकाश और धरती पर सबसे ऊंचा है। वह पुरुषोत्तम है। 

Friday, December 2, 2016

वेद सार -82

 यद्द् देवा देवान् हविषायजन्तामत्र्यान् मनसामत्यैन । 
   मदेम तत्र परमे व्योमन पश्येम तदुदितों सूर्यस्य ।।
                                                             अथर्ववेद:-7/5/3

व्याख्या:- जो मनुष्य परमात्मा के नित्य उपकारी गुणोंं को अपने पूर्ण विश्वास औैर पुरुषार्थ से ग्रहण करते है, वो पुरुष आनंद का उपभोग करते हुए परमात्मा का दर्शन करते हैंै। वे अविद्या को नष्ट करके व ज्ञान प्राप्त करके उसी प्रकार सर्वत्र विचरण करते है जैसे सूर्य के निकलने पर अंधकार नष्ट हो जाता है और सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है।

 विराड् वा इदमग्र आसीत् तत्या जाताया ।
सर्वमबिभेदियमे वेेदं भविष्यतीति ।।
                                                           अथर्ववेद:-8/10/1

व्याख्या:- सृष्टि से पहले एक विराट शक्ति थी । उसे ही ईश्वरीय शक्ति कहते हंै। उसी से सृष्टि का प्रारंभ माना जाता है। उसी ने प्रकट होकर प्रत्येक जीवन में अपने को स्थित किया। उस विराट परमात्मा को जानकर ही मनुष्य इस संसार में समस्त कार्यो में निपुण होता है। 

Thursday, December 1, 2016

वेद सार - 81


 नैनं प्राप्नोति शपथो न कृत्या नाभि शोचनम्।
    नैनं विष्कन्धमश्नुते यस्तवा बिभत्र्याअंजन ।।
अथर्ववेद:-4/9/5

व्याख्या:- जो मनुष्य शुद्ध अन्त:करण से परमात्मा को अपनी आत्मा में स्थिर रखता है उसको आत्मिक और आध्यात्मिक शांति प्राप्त होती है तथा उसके आधिभौतिक तथा आधिदैविक कष्टों का विनाश हो जाता है।

 ईष्र्याया ध्राजि प्रथमां प्रथमस्या उतापराम्।
   अग्निं हृदय्यंश्शोकं तं ते निर्वापयामसि ।।
अथर्ववेद:-6/11/1
व्याख्या:--मनुष्य दूसरों की वृद्धि देखकर कभी ईष्र्या न करे । दूसरों की उन्नति अथवा सूख को अपना ही उन्नति और सूख माने । 

Wednesday, November 30, 2016

वेद सार - 80


 श्यामा सरूपं करणी पृथिव्या अध्युद्भृृता । 
    इदमूषु प्र साधय पुना रूपाणि कल्पयं ।। 
                                                   अथर्ववेद:-1/24/4

व्याख्या:- जैसे उत्तम वैद्य ओषधों से रोग को दूर कर रोगी को सभी प्रकार से स्वस्थ करके उसे सुख पहुंचाता है, उसी प्रकार दूरदर्शी पुरुष सभी विघ्नोंं को हटाकर कार्य सिद्धि करके आनंद भोगता है।

 यथा भूूतं च भव्यं च न बिभीतो न रिष्पत: । 
एवा में प्राण मा बिभे: ।। 
                                                     अथर्ववेद:-2/14/6

व्याख्या:- समर्थ और सत्य पथ पर चलने वाला व्यक्ति न अतीत में और न भविष्य में भयभीत होता है। वह सदैव विजयी होता है। भूत और भविष्य का विचार करके जो कर्म करते हैं, वे सदैव सुखी रहते हैं। 

Monday, November 28, 2016

अथर्ववेद सार

यस्ते गन्ध: पृथिवी संबभुव यं विम्रत्योषधयो: यमाप: । 
य गन्धर्वा अप्सरश्च भेजिरे तेन मा सुरभिं कृणु मानो द्विक्षत कश्चन।।      

अर्थात, पृथिवी पर स्थित सुगंधित औषधियों और वनस्पतियों के रूप में जो गंध उत्पन्न होती है और जिसे गंधर्व और अप्सराएं धारण करती हैं। हे पृथिवी तू उस गंध से हमें युक्त कर। हमसे ईष्र्या करने वाला कोई न हो। सभी हमारे प्रति मित्र भाव रखे। (अथर्ववेद)

सुधि पाठकों द्वारा विश्व के लगभग सभी देशों में मेरे ब्लाग को लाइक करने व इसमें उधृत साम्रगी को पढऩे की ललक ने मेरी उत्साह को भी काफी बढ़ाया है, खास कर वेदसार को लेकर। अभी तक मैं आपलोगों के समक्ष ऋृगवेद और यजुर्वेद की कुछ महत्वपूर्ण ऋृचाओं को बड़े ही सरल भाव में प्रस्तुत किया। यही कारण है कि उसे आपलोगें ने उसे हाथों- हाथ लिया। आज से मै आपलोगों के समक्ष  अथर्ववेद की ऋचाओं को प्रस्तुत करूंगा।  इसकी ऋचाएं स्वयं सिद्ध है जिसकी आराधना कर मनुष्य अभिष्ट की प्राप्ति कर सकता है। वैदिक साहित्य में अथर्ववेद को ब्रह्मवेद और अथर्वाड्गिरस नाम से भी जाना जाता है। अथर्वा और अंगिरस नाम के दो ऋषियों में ही सर्वप्रथम अग्नि को प्रकट किया था। अग्नि की उपासना यज्ञ द्वारा की जाती है। अथर्वा ऋषि द्वारा जो ऋचाएं प्रकट की गई हैं वे अध्यात्मपरक, सुखकारक, आत्मा का उत्थान करने वाली तथा मंगल कारक स्थितियां प्रदान करने वाली है। ये सृजनात्मक ऋचाएं हंै। वहीं आंगिरस द्वारा जो ऋचाएं प्रस्तुत की गई हंै वो अभिचार कर्म को प्रकट करनेवाली शत्रुनाशक, जादू - टोना, मारण, वशीकरण आदि को प्रदान करने वाली हैं। ये संहारात्मक ऋचाएं हैं। अथर्ववेद संहिता बीस कांडो में विभक्त है जिसमें 726 सुक्त हैं। अथर्ववेद के संपूर्ण मंत्रो को शांति, पुष्टि और अभिचार इन तीन भागो में विभक्त किया जा सकता है। इस वेद में 33 देवताओं का वर्णन किया गया है। ये सभी देवता तंत्र शक्ति के जनक हैं। इसी वेद में पहली बार मातृभूमि की कल्पना की गई है। 

Wednesday, November 9, 2016

वेद सार - 79

भद्रं कर्णेभि: शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षाभिर्यजत्रा।
 स्थिरैरड्गैस्तुष्टुवा œसस्तनूमिव्र्यशेमहि देवाहितं यदायु : ।।

                                                                         यजुर्वेद:-25/11
भावार्थ :-
भद्रम - कल्याण को ही
कर्णेभि: - कानों से
श्रृणुयाम- हमलोग सुनें
देवा:- हे देवेश्वर
पश्येम - हम सदा देखें
अक्षमि - आंखों से
यजत्रा: - हे यजनीयश्वर
स्थिरै - दृढ़
अंड्गैै- अंग
उपांड्ग- श्रोत्रादि इन्द्रिय तथा सेनादि उपांग से
तुष्टुवांस:- आपकी स्तुति और आपकी आज्ञा का अनुष्ठान सदा करें
देवाहितम् - इन्द्रिय और विद्वानों के हितकारक
यद - जो
आयु - आयु को।।

व्याख्या :- हे देवेश्वर। हमलोग कानों से सदैव भद्र कल्याण को ही सुने, अकल्याण की बात हम कभी न सुने। हे यजनीयेश्वर । हे यज्ञक त्र्तारो। हम आंखों से कल्याण(मंगलसुख) को ही सदा देखें।
हे जगदीश्वर। हमारे सब अंग उपांग सदा स्थिर रहें जिनसे हमलोग स्थिरता से आपकी स्तुति और आपकी आज्ञा का अनुष्ठान सदा करें तथा हमलोग आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और विद्वानों के हितकारक आयु को विविध सुखपूर्वक प्राप्त हों अर्थात सदा सुख में ही रहें ।

