Monday, February 29, 2016

जेटली का स्वास्थ्य बजट

एनडीए सरकार ने सोमवार को वर्ष 2016-17 का आम वजट पेश किया। बजट में वित्त मंत्री ने साफ दर्शा दिया कि उनके हिसाब से रुपयों का आबंटन विकासोन्मुख भारत के लिए है। पहले देश है उसके बाद नागरिक। उन्होंने बजट के जरिए इस कल्पना को हकीकत में बदलने की कोशिश की है कि अगर मनुष्य स्वस्थ्य रहेगा तभी वह भारत के विकास में अपना योगदान दे पायेगा। मौजूदा समय में देश में स्वास्थ्य सुविधाएं उन व्यक्तियों को व्यापक और पर्याप्त पैमाने पर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हैं जिन्हें इनकी सबसे अधिक आवश्यकता है।
मंत्री ने कहा कि जनसंख्या के बोझ, गरीबी और स्वास्थ्य क्षेत्र में कमजोर बुनियादी ढांचे की वजह से भारत को दुनिया के पिछड़े देशों से भी ज्यादा बीमारी के बोझ का सामना करना पड़ता है। स्वास्थ्य सेवा से जुड़े हर मानक पर हम दुनिया के फिसड्डी देशों से होड़ करते दिखाई देते हैं।
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प्रसव के दौरान शिशु मृत्यु दर
प्रसव के समय होने वाली शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार पर 52 है, जबकि श्रीलंका में 15, नेपाल में 38, भूटान में 41 और मालदीव में यह आंकड़ा 20 का है। स्वास्थ्य सेवा पर खर्च का 70 प्रतिशत निजी क्षेत्र से आता है जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 38 प्रतिशत है। विकसित देशों के साथ तुलना करने पर विषमता का यह आंकड़ा और भी ज्यादा चौंकाने वाला है। इसके अलावा, चिकित्सा पर व्यय का 86 प्रतिशत तक लोगों को अपनी जेब से चुकाना होता है जो यह बताता है कि देश में स्वास्थय बीमा की पैठ कितनी कम है। भारत कुल स्वास्थ्य सेवा खर्च और बुनियादी ढांचे की आपूर्ति, दोनों के ही लिहाज से कई विकासशील देशों से काफी पीछे है।
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प्रति 1000 व्यक्ति पर अस्पतालों की संख्या
ब्राजील में प्रति हजार लोगों पर अस्पतालों में बेडों की उपलब्धता 2.3 है पर भारत में यह आंकड़ा केवल 0.7 है। श्रीलंका में 3.6 और चीन में 3.8 है।
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डाक्टरों की उपलब्धता प्रति 1000 व्यक्ति पर
 डॉक्टरों की उपलब्धता का वैश्विक औसत प्रति एक हजार व्यक्तियों पर 1.3 है। जबकि भारत में यह केवल 0.7 है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2011 में भारत में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति कुल व्यय 62 अमेरिकी डालर (लगभग पौने चार हजार रुपये) था। जबकि अमेरिका में 8467 डालर, नॉर्वे में 9908 अमेरिकी डालर तक था।  श्रीलंका तक हमसे प्रति व्यक्ति लगभग 93 अमेरिकी डालर ज्यादा खर्च कर रहा था। आंकड़ों के आधार पर हमारे पास 400,000 डाक्टरों, 700,000 बेडों और लगभग 40 लाख नर्सों की कमी है।

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भारत में प्रति वर्ष गुर्दे की बीमारी के अंतिम चरण में पहुंच चुके 2.2 लाख नये रोगियों की बढोत्तरी हो रही है।  गुर्दे की बीमारियों के शिकार लोगों की बढती संख्या को देखते हुए सरकार ने 'राट्रीय डायलिसिस सेवा कार्यक्रम की शुरुआत करने का प्रस्ताव रखा है। जिसके तहत सभी जिला अस्पतालों में डायसिलिस सेवाएं मुहैया कराई जायेंगी। अभी भारत में लगभग 4950 डायलिसिस केंद्र हैं जो मुख्यत: निजी क्षेत्र और प्रमुख नगरों में हैं। इसके अलावा प्रत्येक डायलिसिस के लिए लगभग 2000 रुपये का खर्च आता है। इसको लेकर बजट में डायलिसिस उपकरणों के कुछ हिस्से पुर्जो पर बुनियादी सीमा शुल्क, उत्पाद-सीवीडी और एसएडी की छूट देने का प्रावधान ्रकिया गया है।

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गरीब परिवारों के इलाज के लिए नयी स्वास्थ्य सुरक्षा योजना

गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के गंभीर बीमारियों से ग्रस्त लोगों के इलाज के लिए सरकार ने एक नयी स्वास्थ्य सुरक्षा योजना शुरू करने की घोषणा की है। जिसके तहत प्रति परिवार एक लाख रुपये तक का स्वास्थ्य कवर प्रदान किया जायेगा। इस प्रस्तावित योजना के तहत ऐसे परिवार के 60 साल से अधिक आयु वाले बीमार लोगों को 30 हजार रुपये का अतिरिक्त टॉप अप पैकेज दिया जायेगा।

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किफायती कीमतों पर स्तरीय औषधियां बनाना लक्ष्य

उच्चस्तरीय दवाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रधानमंत्री जन औषधि योजना के तहत 3,500 मेडिकल स्टोर खोले जाएंगे। साथ ही जेनेरिक दवाओं के प्रचलन को बढ़ावा देने के लिए जोर देने की बात कही गई है।

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भागलपुर जो कि पूर्वी बिहार का चिकित्सकीय हब है यहां की स्थिति काफी भयावह है। यहां कि 32 लाख की आबादी पर कुल 132 डाक्टर(42 स्थायी,90 संविदा पर) कार्यरत हैं। वहीं सरकारी स्तर पर जवाहरलाल नेहरू अस्पताल को छोड़कर एक भी डायलिसिस केंद्र नहीं है। जेनेरिक दवा की एक भी दुकानें नहीं हैं।

फैजान अशर्फी
जिला स्वास्थ्य समिति प्रबंधक

Sunday, February 28, 2016

वेद सार 26

तेजोऽसि तेजोमयि धेहि। वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि।
बलमसि बलं मयि धेहि। ओजोऽस्योजो मयि धेहि।
मन्युरसि मन्युं मयि धेहि। सहोऽसि सहो मयि धेहि।।
                                                          यजुर्वेद-9। 9। 9
भावार्थ:- तेज:-हे स्वप्रकाश अनंत तेज आप अविद्य अंधकार से रहित असि-हो, तेज:-वही तेज, मयि-मुझमें
 धेहि-धारण करो
वीर्यम्-हे अन्तन्त वीर्य परमात्मन्, सर्वोत्तम बल
धेहि-स्थिर रखो
बलम्-हे अनंत बल परमात्मन्, उत्तम बल
ओज:-हे अनंत पराक्रम, उस पराक्रम को
मन्यु:-हे दुष्टों पर क्रोध करने वाले मन्युम्-दुष्टों पर क्रोध को
सह:-हे अनंत सहनस्वरूप आप अत्यंत सहनशक्ति वाले।

व्याख्या:-हे स्वप्रकाश अनंत तेज, आप अविद्यान्धकार से रहित हो, सत्य विज्ञान तेजस्वरूप हो,आप कृपा दृष्टि से मुझमें वही तेज धारण करो जिससे मैं निस्तेज, दीन और भीरू कहीं कभी न होऊंं।
हे अनंत वीर्य परमात्मन्। आप वीर्यस्वरूप हो, आप सर्वोत्तम बल मुझमें भी स्थिर रखें।
हे अनंत पराक्रम, आप स्वपराक्रम स्वरूप हो सो मुझ में भी उस पराक्रम को सदैव धारण करो।
हे दुष्टानामुपरि क्रोधकृत् मुझमें भी दुष्टों पर क्रोध धारण कराओ।
हे अनंत सहनस्वरूप, मुझमें भी आप सहन सामथ्र्य धारण करो अर्थात् शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा इनके तेजादि गुण कभी मुझमे दूर न हों जिससे मैं आप की भक्ति का स्थिर अनुष्ठान करूं और आप के अनुग्रह से संसार में सदा सुखी रहूं।


