यज्ञस्य चक्षु: प्रभृतिमुखं च वाचा
श्रोत्रण मनसा जुहोमि।
इमं यज्ञं विततं विश्वंकर्मणा
देता यन्तु सुमनस्यमाना:।।
अथर्ववेद- 2/35/5
व्याख्या– जो पुरुष सत्यव्रती, सत्य, संकल्पी, सत्यसंध होकर ईश्वरीय ज्ञान
को मन, वचन और कर्म से स्वीकार करता है तथा ॠषियों की वैदिक वाणी को श्रवण, पठन - पाठन और निरंतर विचार मग्न होकर ग्रहण करता है और ईश्वर
द्वारा दिए इस ज्ञान - विज्ञान को तथा धर्म को जन - जन तक प्रचारित करता है वह
पूजनीय है। अत: ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस ज्ञान को मन, वचन और कर्म से सभी को स्वीकार करना चाहिए और
इसका प्रचार करते रहना चाहिए।
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