Thursday, January 28, 2016

वेद सार -11


त्वमस्य पारे रजसो व्योमन: स्वभूत्योजा अवसेधृषन्मन:।
चकृषे भूमि प्रतिमानमोजसोप: स्व: परिभूरेष्या दिवम्।।
       ऋग्वेद-1/4/14/12


भावार्थ:-
 त्वम् - आप
अस्य - समस्त जगत के
पारे - पार में तथा भीतर
रजस: - लोक के
व्योमन: - आकाश के
स्वभूत्योजा - अपने  ऐश्वर्य और बल से
अवसे - सभ्यक रक्षण के लिए
धृषत् - धर्षण करते हुए
मन: - दुष्टों के मन को
चकृषे - रच के
यथावत् - धारण कर रहे हो
भूमिम् - भूमि को
प्रतिमानम् - प्रतिमान
परिमाण - कत्र्ता
ओजस: - अपने सामथ्र्य से
अप: - अंतरिक्ष लोक और जल के
स्व: - सुख विशेष
परिभू - सब पर वत्र्तमान
एषि - सबको प्राप्त हो रहे हो
आदिवम् - द्योतनात्मक सूर्योदि लोक के
दिवम् - परमाकाश को

व्याख्या:- हे परमात्मन आकाश लोक के पार में तथा भीतर अपने ऐश्वर्य और बल से विराजमान होकर दुष्टों के मन का तिरस्कार करते हुए समस्त जगत की रक्षा करने के लिए आप सावधान हो रहे हो। इससे हम निर्भय होकर आनंद कर रहे हैं।
   हे परमात्मन, परमाकाश से भूमि तथा सुख विशेष मध्यस्थ लोक, इन सबों को अपने सामथ्र्य से ही रच के यथावत् धारण कर रहे हो। सब पर वत्र्तमान और सब को प्राप्त हो रहे हो। समस्त लोकों और जल, इन सब के प्रतिमान आप ही हो तथा आप अपरिमेय हो। कृपा करके हमको अपना तथा सृष्टि का विज्ञान दीजिए।।

Wednesday, January 27, 2016

वेद सार 10


अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे।
पृथिव्या: सप्त धामभि:।।
        ऋग्वेद:-1/2/7/16

भावार्थ :-
अत: - उस सामथ्र्य से
देवा: - हे विद्वानो
अवन्तु - रक्षा करें
न: - हमलोगों की
यत: - जिस सामथ्र्य से
विष्णु - परम पिता परमेश्वर
विचक्रमे - विस्तृत विद्यायुक्त वेद को बनाया
पृथिव्या: - पृथ्वी से लेकर
सप्त - सात छंद
धामभि: - लोक

व्याख्या:- हे विद्वानो सर्वत्रव्यापी परमेश्वर ने सब जीवों को पाप तथा पुण्य का फल भोगने और सब पदार्थों के स्थित होने के लिए पृथ्वी से लेकर सातों छन्दों से गायत्रयादि और विस्तृत विद्यायुक्त वेदों को बनाया, उसी सामथ्र्य से हमलोगों की रक्षा करें।
   हे विद्वानो आप लोग भी उसी विष्णु के उपदेश से हमारी रक्षा करें। कैसा है वह विष्णु जिसने समस्त जगत को विविध प्रकार से रचा है। उनकी नित्य भक्ति करो।

Thursday, January 21, 2016

वेद सार-9

त्वं सोमासि सत्पतिस्त्वं राजोत वृत्रहा।
त्वं भद्रो असि क्रतु:।।
                 ऋग्वेद:-1/6/19/5


भावार्थ:-
त्वम् - तुम
सोम - सबका सार निकालने
असि- हो
सत्पति - सत्पुरूषों का पालन करने वाला
राजा - सबके स्वामी
उत - और
वृत्रहा - मेघ के रचक,धारक और मारक
भद्र - भद्र स्वरूप
असि - हो
क्रतु - समस्त जगत के कत्र्ता

व्याख्या:- हे सोम, राजन सत्पते परमेश्वर तुम सबका सार निकाले वाले, प्राप्रस्वरूप, शान्तात्मा हो। तुम सत्पुरुषों का प्रतिपालन करने वाले हो। तुमहीं सबके राजा और मेघ के रचक, धारक और मारक हो। भद्रस्वरूप, भद्र करने वाले और समस्त जगत के कत्र्ता आप ही हो।

Wednesday, January 20, 2016

वेद सार-8



पाहि नो अग्ने रक्षस: पाहि धूत्तेरराव्ण:।
पाहि रीषत उत वा जिघांसतो वृहद्भानो यविष्ठय।।