Saturday, February 27, 2016

वेद सार 25

त्वं हि विश्वतोमुख विश्वत: परिभूरसि।
अप न: शोशुचदघम्।।
                                       ऋग्वेद:-1/7/5/6

भावार्थ:-त्वम्-तू, हि-हो विश्वतोमुख-हे सर्वतोमुख अग्ने विश्वत:-सब जगत्, सब ठिकानों में परिभू-व्याप्त
असि-हो
न:-हमारा
अप-शोशुचत्-सब नष्ट हो जाय अधम्-पाप।

व्याख्या:-हे परमात्मन् तू ही सब जगत में व्याप्त हो। अतएव आप विश्वतोमुख हो। हे सर्वतोमुख अग्ने, आप स्वशक्ति से जब जीवों के हृदय में सत्योपदेश नित्य ही कर रहे हो, वही आप का मुख है। हे कृपालो आप की इच्छा से हमारा पाप सब नष्ट हो जाय जिससे हमलोग निष्पाप होकर आपकी भक्ति और आज्ञा पालन में नित्य तत्पर रहें।

Friday, February 26, 2016

वेद सार 24

यन्मे छिद्र चक्षुषो हृदयस्य मनसो वातितृण्णं बृहस्पतिमें तद्दधातु।
शं नो भवतु भुवनस्यु यस्पति।
                                                                                 यजुर्वेद:-39/36/ 2

भावार्थ:-यत्-तो, मे-मेरे, छिद्रम्-निर्बलता
चक्षुष:-नेत्र का
हृदयस्थ-प्राणात्मा का
मनस:-मन, बुद्धि, विज्ञान, विद्या और सब इन्द्रियों के
वा-यद्वा
अतितृण्णम्-मन्दत्वादि विकार को, बृहस्पति:-सबसे बड़े आप
तद्-इनका निवारण निर्मूल करके दधातु-सत्य धर्मादि में स्थापन करो शम्-कल्याणकारक
न:-हमलोगों पर
भवतु-हों, भुवनस्य-संसार के य:-जो, पति:-रक्षक।

व्याख्या:-हे सर्वसन्धायकेश्वर। मेरे चक्षु, हृदय, मन, बुद्धि, विज्ञान, विद्या और समस्त इन्द्रिय, इनके छिद्र, निर्बलता, राग, द्वेष, चांचल्य, मन्दत्वादि विकार का निर्मूल निवारण करके सत्य धर्मादि के स्थापन आप ही करो। क्योंकि आप सबसे बड़े हो। सो अपनी इस बड़ाई को देखते हुए इस बड़े काम को आप अवश्य करें जिससे हमलोग आप और आप की आज्ञा के सेवन में यथार्थ तत्पर हों। मेरे सभी छिद्र को आप ही ढकें।
आप समस्त भुवनों के पति हैं इसलिये हमलोग आप से बारबार प्रार्थना करते हैं कि सब दिन हमलोगों पर कृपा दृष्टि से कल्याणकारक हो।
हे परमात्मन। आप के बिना हमारा कल्याणकारक कोई नहीं है। हमको आप का ही सब प्रकार का भरोसा है सो आप ही पूरा करेंगे।

Thursday, February 25, 2016

तंत्र- मंत्र- यंत्र: भाग 2


तंत्र साधना में मंत्र और यंत्र दोनों की आवश्यकता होती है। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। मंत्र का कार्य ध्वनि के क्षेत्र में प्रभाव डालना है और यंत्र का कार्य दृश्य के क्षेत्र में प्रभाव डालना है।
मंत्र योग को एक विज्ञान भी कहा गया है। 'मननात्त्रायते इति मंत्र:Ó। अर्थात जिसके बार-बार स्मरण मात्र से मनुष्य जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है और उसके जीवन में अलौकिक शक्तियों का उदय होता है।
वहीं सौन्दर्य लहरी के प्रथम श्लोक में शंकराचार्य ने कहा है- 'शिव: शक्त्या युक्तोयदि शक्ति प्रभवितुं खलमÓ। अर्थात् शक्ति की प्रकृति त्रिगुणात्मक होती है। इसी कारण से तंत्र में शक्ति को अधोमुखि त्रिभुज के रुप में अभिव्यक्त किया जाता है। इन तीनों तत्वों को सत्व, रज, तम और सगुणात्मक उपासना में महासरस्वती, महालक्ष्मी व महाकाली की संज्ञा दी गई है। इसके अलावा ब्रह्मांड में छह प्रकार की शक्तियां विद्यमान हैं-पराशक्ति, ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति, क्रिया शक्ति, कुण्डलिनी शक्ति और मंत्र शंक्ति।

सनातन धर्म में तंत्र का महत्व:-
मार्कण्डेय पुराण और अथर्ववेद तंत्र शास्त्र का सर्वोत्तम ग्रंथ है। मार्कण्डेय पुराण में 700 श्लोकों का उल्लेख है। इसमें मां दुर्गा की गोपनीय तांत्रिक साधना का वर्णन है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण मंत्र हैं-'ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चैÓ। वहीं अथर्ववेद में  ऋचाओं(श्लोक)की संख्या 731 है। इसमें विपत्ति और व्याधि नाश एवं भूत- प्रेत से मुक्ति संबंधित मंत्र हैं।
शक्ति की अभिव्यक्ति के लिए हमेशा आधार की आवश्यकता होती है, और बिना आधार शक्ति प्रकट नहीं होती।
मंत्र में अद्भुत और असीमित शक्तियां निहित हैं। कोई भी मंत्र अपने आप में पूर्ण है। साधक विभिन्न मंत्रों का प्रयोग विभिन्न शक्तियों को प्राप्त करने के लिए करते हैं।  इसके लिए गहन साधना और सिद्ध गुरु की भी आवश्यकता होती है। यदि गुरु न मिले तो शुद्ध हो कर शुभ मुहूर्त में मंत्र पाठ करें। यंत्र पूजन करें। फिर साधना प्रारम्भ करें।

मंत्र साधना में पांच शुद्धियां अनिवार्य है। 
भाव शुद्धि, मंत्र शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, देह शुद्धि और स्थान शुद्धि। अपनी बायीं ओर दीपक तथा दायीं तरफ धूप रखें। शुभ मुहूर्त में निश्चित संख्या में संकल्प करके जाप प्रारम्भ करें।
सभी इष्ट की साधना के लिए अलग-अलग प्रकार की मालाओं का विधान है। मालाओं में 108 गुडिया भगवान शिव के 'शिवसूत्रÓ में वर्णित 108 ध्यान पद्धतियों का सूचक है।
शिव के लिए रुद्राक्ष की माला, हनुमान के लिए रक्त चन्दन या मंूगा की माला, विष्णु के लिए तुलसी या चन्दन, लक्ष्मी के लिए कमलगट्टा एवं अधिकांश कार्यों के लिए स्फटिक की माला उपयोगी होती है।
अलग-अलग कार्यो के लिए गुडियों की संख्या का विशेष महत्व होता है। जैसे -मोक्ष प्राप्ति के लिए 25 गुडियों की माला, धन और लक्ष्मी के लिए 30 गुडियों की माला, निजी स्वार्थ के लिए 27 गुडियों की माला, प्रिया प्राप्ति के लिए 54 गुडियों की माला, और समस्त कार्यों एवं सिद्धियों के लिए 108 गुडियों की माला का विधान है।

