Friday, January 15, 2016

वेद सार-4

अग्निहोता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम:।
देवो देवेभिरागमत्।।
ऋग्वेद-1/1/1/5

भावार्थ :-
अग्नि- हे सबको प्रकाशित करने वाले देवता
होता - जगत की उत्पत्ति-प्रलय करने वाले
कविक्रतु - सबको देखने वाले समस्त जगत के जनक
सत्य - अविनाशी
देव - आश्चर्य रूपवान और अत्यंत उत्तम
देवेभि: - दिव्यगुणों के
आगमत - हमारे हृदय में आप प्रकट हों।

व्याख्या - हे सबको देखने वाले, समस्त जगत के जनक अविनाशी जिनका कि कभी नाश नहीं होता और आश्चर्यश्रवणादि, आश्चर्यगुण, आश्चर्यशक्ति, आश्चर्य रूपवाण, अत्यंत उत्तम आप ही हो। आपके तुल्य या आप से बड़ा कोई नहीं है। हे जगदीश! दिव्यगुणों के सह वर्तमान हमारे हृदय में आप प्रकट हों, समस्त जगत में भी प्रकाशित हों जिससे हम और हमारा राज्य दिव्यगुणयुक्त हो। वह राज्य आपका ही है। हम तो केवल आप के पुत्र तथा भृत्यवत् हैं।

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