Wednesday, November 2, 2016

वेद सार- 78

प्र तद्वोचेदमृत नु विद्वान गन्धर्वो धाम विभृतं गुहा सत।
त्रीणिं पदानि निहिता गुहास्य यस्तानि वेद स पितु: पिताऽसत् ।
                                                                                    यजुर्वेद -32/9


भावार्थ :-
 तद् - उस आपका
प्र वोर्चत् - उपदेश तथा धारण करना जानता है
अमृतम् - अमृत
नु - निश्चय से
विद्वान - विद्वान
गन्धर्व- सर्वगत ब्रह्म को धारण करने वाला
धाम - मुक्तों का धाम
विभृतम्- सबका धारण और पोषण करने वाला
गुहा - सबकी बुद्धि का साक्षी
सत- ब्रह्म ह
त्रीणि - तीन
पदानि - पद है, जगत की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय करने के सामथ्र्य
निहिता - विद्यमान
अस्य - परमात्मा के
य:- जो
तानि - इनको
वेद - जानता है
स: -वह
पितु: - पिता का भी / विद्वानों में भी ।

व्याख्या:- हे वेदादिशास्त्र और विद्वानों के प्रतिपादन करने योग्य जो अमृत, मुक्तों का धाम, सर्वगत, सब का धारण और पोषण करने वाला, सब की बुद्धियों का साक्षी ब्रह्मा है वह आप का उपदेश तथा धारण जो विद्वान जानता है वह गन्धर्व कहलाता है। परमात्मा के तीन पद हैं -जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने के सामथ्र्य, तथा ईश्वर को जो स्वहृदय में जानता है वह पिता का भी पिता है अर्थात विद्वानों में भी विद्वान है।

Thursday, October 27, 2016

वर्ष 2016 के धनतेरस पर राशि के अनुसार किस वस्‍तु की करें खरीदारी

मेष राशि
सूर्य की पूर्ण दृष्टि से इस राशि वालों को लोहे एवं उससे निर्मित वस्तुओं को खरीदने से बचना चाहिए। सोना, चांदी, बर्तन, गहने, हीरा, वस्त्र खरीदना शुभ होगा। चमड़ा, केमिकल आदि भी नहीं खरीदें।

वृषभ राशि
शनि की दृष्टि से सोना, चांदी, पीतल, कांसा, हीरा, कम्प्यूटर, बर्तन आदि की खरीदारी शुभ होगा। फर्टिलाइजर्स, वाहन, तेल, चमड़े एवं लकड़ी आदि से बनी वस्तुओं को खरीदने से बचें।

मिथुन राशि
मंगल की दृष्टि इस राशि पर होने से जमीन, मकान, प्लॉट आदि के सौदे के लिए लाभकारी है। पुखराज सोना, चांदी आदि खरीद सकते हैं। किसी को कर्ज न दें।

कर्क राशि
सफेद वस्तु, चांदी, इलेक्ट्रॉनिक सामान खरीदना अच्छा रहेगा। निवेश फायदेमंद होगा। नए वाहन की खरीदी भी की जा सकती है। कपड़े, बर्तन, लकड़ी का सामान भी खरीद सकते हैं।

सिंह राशि
शनि की ढय्या होने के कारण अपने नाम के अलावा परिवार के किसी अन्य सदस्य के नाम पर खरीदारी करें तो बेहतर होगा। बच्चों को उपहार देने के लिए किसी वस्तु का खरीदना उचित होगा। सोना खरीदने से बचें। शेयर में निवेश नही करें। लोहे से बनी चीजें न खरीदें।

कन्या राशि
इस राशि में गुरु-चंद्रमा होने से गजकेसरी योग बन रहा है। इस दिन आप हीरा, सोना, जमीन आदि खरीद सकते हैं। चांदी, इलेक्ट्रॉनिक सामान, वाहन, फर्नीचर आदि की खरीदारी शुभ रहेगा।

तुला राशि
इस राशि वालों के लिए निवेश के लिए दिन अच्छा है। सोना, तांबा व कांसे से बनी चीजें खरीद सकते हैं।  लोहे की चीजें छोड़कर अन्य कोई भी वस्तु खरीद सकते हैं। इस दिन आप वाहन भी खरीद सकते हैं।

वृश्चिक राशि
इस राशि पर शनि की साढ़ेसाती का प्रभाव है। इसलिए अपने नाम से खरीदी करने से बचें। परिवार के किसी अन्य सदस्य के नाम पर खरीदारी कर सकते हैं। लोहे की वस्तुं व सोना न खरीदें। चांदी, बर्तन, पीतल, वस्त्र, खरीद सकते हैं।


धनु राशि
इस राशि वाले को जमीन-जायदाद से लाभ मिलने का योग बन रहा है। कीमती धातुओं से भी लाभ होगा। सोना, हीरा,कीमती पत्थर, पीले कपड़े, दवाई, सोना, गेहूं आदि खरीद सकते हैं।

मकर राशि
वस्त्र एवं सोना विशेष फायदा देने वाला होगा। सजावटी सामान, वाहन, किताबें, किमती नग आदि खरीद सकते हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स वस्तुएं न खरीदें व प्रॉपटी में निवेश न करें।

कुंंभ राशि
इस राशि वालों के लिए निवेश का समय अच्छा है। स्थाई संपत्ति भी खरीद सकते हैं। किताबें, वाहन, इलेक्ट्रॉनिक्स वस्तुएं, लकड़ी का समान, फर्नीचर एवं सजाने के समान खरीदने में ज्यादा रुचि होगी। सोना व कीमती पत्थर न खरीदें।

मीन राशि
स्थाई संपत्ति खरीदने के लिए दिन अच्छा है। सोने, चांदी, कीमती नग आदि खरीदने का अच्छा अवसर है। वस्त्र में लाभ होगा। शेयर न खरीदें व किसी को पैसा उधार न दें।

Tuesday, October 25, 2016

भगवान धनवन्तरी की पूजा का पर्व धनतेरस

धन तेरस को धन त्रयोदशी भी कहते हैं। जिस प्रकार देवीलक्ष्मी सागर मंथन से उत्पन्न हुई थीं, उसी प्रकार भगवान धनवन्तरी भी अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। देवी लक्ष्मी हालांकि धन देवी हैं, परन्तु उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए हमको स्वस्थ्य और लम्बी आयु भी चाहिए। यही कारण है कि दीपावली के दो दिन पहले धनतेरस का पर्व धन वैभव और आरोग्य प्राप्ति के दृष्टिकोण से अति उत्तम पर्व माना जाता है। यह भी मान्यता है कि इस दिन बर्तनो की खरीदी सम्पन्नता को और अधिक पुष्टता प्रदान करती है।
गरूड पुराण के अनुसार कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन ही भगवान धन्वन्तरी का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को भगवान धन्वन्तरी के नाम पर धनतेरस कहते हैं । धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथों में अमृत से भरा कलश था। चूंकि कलश लेकर भगवान धन्वन्तरी प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है।