Wednesday, February 24, 2016

वेद सार 23

मयीदमिन्द्र इन्द्रियं दधात्वस्मान रायो मघवान: सचन्ताम्।
 अस्माक सन्त्वाशिष: सत्या न: सन्त्वाशिष:।।
                                                                        यजुर्वेद:- 51/ 2/10
भावार्थ:-
मयि-मुझमें
इदम्-विज्ञानादि
इन्द्र-हे परमैश्वर्यवान् ईश्वर, इन्द्रियम-शुद्ध इन्द्रिय को
दधातु-धारण करो
अस्मान-हमको
राय:- उत्तम धन को
मघवान-परम धनवान, सचन्ताम्-प्राप्त करो
अस्माकम्-हमारी
सन्तु-होनी चाहिए
आशिष:-आशा
सत्या:-सत्य ही
न:-हमलोगों की
सन्तु-शीघ्र ही कीजिए।

व्याख्या:-हे इन्द्र परमैश्वर्यवन् ईश्वर। मुझमें विज्ञानादि शुद्ध इन्द्रिय और उत्तम धन को परम धनवान आप प्राप्त करो।
हे सर्व काम पूर्ण करने वाले ईश्वर आपकी कृपा से हमारी आशा सत्य ही होनी चाहिए। हे भगवान, हमलोगों की इच्छा आप शीघ्र ही सत्य कीजिये जिससे हमारी न्याययुक्त इच्छा के सिद्ध होने से हमलोग परमानंद में सदा रहें।


Tuesday, February 23, 2016

वेद सार 22

इदं मे ब्रह्म च क्षत्रं चोभे श्रियमश्नुताम्।
मयि देवा दधतु श्रियमुत्तमां तस्यै ते स्वाहा।।
                                             यजुर्वेद:-55/32/16

भावार्थ:-
इदम्-यह
मे-मेरा
ब्रह्म-विद्वान
च-और
क्षत्रम्-राजा
उभे-दोनो
श्रियम्-सर्वोत्तम विद्यादि लक्षण युक्त महाराज श्री को
अश्नुताम्-प्राप्त हों
मयि-मुझ में
देवा-हे विद्वानो
दधतु-धारण कराओ
उत्तमाम्-उत्तम विद्यादि लक्षण समन्वित श्री को
तस्यै-उसको
ते-तथा
स्वाहा-मैं अत्यंत प्रीति को स्वीकार करूं।

व्याख्या:-हे महाविद्य महाराज सर्वेश्वर। मेरा ब्रह्म और क्षत्र ये दोनों आपकी कृपा से यथावत अनुकूल हों। सर्वोत्तम विद्यादि लक्षणयुक्त महाराज श्री को हम प्राप्त हों।
हे विद्वानो। दिव्य ईश्वरगुण परमकृपा आदि, उत्तम विद्यादि लक्षण समन्वित श्री को मुझमें अचलता से धारण कराओ ताकि उसको हम अत्यंत प्रीति से स्वीकार करूं और उस श्री को विद्यादि सद्गुण व सर्व संसार के हित के लिये तथा राज्यादि प्रबंध के लिये व्यय करूं।

Monday, February 22, 2016

तंत्र-मंत्र-यंत्र - भाग1


धर्मशास्‍त्र और विज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं।
तंत्र, मंत्र और यंत्र हिन्दू धर्म की प्राचीन विद्या है। तंत्र का पदार्थ विज्ञान, रसायन शास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष एवं ध्यानयोग आदि विधाओं से गहरा संबंध है। तंत्र की प्रयोगशाला हमारा शरीर है। तंत्र का उद्देश्य शरीर में विद्यमान शक्ति केंद्रों को जागृत कर विशिष्ट कार्यों को सिद्ध करना।

तंत्र
संस्कृत के 'तनÓ धातु से तंत्र शब्द की उत्पत्ति हुई है। 'तनÓ का अर्थ- विस्तार एवं र्सवव्यापकता है। 'त्रÓ का अर्थ है त्राण। यानी मुक्ति करने वाला या लाभ करने वाला।
यह एक उपासना पद्धति है। भगवान शिव इसके जन्मदाता हैं। इसके सिद्धांत को गुप्त रखने का प्रावधान है। झाडÞ-फूंक, जादू-टोने से भी इसका गहरा संबन्ध है।

यंत्र
यंत्र कई प्रकार के होते हैं। इसे सामथ्र्य एवं आवश्यकता के अनुसार स्वर्ण, रजत, ताम्र या भोजपत्र पर शुभ मुहूर्त में बनाया जाता है। यंत्रों में विन्दु, त्रिभुज, चतुर्भुज, स्वस्तिक, कमल, पदमदल इत्यादि बने होते हंै।
यंत्रों पर ध्यान केन्द्रित करके साधक अपने इष्टदेव या किसी लोक-परलोक की आत्मा या शक्ति से संंबंध स्थापित कर सकते हैं। महर्षि दत्तात्रेय को यंत्र विद्या का जनक माना जाता है। क्योंकि भगवान शिव ने सारे मंत्र-तंत्र को दानवों के दुरुपयोग से बचाने के लिए कीलित कर दिया। बाद में महर्षि दत्तात्रेय ने ज्यामितिय कला के द्वारा वृत्त, त्रिकोण, अद्र्धवृत्त, चतुष्कोण को आधार बनाकर बीज मंत्रों की सहायता से इन शक्तियों को रेखांकित करके विशिष्ट पूजा-यंत्रों का आविष्कार किया। गुरु गोरखनाथ एवं शंकराचार्य का समय तंत्र विद्या का स्वर्णिम काल था।

मंत्र
मंत्र शब्द मन एवं त्र के संयोग से बना है। यहां मन का अर्थ- विचार है और त्र का अर्थ-मुक्ति है। यानी गलत विचारों से मुक्ति। मंत्र विशिष्ट शब्दों का एक जोडÞ है। जिसका उच्चारण विशिष्ट ध्वनि, तरंग, कंपन एवं  अदृश्य आकृतियों को जन्म देता है। इस प्रकार मंत्र द्वारा निराकार शक्तियां साकार होने लगती है। मंत्र के लगातार जाप से उत्पन्न घ्वनि वायुमंडल में छिपी शक्तियों को नियंत्रित करता है और उस पर साधक का प्रभाव एवं अधिकार हो जाता है।
मंत्रों की उत्पति वेदों और पुराणों से हुई है। वेदों का हर श्लोक एक मंत्र है। वेद के अनुसार मंत्र दो प्रकार के होते हैं।
1. ध्वन्यात्मक 2. कार्यात्मक
ध्वन्यात्मक मंत्रों का कोई विशेष अर्थ नहीं होता है। इसकी ध्वनि ही बहुत प्रभावकारी होती है। क्योंकि यह सीधे वातावरण और शरीर में प्रवेश कर एक अलौकिक शक्ति से परिचय कराती है। इस प्रकार के मंत्र को बीज मंत्र कहते हंै।
जैसे- ओं, ऐं, ह्रीं, क्लीं, श्रीं, अं, कं, चं आदि।

कार्यात्मक मंत्र:-इसका उपयोग पूजा पाठ में किया जाता है। प्रत्येक मंत्र का अलग-अलग उपयोग एवं प्रभाव है। जैसे 'ऊॅंÓ का संबन्ध नाभि से है। नाभि से जो श्वास के साथ उच्चारण होता है वह सीधे हमारी कुंडलिनी तक पहुंचता है। वैसे मंत्रों का उच्चारण मानसिक रुप से ही लाभकारी होता है
 लेकिन बीज मंत्रों का उच्चारण ध्वनि के साथ करना लाभकारी होता है। दोनों आंखों के मध्य के भाग को तीसरा नेत्र कहा जाता है। यहां पर छठा चक्र अवस्थित है। इस बीज मंत्र के प्रभाव से नाभि से लेकर मस्तिष्क के भीतर बने सहस्त्र दल कमल तक एक स्वरूप अपने आप बनता है। इसके लगातार उच्चारण से सिद्धि प्राप्त होती है।