                                     ऋग्वेद:-1/3/10/15

भावार्थ :-
पाहि - पालन करो,रक्षा करो
न: - हमारी
अग्ने - हे सर्वशत्रुदाहकाग्ने
रक्षस: - राक्षस, दुष्ट स्वभाव वालों से
रीषत: - मारने वाले मनुष्य से
उत+वा - जो मारने की
जिघांसत - इच्छा करता है
वृहद्भानो - हे महातेज
यविष्ठय - हे बलवत्तम

व्याख्या:- हे सर्वशत्रुदाहकाग्ने परमेश्वर आप राक्षस, हिंसाशील, दुष्ट स्वभाव वाले व धूत्र्त मनुष्यों से हमारी रक्षा करो। जो हमको मारने लगे तथा जो हमें मारने की इच्छा करते हैं उससे हमारी पालना करो। हे बलवत्तम महातेज उससे हमारी रक्षा करो।



Tuesday, January 19, 2016

वेद सार- 7




पुरूत्तमं पुरूणामीशान वाय्र्यानाम्।
इन्द्रं सोमे सचा सुते।।
ऋग्वेद -1-1-9-2

भावार्थ:-
पुरूतमम्-अत्यन्तोत्तम और सर्वशत्रुविनाशक परमात्मा को
ईशानम्-स्वामी और उत्पादक को
वार्याणाम्-वर, वरणीय, परमानंद मोक्षादि
इन्द्रम्-परमैश्वर्यवान् परमात्मा को
सचा-अत्यंत प्रेम से
सुते-आप से उत्पन्न होने से

व्याख्या:-हे परमात्मन आप अन्यन्तोत्तम और सर्वशत्रुविनाशक हो तथा बहुविध जगत के पदार्थों के स्वामी और उत्पादक हो। वरणीय परमानंद मोक्षादि पदार्थों के भी स्वामी हो। संसार की उत्पत्ति आप से ही होने के कारण परमैश्र्यवान आप की हृदय से, अत्यंत प्रेम से स्तुति करें जिससे आप की कृपा से हमलोगों का भी परमैश्वर्य बढ़ता जाय और हम परमानंद को प्राप्त हों।

Monday, January 18, 2016

वेद सार-6

पावका न: सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टुधियावसु:।।
ऋग्वेद :-1/1/6/10

भावार्थ:-
 पावका-पवित्र करने वाली मंगलकारक वाणी
न: - हमको
सरस्वती - सर्वशास्त्र विज्ञानयुक्त वाणी
वाजेभि: - सर्वोत्कृष्ठ अन्नादि के साथ
वाजिनीवती - सर्वोत्तम क्रिया विज्ञानयुक्त वाणी
यज्ञम् - सर्वशास्त्र बोध
वष्टु - कामनायुक्त सदैव हो
धिया - परमोत्तम बुद्धि के साथ
वस्तु: - निधिस्वरूप वाणी

व्याख्या - हे वाक्यते हमको आपकी कृपा से सर्वशास्त्र विज्ञानयुक्त वाणी प्राप्त हो। सर्वोत्कृष्ट अन्नादि के साथ वर्तमान सर्वोत्तम क्रिया विज्ञानयुक्त पवित्र स्वरूप और पवित्र करने वाली मंगलकारक वाणी आपकी प्रेरणा से प्राप्त होके आपके अनुग्रह से परमोत्तम बुद्धि के साथ वर्तमान निधिस्वरूप यह वाणी सर्वशास्त्र बोध और विज्ञान की कामना युक्त सदैव हो जिससे हमारी सब मूर्खता नष्ट हो और हम महापांडिल युक्त हों।

Saturday, January 16, 2016

वेद सार-5

यदड़्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि।
तवेत्तत्सत्यमडि़्गर।।
                  ऋग्वेद:-1/1/1/6

भावार्थ - यद् - जो
अड़्ग - हे मित्र
दाशुषे - आपको आत्मादि दान करता है
त्वम - आप
अग्ने - हे जगदीश्वर
भद्रम - व्यवहारिक और पारमार्थिक सुख
करिष्यसि - देते हो
तव - आपका
इत - अवश्य
तत् - यह
सत्यम् - सत्य व्रत है
अडि़्गर: - हे प्राण मित्र

व्याख्या :- हे मित्र जो आपको आत्मादि दान करता है उसको व्यवहारिक और पारमार्थिक सुख अवश्य देते हो। हे प्राणप्रिय स्वभक्तों को परमानंद देना आपका सत्यव्रत है। यही आपका स्वभाव हमको अत्यंत सुखकारक है। आप मुझको ऐहिक और पारमार्थिक दोनों सुखों का दान शीघ्र दीजिए जिससे सब दु:ख दूर हों तथा हमको सदा सुख ही रहे।