 भगवान विष्णु के अवतार धनवन्तरी को आयुर्वेद विशेषज्ञ होने से देवो के वैद्य के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।  ये चिकित्सा के देवता माने जाते हैं। इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। धनतेरस के दिन दीप जला कर भगवान धन्वन्तरि की पूजा करें और उनसे स्वास्थय एवम सेहतमंद बनाये रखने के लिए प्रार्थना करें। धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है।
एक मान्यता के अनुसार धनतेरस के दिन मृत्यु के भय और अकाल मृत्यु को परिवार से दूर रखने यम अथवा यमराज की पूजा का प्रावधान है। इस दिन प्रत्येक हिन्दू धर्मावलम्बी अपने घर के द्वार पर तेरह दीपक जलाकर भगवान धनवंतरी से यही प्रार्थना करता है कि उसका परिवार सभी व्याधियों से मुक्त रहे और धन-धान्य से परिपूर्ण हो । धनतेरस के दिन घर के दक्षिण दिशा में दीप जलाने की शास्त्रोक्त परम्परा भी बतायी जाती है।
औषधियो के प्रभाव और चिकित्सको के ज्ञान वृद्धि के उद्देश्य से भी धनतेरस पर्व उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। एक ऐसे कथानक में जानकारी भी मिलती है, कि यमगणों के विचारों को जानने के लिए यमराज ने एक बार उनसे पूछा कि प्राणियों के प्राण हरते समय तुम्हें दु:ख होता है या नहीं । यम के भय से यमगणों ने कुछ भी कहने से परहेज किया। किन्तु यम द्वारा भय समाप्त करने पर उन्होंने कहा कि अनेक बार अकाल मृत्यु पर उनका हृदय दुखित हो उठता है। तब यमराज ने रहस्य प्रकट करते हुए कहा कि धनतेरस के दिन जो प्राणी मेरी पूजा कर घर के दक्षिण दिशा में दीपो की रोशनी करेगा उसे अकाल मृत्यु से सर्वथा भय मुक्ति प्राप्त होगी ।
 आयुर्वेद के संबंध में सृष्टि रचयिता बह्मा जी ने स्वयं एक लाख श्लोक सहित आयुर्वेद महत्व का प्रकाशन किया। जिसे इन्द्र के मुख से स्वयं धनवंतरी जी ने सुना। उसी श्लोक में से एक इस प्रकार है -
विद्याताथर्य सर्वस्वमायुर्वेद प्रकाशयन
स्वनाम्ना संहितां चके लक्ष श्लोकमयीमृजुम ॥


भगवान धनवन्तरी की साधना के लिए निम्न मंत्र का जाप उत्तम है।
ऊँ धन्वतरये नम:।

इस मंत्र के अलावा भी भगवान धनवन्तरी को प्रसन्न करने वंदना इस प्रकार की जा सकती है -

ऊँ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धनवन्तराये
अमृत कलश हस्ताय सर्वभय विनाशाय सर्व रोग निवारणाय ।
त्रिलोकनाथाय - त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णु स्वरूप,
श्री धनवन्तरी स्वरूप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नम:॥

Saturday, October 22, 2016

वेद सार- 77

आवदंस्त्वं शकुने भद्रमा वद तूष्णीमासीन:  सुमति चिकिद्धि न:। 
यदुत्पतन् वदसि कर्करिर्यथा बृहद्वदेम विदर्थे सुवीरा: ।।
                                                                              ऋग्वेद:- 2/8/12/3


भावार्थ :-
 आवदन - निरंतर उपदेश करते हुए
 त्वम्- आप
शकुने- हे जगदीश्वर
भद्रम- मोक्ष सुख का
आवद- निरंतर उपदेश कीजिए
तूष्णीम् - मौन से ही
आसीन:- हमारे हदय मेंं सदा स्थिर होकर
सुमतिम् - सर्वोतम ज्ञान
चिकिद्धि - अपने रहने के लिए घर ही बनाओ
न: -हमको
यद - जो
उत्पतन् - उत्तम व्यवहार में पहुंचाए हुए
वदसि - उपदेश है
कर्करि: - कर्तव्य,कर्म,धर्म को ही पुरुषार्थ से करो
यथा- जिस प्रकार
वृहद् - सबसे बड़े परब्रह्म की  वदेम - स्तुति , उपदेश , प्रार्थना , उपासना, आदि सर्वदा कहें , सुनें विदर्थ- विज्ञानादि यज्ञों में
 सुवीरा:- अत्यंत शूरवीर होके।

व्याख्या:- हे जगदीश्वर । आप समस्त कल्याण का भी कल्याण कीजिए। हे अन्तर्यामिन हमारे हदय में सदा स्थिर हो मौन से ही सर्वोतम ज्ञान दो। कृपा से हमको अपने रहने के लिए घर ही बनाओ और आपकी परमविद्या को हम प्राप्त हों।
उत्तम व्यवहार में पहुंचाते हुए आप का जिस प्रकार से कर्तव्य कर्म, धर्म को ही अत्यंत पुरुषार्थ से करो, अकत्र्तव्य दुष्ट काम मत करो, ऐसा उपदेश है कि यथायोग्य उद्धम को कभी कोई मत छोड़ो। वैसे विज्ञानादि यज्ञ वा घर्मयुक्त युद्धों में अत्यंत शूरवीर हो के आप जो परब्रह्म उन आप की स्तुति, आपका उपदेश, आप की प्रार्थना और उपासना तथा आपका यह बड़ा अखंड साम्राज्य और स मनुष्यों का हित सर्वदा कहें, सुनें और आप के अनुग्रह से परमानांद को भोगे।

Friday, October 21, 2016

वेद सार -76


उदगातेव शकुने साम गायसि ब्रह्मपुत्र इव सवनेषु शंससि ।
वृषेव वाजी शिशुमतीरपीत्या सर्वतो न: शकुने भद्रमा वद विश्वतो न: शकुने पुण्यमा वद ।।

ऋग्वेद:-2/8/12/2

भावार्थ :-
 उदगाता - यज्ञ मे सामगान करने वाला महापंडित
इव- जैसे
शकुने- हे सर्वशक्तिमन्नीश्वर
साम- सामगान को
गायसि - गाते ही हो
ब्रह्मपुत्र - वेदों के वेत्ता
सवनेषु - विज्ञान सब पदार्थो की शंससि - प्रशंसा करता है
वृषा - उत्तम गुण और उत्तम पदार्थो की वृष्टि करने वाले
वाजी - सर्वशक्ति का सेवन और अन्नदि पदार्थो के देने वाले
शिशुमती: - उत्तम शिशु
अपीत्य - प्राप्त हो के
सर्वत: - सब ठिकानों से
न: - हमारे लिए
भद्रम- कल्याण को
आवद - अच्छे प्रकार कहो
पुण्यम - धर्मात्मा के कर्म करने को

व्याख्या:- हे सर्वशक्तिमन्नीश्वर । आप साम गान को गाते ही हो, वैसे ही हमारे हदय में सब विद्या का प्रकाशित गान करो। जैसे यज्ञ में महापंडित सामगान करता है वैसे आप भी हमलोगोंं के बीच में सामादि विद्या का प्रकाश कीजिए।
आप कृपा से पदार्थ विद्याओंं की प्रशंसा करते हो वैसे हमको भी यथावत प्रशंसित करो। जैसे वेदों का वेत्ता विज्ञान से सब पदार्थो की प्रशंसा करता है वैसे आप भी हम पर कृपा कीजिए।
 आप सर्वशक्ति का सेवन करने और अन्नदि पदार्थांे के देनेवाले तथा महाबलवान और बेगवान होने से वाजी हो, जैसे कि वृषभ के समान आप उत्तम गुण और उत्तम पदार्थो की वृष्टि करने वाले हो वैसे हम पर उनकी वृष्टि करो।
हमलोग आपकी कृपा से उत्तम शिशु को प्राप्त होके आप को ही भेजें।
हे शकुने। सब ठिकानों से हमारे लिए कल्याण को अच्छे प्रकार कहो। हे सबको सुख देने वाले ईश्वर । सब जगत के लिये धर्मात्मा के कर्म करने को उपदेश कर जिससे कोई मनुष्य अधर्म करने की इच्छा भी न करे और सब ठिकानों में सत्य धर्म की प्रवृति हो ।

Monday, October 10, 2016

वेद सार -75

मा नस्तोके तनये मा आयौ मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषा:।
वीरान्मा नो रुद्र भामितो वधीर्हविष्मन्त: सदभित्वा हवामहे।।

ऋग्वेद:-1/8/6/8

भावार्थ:-
मा-मत
न: - हमारे
तोके-कनिष्ठ पुत्र में
तनये-मध्यम और ज्येष्ठ पुत्रों में
आर्यो- उमर में
गोषु- गाय आदि पशुओं
रीरिष: -रोगयुक्त होके प्रवृत हों
वीरान-सेना के शूरों में
रुद्र-हे भगवान रुद्र
भामित: -क्रोधित
वधी: -नष्ट करो
हविष्मन्त: -यज्ञ करने वाले
सदम्-सदा
इत-एव
त्वा-आपको
हवामहे-आह्वान करते हैं।