Saturday, February 20, 2016

वेद सार 21

त्वमसि प्रशस्यो विदथेषु सहन्त्य। अग्ने रथीरध्वराणाम्।।
                                            ऋग्वेद:-5/8/35/2

भवार्थ-
त्वम् - तू ही
असि - है
प्रशस्य - सर्वत्र स्तुति करने योग्य
विदथेषु - यज्ञ और युद्धों में
सहन्त्य - शत्रुओं के समूहों के घातक
अग्ने - हे सर्वज्ञ
रथी - शत्रुओं के योद्धाओं को जितने वाले
अध्वराणाम् - यज्ञ और युद्धों में

व्याख्या: - हे सर्वज्ञ। तू ही सर्वत्र स्तुति करने योग्य हो। यज्ञ और युद्धों में आप ही स्तोतव्य हो। जो तुम्हारी स्तुति को छोड़ कर अन्य जड़ादि की स्तुति करता है। उसके यज्ञ तथा युद्धों में विजय कभी सिद्ध नहीं होता है। शत्रुओं के समूहों के आप घातक हो। यज्ञ और युद्धों में आप ही रथी हो। हमारे शत्रुओं के योद्धाओं को जीतने वाले हो। इस कारण से हमारा पराजय कभी नहीं हो सकता।

Friday, February 19, 2016

वेद सार 20


सोमं रारन्धिनो हृदि गावो न यवसेष्वा।।
मर्य इव स्व ओक्ये।।
                                      ऋग्वेद:-1/6/21/13

भावार्थ :- 
सोम - हे सोम्य सौख्यप्रदेश्वर
रारन्धि - रमण करो
न: - हमारे
हृदि - हृदय में
गाव: - सूर्य की किरण, विद्वानों का मान, गाय पशु
न - जैसे
यवसेषु - अपने-अपने विषय और घास आदि में
आ - यथावत्
मर्य - मनुष्य
इव - जैसे
स्वे - अपने
ओक्ये - घर में

व्याख्या :- हे सोम्य सौख्यप्रदेश्वर जैसे सूर्य की किरण, विद्वानों का मन और गाय पशु अपने-अपने विषय और घास आदि में रमण करते हैं उसी प्रकार आप कृपा कर हमारे हृदय में रमण करो। ।
 जैसे मनुष्य अपने घर में रमण करता है वैसे ही आप सदा प्रकाश युक्त हमारे हृदय में रमण कीजिए। जिससे हमको यथार्थ सर्वज्ञान और आनंद हो।


Thursday, February 18, 2016

शक्ति पीठ का रहस्य


पुराण के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति ने यज्ञ में शिव को निमंत्रण नहीं भेजा। इसको महादेव का अपमान मानकर सति ने दक्ष प्रजापति की यज्ञ कुंडली में कूदकर प्राण त्याग दिए। इस समाचार को सुनने के बाद शिवजी को बहुत क्षोभ और क्रोध उत्पन्न हुआ। वे सति के शव को कंधे पर रख दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर तांडव करने लगे। इससे समस्त ब्रह्मांड सहित देवी, देवता भयभीत हो गए। इसपर सभी देवताओं ने भगवान विष्णु की प्रार्थना की। तदोपरांत भगवान विष्णु ने शिव के मोह की शांति के लिए सति के शव को काटकर विभिन्न स्थानों पर गिरा दिया जो शक्तिपीठ कहलाए। योगिनी हृदय एवं ज्ञानार्णव के अनुसार ऊध्र्वभाग के अंग जहां गिरे वहां वैदिक एवं दक्षिण मार्ग की ओर हृदय से निम्न भाग के अंगोंं के पतन स्थलों में वाम मार्ग की सिद्धि होती है।
    वर्णमाला - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ , लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:। क, ख, ग, घ, ङ। च, छ, ज, झ, ञ। ट, ठ, ड, ढ़,ण। त, थ, द, ध, न। प, फ, ब, भ, म। य, र, ल, व, श, स, ष, ह, क्ष, त्र, ज्ञ। यही 51 अक्षर की वर्णमाला है जिसका अंतिम अक्षर'ज्ञÓ है। इसी माला के आधार पर सति के विभिन्न अंगों का पात हुआ। इससे निष्कर्ष निकलता है कि भूमि वर्ण समाम्नायस्वरुप ही है। इसके अनुसार--

1. सती की योनी जहां गिरा वहां कामरूप नामक पीठ हुआ। यह 'अÓ कार का उत्पत्ति स्थान एवं श्रीविद्या से अधिष्ठित है। यहां शावर मंत्रों की सिद्धि  होती है।

2. सती का स्तन जहां गिरा वहां काशिका पीठ हुआ। वहां 'आÓ कार उत्पन्न हुआ। वहां देहत्याग करने से मुक्ति मिलती है। सती के स्तनों से दो धाराएं निकली जो 'असीÓ और 'वरणाÓ नदी हुई।

3. सती का गुह्य भाग जहां गिरा वहां नैपाल पीठ हुआ। वहां से 'इÓ कार की उत्पत्ति हुई। यह पीठ बाम मार्ग का मूल स्थान है। यहां वैदिक मंत्रों की सिद्धि होती है।

4. सती का बायां नेत्र रौद्र पर्वत पर गिरा। वह महत्पीठ कहलाया। वहां से 'ईÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां वामचार से मंत्र सिद्ध होने पर देवताओं का दर्शन होता है।

5. सती का बायां कान जहां गिरा वह काश्मीर पीठ हुआ। यहां से 'उÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां सभी मंत्रों की सिद्धि होती है।

6. सती का दायां कान जहां गिरा वह कान्यकुब्ज पीठ हुआ। यहां से 'ऊÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां वैदिक मंत्रों की सिद्धि होती है।

7. सती का नाक जहां गिरा वह पूर्णगिरी पीठ हुआ। यहां से 'ऋÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां योग सिद्धी होती है। और मन्ताधिष्ठातृदेव प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं।

8. सती के वामगण्ड स्थल की पतन भूमि पर अर्बुदाचलपीठ हुआ। यहां से 'ॠ Ó कार की उत्पत्ति हुई। यहां बाम मार्ग की सिद्धि होती है।

9. जहां दक्षिण गण्ड स्थल गिरा वह आम्रातकेश्वरपीठ हुआ। यहां से 'लृÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां धनदादि की प्राप्ति होती है।

10. नखों के गिरने के स्थान  एकाम्रपीठ कहलाया। यहां 'लृृÓ कार की उत्पत्ति हुई। यह पीठ विद्या प्रदायक है।

11. त्रिवलि के गिरने के स्थान में त्रिसोतपीठ हुआ। यहां 'एÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां गृहस्थ द्विज को पौष्टिक मंत्रों की सिद्धि होती है।

12. नाभि के गिरने के स्थान में कामकोटिपीठ हुआ। वहां 'ऐÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां समस्त काम मंत्रों की  सिद्धि होती है।

13.अंगुलियों के गिरने के स्थान पर कैलासपीठ हुआ। वहां 'ओÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां करमाला से मंत्र जप करने पर अतिशीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।

14. जहां दांत गिरा वह भृगु पीठ कहलाया। यहां 'औÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां वैदिक मंत्र सिद्ध होते हैं।

15. दाहिना करतल जहां गिरा वह केदारपीठ कहलाया। यहां 'अंÓ की उत्पत्ति हुई। यहीं सर्व सिद्ध पीठ कहलाया।

16. वाम गण्ड की निपात भूमि पर चंद्रपुर पीठ हुआ। यहां 'अ:Ó की उत्पत्ति हुई। यहां सभी मंत्र सिद्ध होते है।

17. जहां मस्तिष्क गिरा वहां श्रीपीठ हुआ। यहां 'कÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां मुख की शुद्धि होती है। कलयुग में यहां पापी जीवों का पहुंचना कठिन है।