Friday, January 15, 2016

वेद सार-4

अग्निहोता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम:।
देवो देवेभिरागमत्।।
ऋग्वेद-1/1/1/5

भावार्थ :-
अग्नि- हे सबको प्रकाशित करने वाले देवता
होता - जगत की उत्पत्ति-प्रलय करने वाले
कविक्रतु - सबको देखने वाले समस्त जगत के जनक
सत्य - अविनाशी
देव - आश्चर्य रूपवान और अत्यंत उत्तम
देवेभि: - दिव्यगुणों के
आगमत - हमारे हृदय में आप प्रकट हों।

व्याख्या - हे सबको देखने वाले, समस्त जगत के जनक अविनाशी जिनका कि कभी नाश नहीं होता और आश्चर्यश्रवणादि, आश्चर्यगुण, आश्चर्यशक्ति, आश्चर्य रूपवाण, अत्यंत उत्तम आप ही हो। आपके तुल्य या आप से बड़ा कोई नहीं है। हे जगदीश! दिव्यगुणों के सह वर्तमान हमारे हृदय में आप प्रकट हों, समस्त जगत में भी प्रकाशित हों जिससे हम और हमारा राज्य दिव्यगुणयुक्त हो। वह राज्य आपका ही है। हम तो केवल आप के पुत्र तथा भृत्यवत् हैं।

Thursday, January 7, 2016

वेद सार- 3


अग्निना रमिमश्नवत्पोषमेव दिवे-दिवे।
यशसं वीरवत्तमन्।।
                    ऋग्वेद-1/1/1/3

भावार्थ -
अग्निना- हे महादात।
रयिम - विद्या धन, सुवर्ण रत्न तथा चक्रवर्ती राज्य और विज्ञान रूपी धन।
अश्नवत् - प्राप्त होता है।
पोषम् - महापुष्टि करने वाले धन को।
यशसम् - स्त्क्रीर्ति को बढ़ाने वाले धन को।
वीरवत्तमन - विद्या, शौर्य, धैर्य, चातुर्य, बल, पराक्रम, धर्मात्मा, न्याययुक्त ।

व्याख्या - हे महादाता आपकी कृपा से स्तुति करने वाला मनुष्य उस विद्यादि धन तथा सुवर्णादि धन को अवश्य प्राप्त होता है जो धन प्रतिदिन महापुष्टि करने और सत्क्रीति को बढ़ाने वाला तथा जिससे विद्या, शौर्य, धैर्य, चातुर्य, बल, पराक्रम, धर्मात्मा, न्याययुक्त और अत्यंत वीर पुरुष प्राप्त हों, वैसे सुवर्ण रत्नादि तथा चक्रवर्ती राज्य और विज्ञान रूपी धन को मैं प्राप्त होऊं तथा आपकी कृपा से सदैव धर्मात्मा हो के अत्यंत सुखी रहूं।

Wednesday, January 6, 2016

वेद सार-2

अग्नि : पूर्वेमिर्ऋषिभिरीडयो नूतनैरुत।
स देवां एह वक्षति।
                    ऋग्वेद-1/1/1/2

भावार्थ : अग्नि:- सब मनुष्यों के स्तुति योग्य।
पूर्वेभि:- विद्या अध्यण किए हुए।
ऋषिभि:- मंत्रों को देखने वाले।
नूतनै:- वेदार्थ पढऩे वाले नवीन ब्रह्मचारी।
ईडय:- स्तुति योग्य।
उत - हमलोग।
इह - संसारिक सुख के लिए।
आवक्षति - कृपा से प्राप्त करें।

व्याख्या - हे समस्त मनुष्यों के स्तुति करने योग्य ईश्वराग्ने। विद्याध्यन किए हुए प्राचीन मंत्रार्थ देखने वाले विद्वान और वेदार्थ पढऩे वाले नवीन ब्रह्मचारियों से स्तुति के योग्य और हमलोग जो मनुष्य विद्वान व मूर्ख हैं उनसे भी अवश्य आप ही स्तुति के योग्य हो। इसलिए स्तुति को प्राप्त हुए आप हमारे और समस्त संसार के सुख के लिए दिव्यगुण अर्थात विद्या को कृपा से प्राप्त करें। आप ही सबके इष्टदेव हो।