व्याख्या:-हे रुद्र आप हमारे कनिष्ठ,मध्यम और ज्येष्ठ पुत्र,उमर,गाय आदि पशुओं,हमारी सेना के शूरों में,यज्ञ के करने वाले पर कभी क्रोधित और रोषयुक्त होकर प्रवृत मत हो। हमलोग आप को सदैव आह्वान करते हैं।
हे भगवान रुद्र आपसे यही प्रार्थना है कि हमारी और हमारे पुत्रों,धनैश्वर्यादि की रक्षा करो। 

Saturday, October 8, 2016

वेद सार-74

मा नो महान्तमुत मा नो अर्भक मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्।
मा नो वधी: पितरं मोत मातरं मा न: प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिष:।।

ऋग्वेद:-1/8/6/7

भावार्थ:-
मा- मत
न: - हमारे
महान्तम-ज्ञानवृद्ध ,वयोवृद्ध पिता को
उत-और
अर्भकम्-छोटे बालक को
उक्षन्तम्-वीर्य सेचन समर्थ जवान को
उक्षितम्-जो गर्भ में वीर्य सेचन किया है उसको
वधी: - नष्ट करो
पितरम्- पिता को
मातरम्- माता को
प्रिया: - प्रिय
तन्व: - शरीर को
रीरिष: -हिंसा मत करो

व्याख्या:-हे दुष्ट विनाशकेश्वर आप हम पर कृपा करो। हमारे ज्ञानवृद्ध वयोवृद्ध पिता को आप नष्ट मत करो तथा छोटे बालक और जवान तथा जो गर्भ में वीर्य को सेचन किया है उसको विनष्ट मत करो। हमारे पिता,माता और प्रिय शरीर का हिंसन मत करो।


Friday, October 7, 2016

कलश स्थापन


किसी भी पूजन या शुभ कार्य में मंगल कामना के निहितार्थ कलश की बड़ी महिमा बताई गई है। कलश पूजन सुख व समृद्धि को बढ़ाता है। कलश स्थापन में सभी प्रमुख देवी देवताओं का आह्वान किया जाता है। कलश स्थापन की पूरी अनुष्ठानिक प्रक्रिया काफी महत्वपूर्ण और मायने रखती है। तदुपरांत कलश में डाली जाने वाली सामग्री भी इसे अधिक पवित्र बना देती हैं।

कलश में डाली जाने वाली वस्तुएं और उनसे फायदे:-

कलश:-देव पूजन में लिया जाने वाला कलश तांबे या पीतल धातु से बना हुआ होना शुभ कहा गया है। मिट्टी का कलश भी श्रेष्ठ कहा गया है।

पंच पल्लव:-पीपल, आम, गूलर, जामुन, बड़ के पत्ते पांचों पंचपल्लव कहे जाते हैं। कलश के मुख को पंचपल्लव से सजाया जाता है। जिसके पीछे कारण है ये पत्ते वंश को बढ़ाते हैं।

पंचरत्न:-सोना, चांदी, पन्ना, मूंगा और मोती ये पंचरत्न कहे गए हैं। वेदों में कहा गया है पंचपल्लवों से कलश सुशोभित होता है और पंचरत्नों से श्रीमंत बनता है।

जल:-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। जल शुद्ध तत्व है। जिसे देव पूजन कार्य में शामिल किए जाने से देवता आकर्षित होकर पूजन स्थल की ओर चले आते हैं। जल से भरे कलश पर वरुण देव आकर विराजमान होते हैं।

नारियल:-नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं। नारियल को कलश पर स्थापित करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि नारियल का मुख यजमान की ओर हो।

सोना:-ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है। यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडऩे का माध्यम भी माना जाता है।

तांबे का पैसा:-तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई तरंगे वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।

सात नदियों का पानी:-गंगा, गोदावरी, यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरी और नर्मदा नदी का पानी पूजा के कलश में डाला जाता है। अगर सात नदियों के जल की व्यवस्था नहीं हो तो केवल गंगा का जल का ही उपयोग करें। यदि वह भी उपलब्ध नहीं हो तो सरलता से जो भी जल प्राप्त हो उसे ही सात नदियों का जल मानकर कलश में भरें।

सुपारी:-यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देती हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है।

पान:-पान की बेल को नागबेल भी कहते हैं। नागबेल को भू लोक और ब्रह्मलोक को जोडऩे वाली कड़ी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही इसे सात्विक भी कहा गया है।

दूर्वा:-दूर्वा हरियाली का प्रतीक है। कलश में दूर्वा को डाला जाना जीवन में हरियाली यानी खुशियां बढ़ाता है।

कलश पूजन व स्थापना की विधि
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सबसे पहले पूूजन किए जाने वाले स्थान को साफ कर लें। वहां एक लगड़ी का पाटा रखें जिस पर हल्दी और कुमकुम से कोई शुभ मांगलिक चिह्न बनाएं। इस पर लाल रंग का कपड़ा बिछाएं। अब सबसे पहले श्रीगणेश की मूर्ति स्थापित करें। देव स्थापना करें। अब कलश स्थापित करें। दीपक स्थापित करें। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कलश देव मूर्ति के दाहिनी ओर स्थापित किया गया हो। कलश की स्थापना चावल या अन्न की ढेरी पर करें।

कलश पूजन के समय इस मंत्र का जप किया जाना चाहिए:-
कलशस्य मुखे विष्णु कंठे रुद्र समाश्रिता: मूलेतस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मात्र गणा स्मृता:।
कुक्षौतु सागरा सर्वे सप्तद्विपा वसुंधरा,
ऋग्वेदो यजुर्वेदो सामगानां अथर्वणा:
अङेश्च सहितासर्वे कलशन्तु समाश्रिता:।

अर्थात कलश के मुख में संसार को चलाने वाले श्री विष्णु, कलश के कंठ यानी गले में संसार को उत्पन्न करने वाले श्री शिव और कलश के मूल यानी की जड़ में संसार की रचना करने वाले श्री ब्रह्मा ये तीनों शक्ति इस ब्रह्मांड रूपी कलश में उपस्थित हैं। कलश के बीच वाले भाग में पूजनीय मातृकाएं उपस्थित हैं। समुद्र, सातों द्वीप, वसुंधरा यानी धरती, ब्रह्माण्ड के संविधान कहे जाने वाले चारों वेद इस कलश में स्थान लिए हैं। इन सभी को मेरा नमस्कार हैं।

 इसके बाद उक्त मंत्रों से वरुण देव को नमस्कार करें:-
ऊँ अपां पतये वरुणाय नम:।
इन मंत्रों के साथ कलश पूजन करें। कलश पर गंध, पुष्प्प और चावल अर्पित करें।

Thursday, October 6, 2016

संक्षिप्‍त पूजा विधि

सनातन धर्म की परंपरा में पूजा विधि
का बहुत महत्व है।  हर इंसान जिंदगी की भाग दौड़ से पस्त होकर या फिर जिंदगी में कुछ विशेष अभिलाषा को लेकर कुछ ही क्षण के लिए सही पूजा-पाठ में जरूर व्यतीत करता है। वैदिक अवलोकन से यह बात साफ है कि मनुष्य की तीन क्षुधाएं होती हैं-
1.दैहिक 2.मानसिक 3.आर्थिक
इसके लिए आवश्यक है कि हम प्रात: काल उठते ही सर्वप्रथम दोनों हथेली को रगड़ते हुए बोलें-कराग्रे वसति लक्ष्मी,कर मध्ये च सरस्वती,कर मूले स्थितो ब्रह्मा,प्रात: हस्त दर्शनम्। फिर भूमि को प्रणाम करें।
भूमि पूजन मंत्र--ऊँ पृथ्वि। त्वया धृता लोका देवि। त्वं विष्णुनाधृता। त्वं च धारय मां देवि। पवित्रां कुरु चारूनम्।
वहीं जब पूजा करनी हो तो स्नान के पश्चात शांत चित्त होकर बैठ जाएं।  मन को एकाग्र करने के लिए 5 बार गायत्री मन्त्र का उच्चारण करें। फिर जल से आचमन करें। उसके उपरांत जल, अक्षत (चावल) और पुष्प लेकर संकल्प लें।  किसी भी पूजा में पृथ्वी, गणेश, गौरी, नवग्रह, वरुण, स्थान देव, कुलदेव और देवी तथा पितृ देव का आह्वाहन और ध्यान अवश्य करें। फिर प्रतीक स्वरूप सभी आह्वाहित देवी /देवताओं को स्नान हेतु जल, दूध, शहद, दही इत्यादि अर्पित करें। फिर वस्त्र,तिलक, उसके उपरांत फूल-माला, फिर नैवेद्य, पान-सुपारी तथा अंत में धूप और दीप दिखाएं।
  सामान्य पूजा करने के बाद यथा संभव सभी देवी-देवताओं से सम्बंधित मन्त्रों तथा स्तुतियों का जप और पाठ करें। फिर प्रधान देवी /देवता के लिए ऊपर लिखे विधि से ही पूजन करें। प्रधान देवी /देवता से सम्बंधित कथा, पाठ या मन्त्र जप करें।   तदोपरांत हवन करें। हवन के अंत में हवन में दी गई आहुति के कुल मंत्रों का दशांश तर्पण व उसका दशांश मार्जन करें। 
अंत में आरती करके, प्रदक्षिणा, क्षमा प्रार्थना तथा उन्हें पुन: अपने स्थान पर वापस जाने और जब भी समय हो उन्हें पुन: आने का आग्रह करें।