18. कन्चुकी की पतन भूमि ज्योतिष्मती पीठ कहलाया। यहां 'खÓ कार की उत्पत्ति हुई। यह नर्मदा तट पर स्थित है। यहां तप करने से जीवन से मुक्ति मिलती है।

19. जहां वक्ष गिरा वह ज्वालामुखी पीठ कहलाया। यहां 'गÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां तपस्या से तेज प्राप्त होता है।

20. बायां स्कंध जहां गिरा वह गालव पीठ कहलाया। यहां 'घÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां राग-ज्ञान की सिद्धि होती है।

21. दाहिना कक्ष जहां गिरा वह कुलान्तक पीठ हुआ। यहां 'ङÓ कार की उत्पत्ति हुई। विद्वेषण, उच्चाटन, मारण के प्रयोग वहां सिद्ध होते हैं।

22. जहां बायां कक्ष गिरा वहां कोट्टकपीठ हुआ। यहां 'चÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां राक्षसों ने सिद्धि प्राप्त की।

23. जठर प्रदेश के पतन स्थल में गोकर्ण पीठ हुआ। यहां 'छÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां तप से तेज व स्मृति की प्राप्ति होती है।

24. त्रिवलियों में से जहां प्रथम वलिका गिरा वह मातुरेश्वर पीठ कहलाया। वहां 'जÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां शैव मंत्र सिद्ध होते हैं।

25.अपर वलि के गिरने का स्थान अट्टहास पीठ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यहां 'झÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां गणेश मंत्रों की सिद्धि होती है।

26. तीसरी वलिका का पतन स्थल विरजपीठ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यहां 'ञÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां विष्णु मंत्रों की सिद्धि होती है।

27. जहां वस्तिका पात हुआ वह राजगृह पीठ कहलाया। यहां 'टÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां ऐन्द्रजालिक मंत्रों की सिद्धि होती है। यहां वेदार्थज्ञान की प्राप्ति होती है।

28. नितम्ब के पतन स्थल को महापथपीठ के रूप में प्रसिद्धि मिली। यहां 'ठÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां जाति दुष्ट ब्राह्मणों ने शरीर त्याग किया और कलयुग में अघोरादि मार्ग को चलाया।

29. जहां जघन(जंघा) का पात हुआ वह कौलगिरि पीठ कहलाया। यहां 'एÓ  कार की उत्पत्ति हुई। यहां वन देवताओं के मंत्रों की सिद्धि होती है।

30. दक्षिण ऊरु के पतनस्थल एलापुर पीठ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। यहां 'ढÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां रोग निवारक आदि मंत्र सिद्ध होते हैं।

31. वाम ऊरू की पतन स्थल महाकालेश्वर पीठ कहलाया। यहां 'णÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां आयुवृद्धिकारक मृत्युंजयादि मंत्र सिद्ध होते हैं।

32.दक्षिण जानु का पतन स्थल जयंती पीठ कहलाया। यहां 'तÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां धनुर्वेद की सिद्धि होती है।

33.वाम जानु का पतन स्थल उज्जयिनी पीठ कहलाया। यहां 'थÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां कवच मंत्रों की सिद्धि होती है।

34. दक्षिण जंघा का पतन स्थल योगिनी पीठ कहलाया। यहां 'दÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां कौलिक मंत्रों की सिद्धि होती है।

35.वाम जंघा का पतन स्थल क्षीरिकापीठ कहलाया। यहां 'धÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां वैतालिक व शावर मंत्रों की सिद्धि होती है।

36.दक्षिण गुल्फ का पतन स्थल हस्तिनापुर पीठ कहलाया। यहां 'नÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां सूर्य मंत्रों की सिद्धि होती है।

37. वाम गुल्फ का पतन स्थल उड्डीशपीठ कहलाया। यहां 'पÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां महातंत्रों की सिद्धि होती है।

38.जहां देह रस का पतन हुआ वह प्रयाग पीठ कहलाया। यहां 'फÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां अन्यान्य अस्थियों का पतन होने से अनेक उप पीठों तथा बगला, चामुंडा, राज राजेश्वरी संज्ञक तथा भुवनेश्वरी उप पीठ हुए। इसलिए प्रयाग तीर्थराज एवं पीठराज कहलाया।

39. दक्षिण पृष्णि का पतन स्थल पष्ठीपीठ कहलाया। यहां 'बÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां पादुका मंत्रों की सिद्धि होती है।

40.वाम पृष्णि का पतन स्थल मायापुर पीठ कहलाया। यहां 'भÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां समस्त मायाओं की सिद्धि होती है।

41.रक्त के पतन स्थल मलय पीठ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। यहां 'मÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां बौद्ध मंत्रों की सिद्धि होती है।

42.पित्त का पतन भूमि श्रीशैल पीठ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। यहां 'यÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां वैष्णव मंत्र सिद्ध होते हैं।

43.मेद का पतन स्थल मेरू पीठ कहलाया। यहां 'रÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां स्वर्णाकर्षण भैरव की सिद्धि होती है।

44.जहां जिह्वाग्र का पतन हुआ वह गिरी पीठ कहलाया। यहां 'लÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां वाक् सिद्धि मिलती है।

45.जहां मज्जा का पतन हुआ वह माहेन्द्र पीठ कहलाया। यहां 'वÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां शाक्त मंत्रों की सिद्धि होती है।

46.दक्षिण अंगुष्ठ का पतन स्थल वामन पीठ कहलाया। यहां 'शÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां समस्त मंत्रों की सिद्धि होती है।

47.वाम अंगुष्ठ का पतन स्थल हिरण्यपुर पीठ कहलाया। यहां 'षÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां वाम मार्ग से सिद्धि की प्राप्ति होती है।

48.रूचि का पतन स्थल महालक्ष्मी पीठ कहलाया। यहां 'सÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां सर्व सिद्धियां प्राप्त होती है।

49.धमनी का पतन स्थल अत्रि पीठ कहलाया। यहां 'हÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां यावत् सिद्धियां प्राप्त होती है।

50.छाया का पतन स्थल छायापीठ कहलाया। यहां 'क्षÓ कार की उत्पत्ति हुई। यहां शारीरिक विकारों और रोग से मुक्ति के मंत्र सिद्ध होते हैं।

51. केश पाश का पतन स्थल क्षत्रपीठ कहलाया यहां 'ज्ञÓ कार का पादुर्भाव हुआ। यहां समस्त सिद्धियां शीघ्रतापूर्वक प्राप्त होती है।

देवी पुराण के अनुसार महाशक्ति का शरीर उनकी लीला विग्रह ही है। जैसे निर्विकार चैतन्य शक्ति के योग से साकार विग्रह धारण करता है। वैसे ही शक्ति भी अधिष्ठान चैतन्य युक्त साकार विग्रह धारण करती है। इसलिए शिव-पार्वती दोनों मिलकर अद्र्धनारीश्वर के रूप में व्यक्त होते हैं। इन शक्ति पीठों में अपनी-अपनी योग्यता और अधिकार के अनुसार इष्ट देवता, मंत्र, पीठ, उप पीठ के साथ संबंध जोडऩे से सिद्धि प्राप्ति होती है।

Tuesday, February 16, 2016

वेद सार 19

शं नो वात: पवताशं नस्तपतु सूर्य:। शं न: कनिक्रद द्देव: पर्जन्योअभिवर्षतु।।
                                                                यजुर्वेद:-32/36/10

भावार्थ :-
शं - सुख कारक शीतल और सुगंध
न: - हमारे लिए
वात: - वायु
पवताम् - चले
तपतु - तपे
सूर्य: - सूर्य
क्रनिक्रदद - गर्जन पूर्वक
देव: - मेघ
अभिवर्षतु - वर्षें।

