Saturday, February 18, 2012

कमल की आभा

कमल तो कमल है।।
चिरंतन जलज है,
शाश्वत अस्तित्व है।
आभा की दमक है,
कमल तो कमल है।।
विशेषण की ललक नहीं,
कीचड़ की ललन है।
जहाँ भी पहुँचती,
सौम्यता की शनक है।
कमल तो कमल है।।
भारती ही कमल है,
विद्या की जनक है।
संस्कृति की झलक है,
मानवता की दमक है।
कमल तो कमल है।।
लक्ष्मी ही कमल है,
वैभवता की जनक है।
श्रृष्टि की ललक है,
इसी का सबब है।
कमल तो कमल है।।
कमल में आभा है,
आभा में कमल नहीं।
पंकज तो शाश्वत है,
आभा में शाश्वतता नहीं।
कमल तो कमल है।।
आभा में अहम् है,
कमल में सौम्यता।
आभा में अकड़ है,
कमल में लोचकता।
कमल तो कमल है।।
कमल में नियम है,
छद्मता नहीं।
आभा में तुष्टता है,
परमार्थता नहीं।
कमल तो कमल है।।
पीयुष है कमल में,
निर्मल है उसकी काया।
आभा है जल में,
कंचन करती हरपल काया।
कमल तो कमल है।।
कमल है निरूपम,
जबकि आभा स्वरूपम्।
आभा देती कमल को,
अपना अनुपम।
कमल तो कमल है।।
कमल है कोमल,
कंचन है उसकी काया।
आभा उसको देती,
हरपल अकिंचन छाया।
कमल तो कमल है।।
आभा में है रोशनी,
तो कमल में उजाला।
दोनों मिलेगी तभी तो,
सार्थक होगी साया।
कमल तो कमल है।।

Monday, February 6, 2012

मानव

मानव
अरे मानव!
तू छोड़ दे
अब मानवता की व्याख्या
क्योंकि तू
अब न रहा
मानव
अपनाई दानवता।।
तू मानव!
होगा भी कैसे
क्योंकि अब,
तुझमें दिल नहीं
करता है तू कुकृत्य
जिससे
मानव को संच नहीं।।
बच्चे, बूढ़े और
जवां
सब होते हैं तेरे समा,
तेरी बंदूक की एक बटन
करती है हरपल भयां।।
झूठ, फरेबी
और मक्कारी,
करता तू सबसे
गद्दारी,
अपने अहम की पूत्र्ति हेतु,
ईश्वर को भी देता गाली।।
प्यास बुझाने हेतु
पानी नहीं,
तुझे चाहिए
बरबस खून
इसको पाने पर ही
तुझे मिलता है सुकून।।
जात-पात की बिछी क्यारी
आत्मा ने
जमीर भूला दी
तुझे नहीं अब
मानवता की लेनी दुहाई
अब केवल
खून!
चाहिए भाई।।
अरे मानव! तू
कैसा मानव?
तू तो हुआ अब
बरबस दानव
मानवता छोड़
दानवता अपनाई
सचमुच! क्या यही है
कलियुग की सच्चाई?

डॉ राजीव रंजन ठाकुर
ठाकुर भवन
गुमटी नं-12 के पास
भीखनपुर, भागलपुर

विष की छड़ी

विष की छड़ी,
घूमती हर घड़ी।
जिन्दगी को बनाती,
है बहुत कड़ी।।
विष की छड़ी...
गर्भ में पली,
छोड़ती अनुभूति।
उद्धिग्न करती रहती,
माता को हर घड़ी।।
विष की छड़ी...
जन्म लेते ही बँटी अनुभूति,
बालक है तो सुखी।
बालिका है तो दु:खी,
कारण कलियुग है यही।।
विष की छड़ी...
नजरों में चढ़ी,
अगर है वो छड़ी।
होगी वो बड़ी,
तो लुटेगी सही।।
विष की छड़ी...
होकर बड़ी,
लगने वो पढ़ी।
सहपाठियों बीच लुटी,
या फिर बंधनों में पड़ी।।
विष की छड़ी...
हो कितनी भी पढ़ी,
कर कुछ भी सकती।
मगर बंधनों में जकड़ी,
टूटती ही रहती।।
विष की छड़ी...
रूढि़वादिता जो तोड़ी,
कहलाने को फ्री।
मगर यह हुई न सही,
कारण, विपदाओं से घिरी।।
विष की छड़ी...
कहने को सही,
है वो फ्री।
मगर रहती वो डरी,
क्योंकि है वो छड़ी।।
विष की छड़ी...
करने सबकुछ लगी,
होने पाँवों पर खड़ी।
कभी बॉस से लुटी,
तो कभी घर में सही।।
विष की छड़ी...
क्या इसलिए वो बनी?
कहलाने को शक्ति।
कि, जब भी चाहो,
उठा लो चोली।।
विष की छड़ी...
नहीं! है वो आदिशक्ति,
सिखलाई मातृभक्ति।
वेदना की प्रतिमूर्ति,
श्रृष्टि की है कड़ी।।
विष की छड़ी...
मातृशक्ति है वो,
भगिनि शक्ति।
पत्नी शक्ति है वो,
सर्वस्व शक्ति।।
विष की छड़ी...
करोगेे उसकी इच्जत,
तो पाओगे जन्नत।
अगर होगी वो उन्नत,
तो दिलाएगी सल्तनत।।
विष की छड़ी...

डॉ राजीव रंजन ठाकुर
ठाकुर भवन
गुमटी नं-12 के पास
भीखनपुर, भागलपुर