पूजा के दौरान ध्यान देने योग्य कुछ महत्वपूर्ण बातें:-
बैठने का आसन कुशा या ऊन का होना चाहिए। कभी भी भूमि पर बैठकर पूजा नहीं करनी चाहिए।
 शिव की पूजा में कभी भी तुलसी ना प्रयोग करें।
 कलश सदैव मुख्य देवी/देवता के सम्मुख स्थापित करें।
 प्रधान दीपक को मुख्य देवी /देवता के दाहिनी ओर स्थापित करें तथा उसे  पूजा के दौरान उठायें नहीं। आरती दिखाने के लिए दूसरे दीपक का प्रयोग करें और देवी /देवताओं को दीप दिखाने के लिए प्रधान दीपक पर अक्षत (चावल) छोड़ दें।
  धूप या अगरबत्ती सदैव प्रधान देवी /देवता के बायीं ओर रखें।
  पूजा के दौरान चित्त में कोई भी गलत धारणा लाने से बचें।
   पूजा में प्रयोग होने वाली वस्तुएं शुद्ध और अच्छी हों इसका ध्यान रखें।
    दान सदैव अपने सामर्थ्‍य के अनुसार तथा श्रद्धा पूर्वक करें। हमेशा यह ध्यान दें की जो भी वस्तु आप दान में दे रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो।
 दान सदैव योग्य व्यक्तियों को तथा जरुरत मंद लोगों को ही अपने हाथों से देंं।

वेद सार-73

औ शं नो मित्र: शं वरूण: शं नो भवत्वय्र्थमा ।
शं न इन्द्रो बृहस्पति: शं नो विष्णुरूरूक्रम ।।

                                                                        ऋग्वेद:-1/6/18/9







भावार्थ : -
शम् - सत्यसुखदायक
न: - हमको
मित्र : - मंत्रल प्रदेश्वर
वरूण - सर्वोत्कृष्ठ / स्वीकरणीय
भक्तु - हो
अर्यमा- पक्षपात रहित धर्म न्यायकारी  / यमराज
इन्द्र - परमैश्वर्यवान इन्दे्रश्वर
बृहस्पति: - महाविद्यावाचोधिपते वृहस्पति - सबसे बड़े सुख देने वाला विष्णु- सर्वव्यापक
उरुक्रम:- अनंतपराक्रमेश्वर।

व्याख्या:- हे मंगलप्रदेश्वर। आप सर्वथा सब के निश्चित मित्र हो । हमको सत्यसुखदायक सर्वदा हो। हे सर्वोत्कृष्ट, स्वीकरणीय वरेश्वर आप सब से परमोत्तम हो। इसलिए आप हमको परमसुखदायक हो। हे पक्षपात रहित धम्र्मन्यायकारिन आप यमराज हो इसलिए हमारे लिए न्याययुक्त सुख देने वाले आप ही हो। आप हमको परमश्वर्य युक्त शीघ्र स्थिर सुख दीजिए।
हे महाविद्यावाचोधिपते बृहस्पते परमात्मन। हमलोगों को सबसे बड़े सुख को देने वाले आप ही हो। हे सर्वव्यापक अनंतपराक्रमेश्वर विष्णो आप हमको अनंत सुख दो। जो कुछ मांगेंगे आप से ही मांगेंगे। सब सुखों को देने वाले आप के बिना कोई नहीं है। सर्वथा हमलोगों को आप का ही आशय है, अन्य किसी का नहीं। क्योंकि सर्वशक्तिमान न्यायकारी दयामय सबसे बड़े पिता को छोड़ के नीचे का आश्रय हम कभी न करेंगे। आप का तो स्वभाव ही है कि आंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते सो आप सदैव हमको सुख देंगे, यह हमको दृढ़ निश्चय है।

Sunday, October 2, 2016

हवन विधि

सनातन धर्म में किसी भी धार्मिक कार्य के बाद हवन करना महत्‍वपूर्ण माना जाता है। हवन अगर किसी देवी से संबंधित हो तो वेदी त्रिभुजाकार और देवतओं से संबंधित हो तो वेदी वर्गाकार बनाना चाहिए।

जल से आचमन करने के मंत्र

 अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।१।
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा ।२।
ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयि काश्री: श्रयतां स्वाहा ।३।

जल से अंग स्पर्श करने के मंत्र
इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि यज्ञ जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके । बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें ।
इस मंत्र से मुख का स्पर्श करें
ॐ वाङ्म आस्येऽस्तु ॥
इस मंत्र से नासिका के दोनों भाग
ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु ॥
इससे दोनों आँखें
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु ॥
इससे दोनों कान
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ॥
इससे दोनों भुजाऐं
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु ॥
इससे दोनों जंघाएं
ॐ ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु ॥
इससे सारे शरीर पर जल का मार्जन करें
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा में सह सन्तु ॥
मंत्रार्थ – हे रक्षक परमेश्वर! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे मुख में वाक् इन्द्रिय पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्य सहित विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों नासिका भागों में प्राणशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों आखों में दृष्टिशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों कानों में सुनने की शक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरी भुजाओं में पूर्ण आयुपर्यन्त बल विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरी जंघाओं में बल-पराक्रम सहित सामर्थ्य पूर्ण आयुपर्यन्त विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरा शरीर और अंग-प्रत्यंग रोग एवं दोष रहित बने रहें, ये अंग-प्रत्यंग मेरे शरीर के साथ सम्यक् प्रकार संयुक्त हुए सामर्थ्य सहित विद्यमान रहें।

प्रार्थना 

ॐ विश्वानी देव सवितर्दुरितानि परासुव ।
यद भद्रं तन्न आ सुव ॥१॥
व्‍याख्‍या – हे सब सुखों के दाता ज्ञान के प्रकाशक सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूर कर दीजिए, और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं, उसको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये।

हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत् ।
स दाघार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥२॥
व्‍याख्‍या– सृष्टि के उत्पन्न होने से पूर्व और सृष्टि रचना के आरम्भ में स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाशयुक्त सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह-उपग्रह आदि पदार्थों को उत्पन्न करके अपने अन्दर धारण कर रखा है, वह परमात्मा सम्यक् रूप से वर्तमान था। वही उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का प्रसिद्ध स्वामी केवल अकेला एक ही था। उसी परमात्मा ने इस पृथ्वीलोक और द्युलोक आदि को धारण किया हुआ है, हम लोग उस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक, शुद्ध एवं प्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं। 

य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा: ।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥३॥
व्‍याख्‍या – जो परमात्मा आत्मज्ञान का दाता शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक बल का देने वाला है, जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं, जिसकी शासन, व्यवस्था, शिक्षा को सभी मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्षसुखदायक है, और जिसको न मानना अर्थात भक्ति न करना मृत्यु आदि कष्ट का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।

य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इन्द्राजा जगतो बभूव।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥४॥
व्‍याख्‍या– जो प्राणधारी चेतन और अप्राणधारी जड जगत का अपनी अनंत महिमा के कारण एक अकेला ही सर्वोपरी विराजमान राजा हुआ है, जो इस दो पैरों वाले मनुष्य आदि और चार पैरों वाले पशु आदि प्राणियों की रचना करता है और उनका सर्वोपरी स्वामी है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं ।