Monday, January 4, 2016

समस्‍त साध्‍ाना और शक्ति का श्रोत हैं मां त्रिपुरासुन्‍दरी

समस्‍त साध्‍ाना और शक्ति का श्रोत हैं मां त्रिपुरासुन्‍दरी
Image result for shree yantra photoदेवी  त्रिपुर सुंदरी, श्री यंत्र तथा श्री मंत्र के स्वरूप से समरसता रखती हैं, जो यंत्रो-मंत्रो में सर्वश्रेष्ठ पद पर आसीन हैं, यन्त्र शिरोमणि हैं, देवी साक्षात् श्री चक्र के रूप में यन्त्र के केंद्र में विद्यमान हैं। माँ अपने तीसरे महाविद्या के रूप में श्री विद्या, महा त्रिपुरसुन्दरी के नाम से जानी जाती हैं। देवी अत्यंत सुन्दर रूप वाली सोलह वर्षीय कन्या रूप में विद्यमान हैं। देवी आज भी यौवनावस्था धारण की हुई है तथा सोलह कला सम्पन्न है। देवी प्रत्येक प्रकार कि मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं। ये ही धन, संपत्ति, समृद्धि दात्री श्री शक्ति के नाम से भी जानी जाती है।

देवी श्री विद्या त्रिपुरसुन्दरी का स्‍वरूप--

 महा शक्ति त्रिपुर सुंदरी, तीनो लोकों में, सोलह वर्षीय कन्या स्वरूप में सर्वाधिक मनोहर तथा सुन्दर रूप से सुशोभित हैं। देवी का शारीरक वर्ण हजारों उदयमान सूर्य के कांति कि भाति है, देवी की चार भुजाये तथा तीन नेत्र हैं। अचेत पड़े हुए सदाशिव के ऊपर कमल जो सदाशिव के नाभि से निकली है, के आसन पर देवी विराजमान हैं। देवी अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, धनुष तथा बाण से सुशोभित है। देवी षोडशी पंचवक्त्र है अर्थात देवी के पांच मस्तक या मुख है। चारो दिशाओं में चार तथा ऊपर की ओर एक मुख हैं। देवी के पांचो मस्तक या मुख तत्पुरुष, सद्ध्योजात, वामदेव, अघोर तथा ईशान नमक पांच शिव स्वरूपों के प्रतिक हैं। देवी अपने दस भुजाओ वाली हैं तथा अभय, वज्र, शूल, पाश, खड़ग, अंकुश, टंक, नाग तथा अग्नि धारण की हुई हैं। देवी अनेक प्रकार के अमूल्य रत्नो से युक्त आभूषणो से सुशोभित हैं तथा देवी ने अपने मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण कर रखा हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा यम देवी के आसन को अपने मस्तक पर धारण करते हैं।
देवी श्री विद्या, स्थूल, सूक्ष्म तथा परा, तीनो रूपों में 'श्री चक्र' में विद्यमान हैं, चक्र स्वरूपी देवी त्रिपुरा, श्री यन्त्र के केंद्र में निवास करती हैं तथा चक्र ही देवी का अराधना स्थल हैं, चक्र के रूप में देवी श्री विद्या की पूजा आराधना होती हैं। श्री यन्त्र, सर्व प्रकार के कामनाओ को पूर्ण करने की क्षमता रखती हैं, इसे त्रैलोक्य मोहन यन्त्र भी कहाँ जाता हैं। श्री यन्त्र को महा मेरु, नव चक्र के नाम से भी जाना जाता हैं। शास्त्रों में यंत्रो को देवताओं का स्थूल देह माना गया हैं। श्री यन्त्र की मान्यता सर्वप्रथम यन्त्र के से भी हैं। यह सर्वरक्षा कारक, सौभाग्य प्रदायक, सर्व सिद्धि प्रदायक तथा सर्वविघ्न नाशक हैं।
कामेश्वरी की स्वारसिक समरसता को प्राप्त परातत्व ही महा त्रिपुर सुंदरी के रूप में विराजमान हैं तथा यही सर्वानन्दमयी, सकलाधिष्ठान ( सर्व स्थान में व्याप्त ) देवी ललिताम्बिका हैं। देवी में सभी वेदांतो का तात्पर्य-अर्थ समाहित हैं तथा चराचर जगत के समस्त कार्य इन्हीं देवी में प्रतिष्ठित हैं। देवी में न शिव के प्रधानता हैं और न ही शक्ति की, अपितु शिव तथा शक्ति, दोनों की समानता हैं। समस्त तत्वों के रूप में विद्यमान होते हुए भी, देवी सबसे अतीत हैं। देवी चर तथा अचर दोनों तत्वों के निर्माण करने में समर्थ हैं तथा निर्गुण तथा सगुण दोनों रूप में अवस्थित हैं।
देवी त्रिपुरसुन्दरी के पूर्व भाग में श्यामा और उत्तर भाग में शाम्भवी विराजित हैं तथा इन्हीं तीन विद्याओं के द्वारा अन्य अनेक विद्याओं का प्राकट्य या प्रादुर्भाव हुआ हैं तथा श्री विद्या परिवार का निर्माण करती हैं।