व्याख्या :- हे सर्व नियंत:। हमारे लिए सुखकारक शीतल मंद और सुगंध वायु सदैव चले। इसी तरह सदैव सुख कारक सूर्य भी तपे तथा सुख का शब्द लिए मेघ भी सदैव गर्जन करते हुए सुखकारक वर्षा वर्षे। जिससे आपके कृपापात्र हमलोग सदैव सुख और आनंद में ही रहें।

Monday, February 15, 2016

वेद सार 18


इन्द्रोविश्वस्य राजति। शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्यदे।।
                                                            यजुर्वेद:-21/36/8

भावार्थ :-
इन्द्र:- हे इन्द्र आप परमेश्वर युक्त हो
विश्वस्य - समस्त संसार के
राजति - राजा हो
शं - परम सुख दायक
न: - हमलोगों के
अस्तु - हो
द्विपदे - पुत्रादि के लिए
चतुष्यदे - हस्ती, अश्व और गवादि पशुओं के लिए।

व्याख्या:- हे इंद्र। आप परमैश्वरयुक्त समस्त संसार के राजा हो, सर्व प्रकाशक हो। हे रक्षक! आपकी कृपा से हमलोगों के जो पुत्रादि हो उसके लिए भी आप परम सुखदायक हों तथा हस्ती,अश्व और गौ आदि पशुओं के लिए भी परम सुख कारक हों जिससे हमलोग सदा आनंदित रहें।


Saturday, February 13, 2016

आत्मदर्शन से ही परम तत्व की प्राप्ति

प्रकृति का यह एक रहस्यपूर्ण नियम है कि खेत तैयारी होते ही बीज मिलता ही है। ठीक उसी प्रकार जब चराचर जगत की सारी संभावनाएं पूर्णरूपेण तैयार हो जाती है तब परमात्मा द्वारा इस ब्रह्मांड रूपी खेत को सृष्टि रूपी बीज प्रदान कर इसकी रचना की जाती है। परमात्मा का यह विज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति का कार्य देखा नहीं जा सकता है पर उसकी अनुभूति स्पष्टत: होती है। विज्ञानमय कोश से उपहित आत्म चैतन्य को व्यवहारिक जीव कहा जाता है जो पंचभूतों के रजोगुण से संपोषित होकर उत्पन्न होता है। और यही प्राण आदि पांच वायु, कर्मेंन्द्रियों से मिलकर प्राणमय कोश का निर्माण करता है। ज्ञानेन्द्रियों से युक्त मन मनोनय कोश है। इसपर भी आत्म चैतन्य का आवरण होता है जो कि व्यवहारिक जीव का उपकरण भी है। इसके घटक मन में किसी विषय का संकल्प होने पर विज्ञानमय कोश बुद्धि उस विषय का निश्चय करती है। इनके अनुसार ही जीवों के अग्रिम व्यवहार संपादित होते हैं। कर्मेंद्रियां, आकाश आदि सूक्ष्म भूतों के व्यस्त राजस अंशों से अलग-अलग क्रम से उत्पन्न होता है। चूंकि इनसे मनुष्य अलग-अलग कार्य संपादित करता है इसलिए इसे कर्मेंद्रिय कहा जाता है। जिसमें रजोगुण की प्रधानता रहती है। इन कोशों में विज्ञानमय कोश ज्ञान शक्ति संपन्नकर्ता तथा मनोमय कोश इच्छा शक्ति से संपन्न करण एवं प्राणमय कोश क्रिया शक्ति से संपन्न कार्य है। यही तीनों कोश मिलकर सूक्ष्म शरीर कहा जाता है।
    ब्रह्मा ईश्वर मनोमय है। विषयों में मन के प्रवृत होने पर वह भी विषयों में प्रवृत होता है और विषयों से मन के निवृत होने पर वह भी विषयों में निवृत होता है। इस प्रकार मन की प्रवृति और निवृति पर अपनी प्रवृति और निवृति के निर्भर होने से वह मनोमय है।
ईश्वर प्राण शरीर है। प्राण का अर्थ है विज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति। आत्मा इन दोनों शक्तियों से संपन्न है। ये दोनों शक्तियां ही आत्मा के शरीर हैं। क्योंकि शरीर साध्य समस्त कार्य इन दोनों शक्तियों से ही संपन्न होते हैं। ये दोनों शक्तियां उसे उसके मनोमय होने से प्राप्त हैं। क्योंकि मनोहीन में विज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के कार्य नहीं देखे जा सकते हैं। उक्त संपूर्ण गुणों से संपन्न ईश्वर हमारे हृदय के अंदर विद्यमान आत्मा है जो समस्त कार्यों का कर्ता, सर्वकाम-सर्व विषयक इच्छा का आश्रय, सभी मनोरम गंधों से युक्त, सभी रमणीक रसों से मंडित इस सारे जगत को चारों ओर से व्याप्त करने वाला है। मन सदा आशक्ति रूपी  मदिरा से मदमस्त रहता है। वह विश्रृंखलित रूप से भिन्न-भिन्न विषयों में इंद्रियों को प्रवर्तित कर पाप और पुण्य के जनक अनेक प्रवृतियों की सृष्टि करता है। इस प्रवृति के फलस्वरूप पुरुष अतिशय अनेक भयंकर दु:ख ज्वाला से जटिल संसार रूपी अग्नि में गिरता है। किंतु नित्यानित्य वस्तु विवेक ज्ञान के अभ्यास से वैराग्य की प्राप्ति करने के बाद मन से आशक्ति रूप मदिरा की महत्ता विनष्ट हो जाती है। इसलिए शांत, तितिक्षु और श्रद्धावित्त होकर आत्मा में ही आत्मा को देखें। क्योंकि सुंदर गतियुक्त समान संबंध संपन्न रूप से प्रकाशमान दो पक्षी एक ही वृक्ष का आश्रय ग्रहण कर अवस्थित है।
  जीव और ईश्वर दो पक्षी हैं। जीव रूपी पक्षी कर्मफलों का भोग करता है और ईश्वर नामक पक्षी बिना कुछ खाये ही प्रकाशमान रहता है। मनुष्य दैहिक, दैविक और भौतिक रूप से जब सामंजस्य स्थापित कर लेता है तभी वह अपनी अन्तरात्मा में समाविष्ट इस सर्वशक्तिमान की सत्ता का अनुभव प्राप्त कर उससे साक्षात्कार करता है जिससे उसमें परम तत्व को समझने की दृष्टि उद्धत होती है। इसके उपरांत ही वह अपने चित्त को पवित्र करने में सक्षम होता है और आत्मदर्शन करता है।
   अत: इससे स्पष्ट है कि परमात्मा ही जीवात्मा का पारमार्थिक स्वरूप है, अर्थात दोनों एक स्वरूप हैं। इसलिए जो मनुष्य इस संसार में अत्यंत प्रेम, धर्मात्मा, विद्या, सत्संग, सुविचारिता, निवेरता, जितेन्द्रियता, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से परमात्मा को स्वीकार करता है, वही मनुष्य यथार्थ सत्य विद्या से संपूर्ण दु:खों से छूटकर परमानंद परमात्मा को विराट रूप में प्राप्त कर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है और वह दुख सागर से छूट जाता है।

वेद सार 17

नम: शम्भवाय च मयोमाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च। नम: शिवाय च शिवतराय च ।।
                                                यजुर्वेद :-26/16/41

भावार्थ :-
 नम: - नमस्कार है
शंभवाय - कल्याण स्वरूप
और मोक्षसुख के करने वाले को
च - और
मयोभवाय - सांसारिक सुख के करने वाले को
शंकराय - जीवों के कल्याण करने वाले को
मयस्कराय - मन, इंद्रिय, प्राण और आत्मा को सुख करने वाले को
शिवाय - मंगलमय को
शिवतराय - अत्यंत कल्याण स्वरूप और कल्याण कारक को