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च द्रढा येन स्व: स्तभितं येन नाक: ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥५॥
व्‍याख्‍या – जिस परमात्मा ने तेजोमय द्युलोक में स्थित सूर्य आदि को और पृथिवी को धारण कर रखा है, जिसने समस्त सुखों को धारण कर रखा है, जिसने मोक्ष को धारण कर रखा है, जो अंतरिक्ष में स्थित समस्त लोक-लोकान्तरों आदि का विशेष नियम से निर्माता धारणकर्ता, व्यवस्थापक एवं व्याप्तकर्ता है, हम लोग उस शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं ।

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमस्तनो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥६॥
व्‍याख्‍या – हे सब प्रजाओं के पालक स्वामी परमत्मन! आपसे भिन्न दूसरा कोई उन और इन अर्थात दूर और पास स्थित समस्त उत्पन्न हुए जड-चेतन पदार्थों को वशीभूत नहीं कर सकता, केवल आप ही इस जगत को वशीभूत रखने में समर्थ हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग अपकी योगाभ्यास, भक्ति और हव्यपदार्थों से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थ की हमारी कामना सिद्ध होवे, जिससे की हम उपासक लोग धन-ऐश्वर्यों के स्वामी होवें ।

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये घामन्नध्यैरयन्त ॥७॥
व्‍याख्‍या– वह परमात्मा हमारा भाई और सम्बन्धी के समान सहायक है, सकल जगत का उत्पादक है, वही सब कामों को पूर्ण करने वाला है। वह समस्त लोक-लोकान्तरों को, स्थान-स्थान को जानता है। यह वही परमात्मा है जिसके आश्रय में योगीजन मोक्ष को प्राप्त करते हुए, मोक्षानन्द का सेवन करते हुए तीसरे धाम अर्थात परब्रह्म परमात्मा के आश्रय से प्राप्त मोक्षानन्द में स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हैं। उसी परमात्मा की हम भक्ति करते हैं।

अग्ने नय सुपथा राय अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेँम ॥८॥
व्‍याख्‍या – हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शक, दिव्यसामर्थयुक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति कराने के लिये धर्मयुक्त, कल्याणकारी मार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं। हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिये । इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना सत्कार व नम्रतापूर्वक करते हैं।

 दीपक जलाने का मंत्र

ॐ भूर्भुव: स्व: ॥
व्‍व्‍याख्‍या – हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सब के उत्पादक, प्राणाधार सब दु:खों को दूर करने वाले सुखस्वरूप एवं सुखदाता हैं। आपकी कृपा से मेरा यह अनुष्ठान सफल होवे। अथवा हे ईश्वर आप सत,चित्त, आनन्दस्वरूप हैं। आपकी कृपा से यह यज्ञीय अग्नि पृथिवीलोक में, अन्तरिक्ष में, द्युलोक में विस्तीर्ण होकर लोकोपकारक सिद्ध होवे।

 यज्ञ कुण्ड में अग्नि स्थापित करने का मंत्र

ॐ भूर्भुव: स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा ।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे ॥
व्‍याख्‍या – हे सर्वरक्षक सबके उत्पादक और प्राणाधार दुखविनाशक सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाता परमेश्वर! आपकी कृपा से मैं महत्ता या गरिमा में द्युलोक के समान, श्रेष्ठता या विस्तार में पृथिवी लोक के समान हो जाऊं । देवयज्ञ की आधारभूमि पृथिवी! के तल पर हव्य द्रव्यों का भक्षण करने वाली यज्ञीय अग्नि को, भक्षणीय अन्न एवं धर्मानुकूल भोगों की प्राप्ति के लिए तथा भक्षण सामर्थ्य और भोग सामर्थ्य प्राप्ति के लिए यज्ञकुण्ड में स्थापित करता हूँ ।

 अग्नि प्रदीप्त करने का मंत्र

ॐ उद् बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहित्व्मिष्टापूर्ते सं सृजेथामयं च ।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ॥
व्‍याख्‍या- सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुअ यहाँ कामना करता हूँ कि हे यज्ञाग्ने ! तू भलीभांति उद्दीप्त हो, और प्रत्येक समिधा को प्रज्वलित करती हुई पर्याप्त ज्वालामयी हो जा। तू और यह यजमान इष्ट और पूर्त्त कर्मों को मिल्कर सम्पादित करें। इस अति उत्कृष्ट, भव्य और अत्युच्च यज्ञशाला में सब विद्वान और यज्ञकर्त्ता जन मिलकर बैठें।
घृत की तीन समिधायें रखने के मंत्र
इस मंत्र से प्रथम समिधा रखें।
ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्धयचास्मान् प्रजयापशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन
समेधय स्वाहा । इदमग्नेय जातवेदसे – इदं न मम ॥१॥
व्‍याख्‍या- मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुआ कामना करता हूँ कि हे सब उत्पन्न पदार्थों के प्रकाशक अग्नि! यह समिधा तेरे जीवन का हेतु है ज्वलित रहने का आधार है।उस समिधा से तू प्रदीप्त हो, सबको प्रकाशित कर और सब को यज्ञीय लाभों से लाभान्वित कर, और हमें संतान से, पशु सम्पित्त से बढ़ा।ब्रह्मतेज ( विद्या, ब्रह्मचर्य एवं अध्यात्मिक तेज से, और अन्नादि धन-ऐश्वयर् तथा भक्षण एवं भोग- सामथ्यर् से समृद्ध कर। मैं त्यागभाव से यह समिधा- हवि प्रदान करना चाहता हूँ | यह आहुति जातवेदस संज्ञक अग्नि के लिए है, यह मेरी नही है ||1||
इन दो मन्त्रों से दूसरी समिधा रखें
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथम् |
आस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा |
इदमग्नये इदन्न मम ||२||
व्‍याख्‍या- मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करते हुए वेद के आदेश का कथन करता हूँ कि हे मनुष्यो! समिधा के द्वारा यज्ञाग्नि की सेवा करो -भक्ति से यज्ञ करो।घृताहुतियों से गतिशील एवं अतिथ के समान प्रथम सत्करणीय यज्ञाग्नि को प्रबुद्ध करो, इसमें हव्यों को भलीभांति अपिर्त करो।मैं त्यागभाव से यह समिधा- हवि प्रदान करना चाहता हूँ। यह आहुति यज्ञाग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है ||२||
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन अग्नये जातवेदसे स्वाहा।
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम ||३||
व्‍याख्‍या- मैं सर्वरक्षक परमेश्वर के स्मरणपूर्वक वेद के आदेश का कथन करता हूँ कि हे मनुष्यों! अच्छी प्रकार प्रदीप्त ज्वालायुक्त जातवेदस् संज्ञक अग्नि के लिए वस्तुमात्र में व्याप्त एवं उनकी प्रकाशक अग्नि के लिए उत्कृष्ट घृत की आहुतियाँ दो . मैं त्याग भाव से समिधा की आहुति प्रदान करता हूँ यह आहुति जातवेदस् संज्ञक माध्यमिक अग्नि के लिए है यह मेरी नहीं।।३।। इस मन्त्र से तीसरी समिधा रखें।
तन्त्वा समिदि्भरङि्गरो घृतेन वर्द्धयामसि ।
बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा।।इदमग्नेऽङिगरसे इदं न मम।।४।।
व्‍याख्‍या - मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करते हुए यह कथन करता हूँ कि हे तीव्र प्रज्वलित यज्ञाग्नि! तुझे हम समिधायों से और धृताहुतियों से बढ़ाते हैं।हे पदार्थों को मिलाने और पृथक करने की महान शक्ति से सम्पन्न अग्नि ! तू बहुत अधिक प्रदीप्त हो, मैं त्यागभाव से समिधा की आहुति प्रदान करता हूँ ।यह अंगिरस संज्ञक पृथिवीस्थ अग्नि के लिए है यह मेरी नहीं है।
नीचे लिखे मन्त्र से घृत की पांच आहुति देवें
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वद्धर्स्व चेद्ध वधर्य चास्मान् प्रजयापशुभिब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन
समेधय स्वाहा।इदमग्नये जातवेदसे - इदं न मम।।१।।
व्‍याख्‍या- मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुआ कामना करता हूँ कि हे सब उत्पन्न पदार्थों के प्रकाशक अग्नि! यह धृत जो जीवन का हेतु है ज्वलित रहने का आधार है।उस धृत से तू प्रदीप्त हो और ज्वालाओं से बढ़ तथा सबको प्रकाशित कर = सब को यज्ञीय लाभों से लाभान्वित कर और हमें संतान से, पशु सम्पित्त से बढ़ा। विद्या, ब्रह्मचर्य एवं आध्यात्मिक तेज से, और अन्नादि धन ऐश्वर्य तथा भक्षण एवं भोग सामर्थ्य से समृद्ध कर। मैं त्यागभाव से यह धृत प्रदान करता हूँ ।यह आहुति जातवेदस संज्ञक अग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है| ||१||

