Monday, February 6, 2012

विष की छड़ी

विष की छड़ी,
घूमती हर घड़ी।
जिन्दगी को बनाती,
है बहुत कड़ी।।
विष की छड़ी...
गर्भ में पली,
छोड़ती अनुभूति।
उद्धिग्न करती रहती,
माता को हर घड़ी।।
विष की छड़ी...
जन्म लेते ही बँटी अनुभूति,
बालक है तो सुखी।
बालिका है तो दु:खी,
कारण कलियुग है यही।।
विष की छड़ी...
नजरों में चढ़ी,
अगर है वो छड़ी।
होगी वो बड़ी,
तो लुटेगी सही।।
विष की छड़ी...
होकर बड़ी,
लगने वो पढ़ी।
सहपाठियों बीच लुटी,
या फिर बंधनों में पड़ी।।
विष की छड़ी...
हो कितनी भी पढ़ी,
कर कुछ भी सकती।
मगर बंधनों में जकड़ी,
टूटती ही रहती।।
विष की छड़ी...
रूढि़वादिता जो तोड़ी,
कहलाने को फ्री।
मगर यह हुई न सही,
कारण, विपदाओं से घिरी।।
विष की छड़ी...
कहने को सही,
है वो फ्री।
मगर रहती वो डरी,
क्योंकि है वो छड़ी।।
विष की छड़ी...
करने सबकुछ लगी,
होने पाँवों पर खड़ी।
कभी बॉस से लुटी,
तो कभी घर में सही।।
विष की छड़ी...
क्या इसलिए वो बनी?
कहलाने को शक्ति।
कि, जब भी चाहो,
उठा लो चोली।।
विष की छड़ी...
नहीं! है वो आदिशक्ति,
सिखलाई मातृभक्ति।
वेदना की प्रतिमूर्ति,
श्रृष्टि की है कड़ी।।
विष की छड़ी...
मातृशक्ति है वो,
भगिनि शक्ति।
पत्नी शक्ति है वो,
सर्वस्व शक्ति।।
विष की छड़ी...
करोगेे उसकी इच्जत,
तो पाओगे जन्नत।
अगर होगी वो उन्नत,
तो दिलाएगी सल्तनत।।
विष की छड़ी...

डॉ राजीव रंजन ठाकुर
ठाकुर भवन
गुमटी नं-12 के पास
भीखनपुर, भागलपुर

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