व्याख्या :- हे कल्याण स्वरूप आप सुख स्वरूप और मोक्ष सुख को प्रदान करने वाले हो। आपको नमस्कार है। आप सांसारिक सुख देने वाले हो, आपको नमस्कार है। आप से ही जीवों का कल्याण होता है, अन्य से नहीं। आप ही मन, इंद्रिय, प्राण और आत्मा को सुख प्रदान करने वाले हो। आप अत्यंत कल्याण स्वरूप और कल्याणकारक हो इसलिए आपको हमलोग बारंबार नमस्कार करते हैं।
श्रद्धा और भक्ति से जो भी मनुष्य ईश्वर को प्रणाम करता है उसका सदैव मंगलमय ही होता है।

Friday, February 12, 2016

कटिहार का बेलवा गांव जहां बारहोमास पूजी जाती हैं मां सरस्वती

खास बातें...
कटिहार जिले के बारसोई प्रखंड क्षेत्र स्थित बेलवा गांव के लोग सालभर मां सरस्वती की अराधना करते हैं। इस प्राचीन मंदिर से लोगों की असीम आस्था जुड़ी हुई है। लोग यहां नियमित पूजा अर्चना करते हैं। ग्रामीणों की आराध्य मां सरस्वती ही है। उनकी राय में ज्ञान ही समृद्धि का सबसे बड़ा स्त्रोत है।

अनोखा है मां सरस्वती का मंदिर
 प्राचीन सरस्वती स्थान में स्थापित मूर्ति महाकाली, महागौरी और महासरस्वती का संयुक्त रुप है। यहां के लोग इसे नील सरस्वती कहते हैं। पुजारी राजीव कुमार चक्रवर्ती का कहना है कि बेलवा से चार किलोमीटर दूर पर वाड़ी हुसैनपुर स्थित है। जहां अब भी राज घरानों का अवशेष है। मान्यता है कि महाकवि कालीदास का ससुराल यही था। कालिदास अपनी पत्नी से दुत्कार खाने के बाद इसी सरस्वती स्थान में आकर उपासना की थी। यद्यपि, इसका इतिहास कहीं नहीं है। लेकिन ग्रामीणों का दावा है कि महाकवि कालिदास उज्जैन में जाकर प्रसिद्ध हुए थे। उससे पहले उनका जीवन गुमनाम था। उन्हें कहां ज्ञान प्राप्त हुआ, इसकी जानकारी किसी पुस्तक में नहीं है। ऐसे में बेलवा में उनकी सिद्धि की बात को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है।
सरस्वती स्थान पूजा कमेटी के अध्यक्ष रतन कुमार साह ने बताया कि चमकीले पत्थर वाली नील सरस्वती की प्रतिमा वर्ष 1989 में चोरी हो गई। लेकिन, ग्रामीणों की आस्था कम नहीं हुई। मां सरस्वती की स्थाई प्रतिमा स्थापित कर ग्र्रामीण साल भर पूजा-अर्चना करते हैं।

कभी दी जाती थी बलि 
 पुजारी राजीव चक्रवर्ती का कहना है कि तीनों देवियों के संयुक्त रूप के कारण यहां पूर्व में बलि देने की प्रथा भी थी। परंतु सात्विक प्रवृत्ति की देवी मानी जाने के कारण मां सरस्वती स्थान में सन 1995 से बलि पर पूरी तरह रोक लगा दी गई है।

ग्रामीण मानते हैं अनुपम उपहार 
  जयंत चक्रवर्ती, मोहम्मद आजाद, मोहर अकबर अली, तारुणी कुमार, मोहम्मद इसराफूल,  मोहमद नजरुल वैद्यनाथ दास, बलराम मोदक, पप्पू कुमार दास, सुशील शर्मा आदि इस मंदिर को गांव के लिए अनुपम उपहार मानते हैं। उन्होंने कहा कि बेशक यहां हिन्दू समुदाय के लोग ही पूजा-अर्चना करते हैं, लेकिन मुस्लिम समुदाय के लोग भी इस तोहफे को नायाब मानते हैं। 

वेद सार 16

अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।
इदमहमनृतान्सत्यमुपैभि।।
                                                                        यजुर्वेद-1/ 15

भावार्थ:-
अग्ने-हे सच्चिदानंद स्वप्रकाशस्वरूप ईश्वराग्ने
व्रतपते -हे व्रतों के पालक ईश्वर
व्रतम-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ, सन्यास आदि व्रतों का
चरिष्यामि-मैं आचरण करूंगा
तत्-मैं सभ्य विद्वान
शकेयम्-होऊॅंं
 मे-मेरी
राध्यताम्-सम्यक सिद्ध करें
इदम्-इस
अहम्-मैं
अनृतात-अमृत
सत्यम्-सत्य
व्यभिचार-नाश नहीं होता
उपैमि-प्राप्त होऊॅं।

व्याख्या:-
हे सच्चिदानंद
स्वप्रकाशस्वरूप ईश्वराग्ने। मैं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ, सन्यास आदि सत्यव्रतों का आचरण करूंगा। इसलिए कृपा कर आप मेरे इस सम्यक व्रत को सिद्ध करें। मैं अनित्य देहादि पदार्थों से अलग होकर इस विद्यालक्षणादि धर्म को प्राप्त होऊॅंं। मेरी इस इच्छा को आप पूरा करें जिससे मैं सभ्य, विद्वान, सत्याचरनी आप की भक्तियुक्त धर्मात्मा होऊॅंं।