जल - प्रसेचन के मन्त्र

इस मन्त्र से पूर्व में
ओम् अदितेऽनुमन्यस्व।।
व्‍याख्‍या- हे सर्वरक्षक अखण्ड परमेश्वर! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुमोदन कर अर्थात मेरा यह यज्ञानुष्ठान अखिण्डत रूप से सम्पन्न होता रहे।अथवा, पूर्व दिशा में, जलसिञ्चन के सदृश, मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार प्रसार निबार्ध रूप से कर सकूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।
इससे पश्चिम में
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व।।
व्‍याख्‍या- हे सर्वरक्षक यज्ञीय एवं ईश्वरीय संस्कारों के अनुकूल बुद्धि बनाने में समर्थ परमात्मन! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुकूलता से अनुमोदन कर अर्थात यह यज्ञनुष्ठान आप की कृपा से सम्पन्न होता रहे।अथवा, पश्चिम दिशा में जल सिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा से कर सकूं, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।
इससे उत्तर में
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।।
व्‍याख्‍या-हे सर्वरक्षक प्रशस्त ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञानदाता परमेश्वर! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुमोदन कर अर्थात आप द्वारा प्रदत्त उत्तम बुद्वि से मेरा यह यज्ञनुष्ठान सम्यक विधि से सम्पन्न होता रहे।अथवा, उत्तर दिशा में जलसिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय ज्ञान का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा से करता रहूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।
और - इस मन्त्र से वेदी के चारों और जल छिड़कावें।
ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।दिव्यो
गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।।
व्‍याख्‍या-- चारों दिशायों में जल सिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार कर सकूँ, इस कार्य के लिए मुझे उत्तम ज्ञान, पवित्र आचरण और मधुर-प्रशस्त वाणी में समर्थ बनाइये।

चार घी की आहुतियाँ

इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग में जलती हुई समिधा पर आहुति देवें।

ओम् अग्नये स्वाहा | इदमग्नये - इदं न मम।।

इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग में जलती हुई समिधा पर आहुति दें।
ओम् सोमाय स्वाहा | इदं सोमाय - इदं न मम।।

इन  मन्त्रों से यज्ञ कुण्ड के मध्य में दो आहुति देवें।
ओम् प्रजापतये स्वाहा | इदं प्रजापतये - इदं न मम।।

ओम् इन्द्राय स्वाहा | इदं इन्द्राय - इदं न मम।।


इन मन्त्रों से घृत के साथ साथ सामग्री आदि अन्य होम द्रव्यों की भी आहुतियां दें।
ओम् ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा।।१।।
ओम् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा।।२।।
ओम् ज्योतिः सूर्य: सुर्योज्योति स्वाहा।।३।।
ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरूषसेन्द्रव्यता जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा।।४।।


 गायत्री मन्त्र
अब तीन बार गायत्री मन्त्र से आहुति दे
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि |
धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा।।

पूर्णाहुति
इस मन्त्र से तीन बार घी से पूर्णाहुति करें
ओम् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।।
व्‍याख्‍या- हे सर्वरक्षक, परमेश्वर ! आप की कृपा से निश्चयपूर्वक मेरा आज का यह समग्र यज्ञानुष्ठान पूरा हो गया है मैं यह पूर्णाहुति प्रदान करता हूँ।
पूर्णाहुति मन्त्र को तीन बार उच्चारण करना इन भावनाओं का द्योतक है कि शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक तथा पृथिवी, अन्तिरक्ष और द्युलोक के उपकार की भावना से, एवं आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु किया गया यह यज्ञानुष्ठान पूर्ण होने के बाद सफल सिद्ध हो।इसका उद्देश्य पूर्ण हो।
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Tuesday, September 27, 2016

वेद सार-72

सा मा सत्योक्ति : परिं पातु विश्वतो द्यावा च यत्र ततनन्न हानि च ।
विश्वमन्यन्निविंशते यदेजति विश्वाहापो विश्वाहोदेति सूर्य: ।।
                                                                                      ऋग्वेद:-7/8/12/2




भावार्थ :- 
 सा - वह
मा - हमको/ हमारी
सत्योक्ति- सत्य आज्ञा
परिपातु - सर्वथा पालन और सदा पृथक रखें
विश्वत: - सब संसार से और सब दुष्ट कामों से
द्यावा - दिव्य सुख से
च - और
यत्र- जिस दिव्य दृष्टि में
ततनन् - अपने ही विस्तारे हंै
अहानि - सूर्यादिकों को दिवस आदि के होने के निमित्त
विश्वम - सब जगत
अत्यन्त - आपसे अन्य
निविश्ते - आपके सामर्थ से प्रलय में प्रवेश करता है
यद् - जिस समय यह जगत
एजति - चलित होके उत्पन्न होता है
विश्वाहप : -विश्व के हन्ताओं से रक्षा करने वाला
विश्वाहा-जो-जो विश्व का हन्ता
उदेति - आप सब जगत में उदित/
प्रकाशमान हो रहे हो
सूर्य - सूर्यवत् हमारे हदय में प्रकाशित होओ ।

व्याख्या :- हे सर्वभिरक्षकेश्वर। आप की सत्य आज्ञा जिसका हमने अनुष्ठान किया वह हमको सब संसार से सर्वथा पालन और सब दुष्ट कामों से सदा पृथक रखे ताकि कभी हमको अधर्म करने की इच्छा भी न हो और दिव्य सुख से सदा युक्त करके यथावत् हमारी रक्षा करे।
जिस दिव्य सृष्टि में सूर्यादिकों को दिवस आदि होने के निमित्त आपने ही विस्तारे हंै वहां भी हमारा सब उपद्रवों से रक्षण करो।
आप से अन्य सब जगत जिस समय आपके सामथ्र्य से प्रवेश करता है उस समय में भी आप हमारी रक्षा करें। जिस समय यह जगत आप के सामथ्र्य से चलित होके उत्पन्न होता है उस समय भी सब पीडाओं से आप हमारी रक्षा करें।
जो - जो विश्व का हन्ता उसको आप नष्ट कर दो क्योंकि आप के सामथ्र्य में सब जगत की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय होता है। आपके सामने कोई राक्षस क्या कर सकता है। क्योंकि आप सब जगत में उदित हो रहे हो। परन्तु सूरर्यवत हमारे हदय में कृपा करके प्रकाशित होओ, जिससे हमारी अविधान्धकारता सब नष्ट हो।

Saturday, September 24, 2016

वेद सार-71


मृळ नो रूद्रोत नो मयस्कृधि  क्षयद्वीराय नमसा बिधेम ते ।
यच्छं च योश्च मनुरायेजे पिता तदश्याम तव रूद्र प्रणीतिषु ।

                                                              ऋग्वेद:- 1/8/5/2



भावार्थ :-
 मृळ-सुखीकर
न: -हमको
रूद्र - हे दुष्टों को रूलाने वाले रूद्रेश्वर
उत - तथा
मयस्कृधि- अत्यन्त सुख का संपादन कर
क्षयद्वीराय- शत्रुओं के वीरों का क्षय करने वाले
नमसा- अत्यन्त नमस्कार आदि से
विधेम- परिचर्या करें
ते - आपकी
यत्- हमारी समस्त प्रजा को
शम् - सुखी कर
यो:- प्रजा के
च - रोगों का भी
मनु:- मान्यकारक
आयेजे - स्वप्रजा को संगत और अनेकविध लाडन करता है
तद - वीरों के चक्रवर्ती राज्य को
अश्याम - प्राप्त हों
तव - आपकी
रूद्र- हे रूद्र भगवन
प्रणीतिषु - उत्तम न्याययुक्त नीतियों मे

व्याख्या :- हे दुष्टों को रूलानेहारे रूद्रेश्वर हमको सुखी कर। शत्रुओं के वीरों का क्षय करने वाले अत्यन्त नमस्करादि से आपकी परिचर्या करने वाले हमलोगों का रक्षण यथावत कर ।
हे रूद्र। आप हमारे पिता हो,हमारी समस्त प्रजा को सुखी कर। प्रजा के रोगों का भी नाश कर । जैसे मनु स्वप्रजा को संगत और अनेक विधि से लाडन करता है वैसे आप हमारा पालन करो । हे रूद्र आपकी आज्ञा का प्रणय अर्थात उत्तम न्याययुक्त नीतियों में प्रवृत होके वीरो के चक्रवर्ती राज्य को आपके अनुग्रह से प्राप्त हो।

Friday, September 23, 2016

वेद सार-70

मा नो वधीरिन्द्र मा परा दा मा न:प्रिया भोजनानि प्रमोषी:।
आण्डा मा नो मघवञ्छक्र निर्भेन्मा न:  पात्रा भेत सहजानुषाणि ।।

                                                                                      ऋग्वेद:-1/7/19/8





भावार्थ :-
मा - मत
न:- हमारा
वधी :- बध कर
इन्द्र - हे परमैश्वरर्ययुक्तेश्वर
परा - अलग
दा :- हो
प्रिया - प्रिय
भोजनानि- भोगो को
प्रमोषी :- चोर और चोरवावो
आण्डा - गर्भो का
मघवन - हे सर्वशक्तिमान
शक्र - समर्थ और पुत्रों का
निर्भेत - विदारण कर
पात्रा - भोजनार्थ सवर्णनादि पात्रों को
भेत-अलग कर / नष्ट करो सहजानुषाणि - सहज अनुषक्त स्वाभाव से अनुकूल मित्र है, उनको ।

व्याख्या :- हे इन्द्र परमैश्वर्ययुक्तेश्वर । हमको आप अपने से अलग मत गिरावें अर्थात हमारा वध मत कर। हमसे अलग आप भी मत हो। हमारे प्रिय भोगों को मत चोर चोरवावें।
हमारे गर्भों का विदारण मत कर । हे मघवन हमारे समर्थ पुत्रों का विदारण मत कर । हमारे भोजनार्थ सुवर्णादि पात्रों को हमसे अलग मत कर । जो जो हमारे सहज अनुषक्त स्वाभाव से अनुकूल मित्र हैं उनको आप नष्ट मत करो अर्थात कृपा करके पूर्वोक्त सब पदार्थो की यथावत रक्षा करो। 

Thursday, September 22, 2016

वेद सार-69

विष्णो : कर्मणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे।
 इन्द्रस्य युज्य : सखा ।।

                                                              ऋग्वेद:-1/2/7/19




भावार्थ :- विष्णो:- व्यापक ईश्वर के ।
कर्माणि - जगत की उत्पति, स्थिति, प्रलय आदि कर्मो को
पश्यत - तुम देखो
यत :- जिससे
व्रतानि - ब्रह्मर्यादिव्रत तथा सत्यभाषणादिव्रत और ईश्वर के नियमों के अनुष्ठान करने को
पस्पशे - समर्थ हुए हैं
इन्द्रस्य - इन्द्रियों के साथ वर्तमान कर्मों के कर्ता,भोक्ता जीव का
युज्य- योग्य
सखा - मित्र।
व्याख्या :- हे जीवो , विष्णु के किये दिव्य जगत की उत्पति स्थिति , प्रलय आदि कर्मों को तुम देखो। जिससे हमलोग ब्रह्मचर्यादि व्रत तथा सत्यभाषणादि व्रत और ईश्वर के नियमों का अनुष्ठान करने को जीव सुशरीरधारी हो के समर्थ हुए हैं। यह काम उसी के सामथ्र्य से है क्योंकि इन्द्रियों के साथ वर्तमान कर्मों का कर्ता, भोक्ता जो जीव इस का वहीं एक मित्र है अन्य कोई नहीं। क्योंकि ईश्वर जीव का अन्तर्यामी है। उससे परे जीव का हितकारी कोई और नहीं हो सकता, इसलिए परमात्मा से सदा  मित्रता रखनी चाहिए।



Tuesday, September 20, 2016

वेद सार-68


वयं जयेम त्वया युजा वृतमस्माकमशमुदवा भरे भरे ।
 अस्मभ्यमिन्द्र वरिव: सुगं कृधि प्र शत्रुणां मघबन्बृष्ण्या रूज ।।
                                                                          ऋग्‍वेद:- 1/7/14/4





भावार्थ :-
वयम् - हमलोग
जयेम- दुष्ट जन को जीतें
त्वया - आपके तथा वर्तमान
युजा - आपकी सहायता से
आबृतम - हमारे बल से घेरा हुआ
अस्माकम््-हमारे
अंशम् - अंश(बल)
उदवा - उत्तम रीति से रक्षण करो
भरे भरे- युद्ध युद्ध में
अस्मभ्यम्- हमारे लिए
इन्द्र मघबन - हे महाघनेश्वर
वरिव: - चकवर्ती राज्य और साम्राज्य धन को
सुगम - सुख से प्राप्त
कृधि - कर
शत्रुनाम् - हमारे शत्रुओं के
मघबन - महाघनेश्वर
बृष्ण्या - वीर्य पराक्रमादि को
रुज-प्रभग्न
रुग्न करके नष्ट कर दे

व्याख्या :- हे इन्द्र आपके साथ वर्तमान में आपकी सहायता से हमलोग दुष्ट शत्रुजन को जीतें। वह शत्रु हमारे बल से घिरा हुआ हो।
हे महाराजाधिराजेश्वर, युद्ध - युद्ध में हमारे बल का उत्तम रीति से कृपा करके रक्षण करो, जिससे किसी युद्ध में क्षीण होके हम पराजय को न प्राप्त हों। क्योंकि जिनको आप की सहायता है उसका सर्वत्र विजय ही होता है।
हे इन्द्र हमारे शत्रुओं के पराक्रम को नष्ट कर दे। हमारे लिए चक्रवर्ती राज्य और साम्राज्य धन को सुख से प्राप्त कर।

Monday, September 19, 2016

वेद सार-67

तमूतयो रणयञ्छूसातौ तं क्षेमस्य क्षितय: कृ ण्वत त्राम्।
 स विस्वस्य करूणस्येश एको मरुत्वन्नो भवत्विन्द्र ऊती।।

                                                                                     ऋग्वेद:-1/7/4/7

 

भावार्थ :-
तम् - उसी इन्द्र परमात्मा की प्रार्थनादि से
ऊतय: -अनंत रक्षण तथा बलादि गुण
शूरसातों - युद्ध में
रणयन् - रमण और शूरवीरो के गुण
क्षेमस्य- क्षेम कुशलता का
क्षितये :- हे शूरवीर मनुष्यो
त्राम - रक्षक
कृण्वत् - करो
स:- सो
विश्वस्य - सब जगत पर
करूणस्य - करूणामय (करूणा करने वाला)
ईश: - परमात्मा
एक: - एक ही है
मरुत्वान -प्राण,वायु बल सेना युक्त
न: -हमलोगों पर
भवतु - हो
ऊती - रक्षक।

व्याख्या:- हे मनुष्यो उसी इन्द्र की प्रार्थना तथा शरणागति से अपने को अनंत रक्षण तथा बलादि गुण प्राप्त होंगे। वही युद्ध मे अपने को यथावत रमण और रणभूमि मे शूरवीरों के गुण परस्पर प्रीत्यादि प्राप्त करावेगा।
हे शूरवीर मनुष्यो, उसी की प्रार्थना करों जिससे अपनी पराजय कभी ना हो। क्योंकि समस्त जगत का कल्याण करने वाला वही है, दूसरा कोई नहीं है। सो परमात्मा हमलोगो पर कृपा करे और हमारे रक्षक भी हों। जिसकी रक्षा से हमलोग कभी पराजय को न प्राप्त हों ।