Thursday, February 11, 2016

आखिर कहां खोती जा रही है सरस्वती

मां शारदे तुम कहां वीणा बजा रही हो.... 
 वैदिक युगों की सप्तसिन्धुओं में श्रेष्ठ सरस्वती जिसकी मौजूदगी ने ही प्रयाग की उस धरती को संगम के आभूषणों से अलंकृत किया और जिसकी प्रतिमा गंगा से भी कहीं ज्यादा पवित्र और दु:खमोचन रूप में प्रस्तुत थी कहां खो गयी। तदन्तर महाकाव्य और पुराणों के युगों से अधिष्ठापित मां भारती, शारदा, सप्तवर, वाक्देवी और ब्राह्माणी आदि प्रकृति की निराकार शक्ति संतति और ज्ञान की रक्षा और पालन का दायित्व ग्रहण करने वाली मां सरस्वती भौतिकवादिता व साम्प्रदायवाद की अंधी दौड़ में आज कहां खोती जा रही है।
आज सरस्वती का स्वरूप ज्ञान की देवी के रूप में केवल नाम के लिए तथा ब्रह्मा की पत्नी के रूप में संकुचित होकर रह गया है। इतना ही नहीं यह आर्यावर्त के कुछ हिस्सों में सिर्फ धार्मिक कर्मकांडों के हद तक ही सिमट चुकी है। अपने सच्चे अर्थों में सरस्वती का वृहद रूप खो चुका है। पहले गुरुकुलों, पाठशालाओं आदि से लेकर घर-घर में सरस्वती की आराधना और वंदन किया जाता था। क्योंकि वह प्रामाणिक  तौर पर ज्ञान, बुद्धि और विवेक की एक मात्र अधिष्ठात्री देवी थी। स्कूलों, कॉलेजों, पुस्कालयों आदि मेंं इसके पूजनोत्सव के लिए पहले से व्यापक तैयारियां की जाती थी। जिसके आयोजन में सभी शिक्षकगण व विद्यार्थी पूर्णरूपेण जुड़े रहते थे। वह बगैर राग-द्वेष के मां के पूजनोत्सव हेतु समर्पित दिखते थे।
  कालांतर में पश्चिमी सभ्यता का अंधाधुंध अनुकरण राजनीति का तुष्टिकरण स्वरूप, मानव का दानवीकरण व राष्ट्रवाद का क्षेत्रवाद में संकुचन आदि के कारण मां भारती भारत में रह ही नहीं गई है। मां के गर्भ में भू्रण का परिधान और वात्सल्यता के स्तनपान की अब कोई आवश्यकता जो नहीं रह गयी है।
अब कुपुत्रो जायेत् कचिदपि कुमाता न भवति का रूप जो बदल गया है। आज के सुपुत्र कुपुत्र कैसे हो सकते है। उनमें स्वार्थपरायणता का नशा, अहं और भौतिकवादिता काजो जुनून चढ़ा है। माता आज भौतिकवादिता और भोगवादिता के अस्त्रों से जो लैस होकर पुत्रों की रक्षा कर रही है। झूठी शान, मान-मर्यादा के नशे ने उसे वासना से वशीभूत जो कर दिया है। उसे सुरा और सुन्दरी की आवश्यकता होने लगी है।
इतिहास गवाह है, कि वैदिक युगों से लेकर आज तक जब भी देवताओं, दानवों और मानवों ने इन दोनों के प्रति आशक्ति जताई है तब-तब उन पर विपत्ति के काले बादल छाये हैं। इतना ही नहीं कई बार तो उनके समस्त सम्प्रदाय का भी विनाश हुआ है। आज मानव से मानवीयता का लोप क्यों होता जा रहा है? उनमें सामाजिक मानसिक आदि कुंठाएं क्यों अधिकाधिक पनप रही हैं? जिसके चलते वे सामाजिक रिश्तों की बात छोड़ अपने खून के संबंधों से भी वासनामायी रस और दगावाजी का आनंद लेने से नहीं चूकते।
ज्ञान का स्वरूप अध्यात्मवाद, मानवतावाद आदि से बदल कर भौतिकवाद के रूप में परिणत हो गया है।
राजनीति के कुर्सीकरण व तुष्टिकरण सिद्धांत ने तो इसे इस प्रकार निर्वस्त्र कर दिया कि अब इसे अपने बेइज्जती की पुष्टि के लिए गवाह की जरूरत ही नहीं रह गयी है। राजनीतिक तुष्टिकरण का पहला शिकार तो हमारी सभ्यता और संस्कृति ही हुई है। समाज मिजाज के अनुसार ढलने लगा है। धर्मनिरपेक्षता धर्मसापेक्षता में बदल कर रह गयी है। मानवता दानवता का रूप ले चुकी है। इसीलिए तो वंदे मातरम साम्प्रदायिक, जन-गण-मन क्षेत्रवाद और पुरस्कारोपरक और सरस्वती केवल हिन्दुओं की होकर रह गयी है। आज स्कूलों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों आदि में सरस्वती पूजा नहीं हो सकती क्योंकि वहां अन्य सम्प्रदाय के छात्र जो पढ़ते हंै।
 सरस्वती अब केवल हिन्दुओं को ही विद्या देती है, अन्य सम्प्रदायों वालों को नहीं। ज्ञान केवल हिन्दुओं के लिए जरूरी है अन्य के लिए नहीं। आज सरस्वती के हाथों में वीणा और पुस्तक रूपी  साज के बदले भौतिकवाद और सम्प्रदायवाद जैसे साजों ने लिया है। अब इसके लिए प्रयुक्त- विद्या समस्तास्तव देवी भेदा... और तमसो मां ज्योतिर्गमय्... जैसे संबोधनों की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी है।
अभी भी समय है कि हम सभी भारतवासी मिलकर ज्ञान की देवी से अपनी गलती के लिए क्षमा मांगे उसे अधिष्ठिपित करें। ताकि हममें मानवता और भाईचारे के गुणों का तार पुन: झंकृत हो सके और हम विश्व मानवता की अग्रिम पंक्ति में खड़े हो सके। मां तो मां होती है चाहे वह हिन्दुओं की हो या मुसलमानों की, ईसाईयों की  या फिर किसी की भी। वह तो वात्सल्यता और करूणामयी दृष्टि से सदा सद्मार्ग और सद्बुद्धि देती आयी है। सरस्वती यह तो नहीं कहती कि अमुक ज्ञान मुसलमानों के लिए और अमुक ज्ञान ईसाइयों के लिए है। ज्ञान तो ज्ञान है जो सबों के लिए समान महत्व का है। जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत हिन्दुओं के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना अन्य के लिए। जिस प्रकार एक सूर्य चाहे वह विश्व का कोई भी भाग हो, किसी भी सम्प्रदाय के लोग हों सभी को समान  शक्ति व रोशनी प्रदान करता है। उसी प्रकार मां भारती बिना किसी भेद-भाव के सबों को ज्ञान का रसास्वादन कराती है। अत: हमें नैसर्गिक सत्य को स्वीकार करते हुए ज्ञान की देवी की वांड््मयता को स्वीकार करना होगा।  तभी हम सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर मानव कहलाने के काबिल हो सकेंगे। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब हमें पता नहीं होगा कि आखिर सरस्वती भी क्या बला थी।

वेद सार 15

सेमं न: काममापृण गोभिरश्वै: शतक्रतो।
स्तवाम त्वा स्वाध्य:।।
                                            ऋग्वेद 1/1/31/9

भावार्थ:-
 स:- सो आप
इमम् - इस
न: - हमारे
कामम् - काम को
आपृण-परिपूर्ण करो
गोभि:-गाय, उत्तम इन्द्रिय, श्रेष्ठ
पशुओं से
अश्वै:-सर्वोत्तम अश्व विद्या और चक्रवर्ती राज्यैश्वर्य से
शतक्रतो-हे अनंत क्रियेश्वर
स्तवाम-हम स्तवन करें
त्वा-आपका
स्वाध्य:-सुबुद्धियुक्त होके।

व्याख्या:-हे अनंत क्रियेश्वर आप
असंख्यात विज्ञानादि यज्ञों से प्राप्य
तथा अनंतक्रियायुक्त हैं। इसलिए आप गाय, उत्तम इन्द्रिय, श्रेष्ठ पशु, सर्वोत्तम अश्वविद्या तथा श्रेष्ठ घोड़ा आदि पशुओं और चक्रवर्ती राज्यैश्वय्र्य से हमारे काम को परिपूर्ण करें। जिससे हम सुबुद्धियुक्त होकर उत्तम प्रकार से आप की स्तुति
करें। हमें दृढ़ विश्वास है कि आप के बिना दूसरा कोई किसी को काम पूर्ण नहीं कर सकता। आपको छोड़कर जो दूसरे का ध्यान और याचना करता है उसके सब काम नष्ट हो जाते हैं।


Wednesday, February 10, 2016

वेद सार 14


सोमं गीर्भिष्टवा वयं वद्र्धयामो वचोविद:।
सुमृलीको न आविश।। 
                                          ऋग्वेद -1/6/21/11

भावार्थ:-
सोम-हे सर्वजगदुत्पादकेश्वर
गीर्भि:-स्तुति समूह से
त्वा-आपको
वयम्-हमलोग
वद्र्धयाम:-सर्वोपरि विराजमान मानते हैं
वचोविद:-शास्त्रवित् हम लोग
सुमृलीको-सुन्दर सुख देने वाले
न:-हमको
आविश-आप आवेश(चार्ज) करो।

व्याख्या:-हे सर्वजगदुत्पादकेश्वर आपको शास्त्रवित् हमलोग स्तुतिसमूह से सर्वोपरि विराजमान मानते हैं। क्योंकि हमको सुन्दर सुख देने वाले आप ही हो। इसलिए कृपा करके हमको आप आवेश करो जिससे हमलोग अविद्या के अंधकार से छूटकर विद्यासूर्य को प्राप्त होके आनंदित हों।


Tuesday, February 2, 2016

व़ेद सार 13


मेधां मे वरुणो ददातु मेधामग्नि: प्रजापति:।
मेधामिन्द्रश्च वापुश्चं मेधां ददातु मे स्वाहा।।
                                       यजुर्वेद:- 32। 15
भावार्थ:-
मेधाम्-सर्वविद्यासम्पन्न बुद्धि
मे-मुझको, वरूण:-वरणीय आनंदस्वरूप
ददातु-कृपा से दीजिये अग्नि:-विज्ञानमय विज्ञानप्रद प्रजापति:-सब संसार के अधिष्ठाता पालक
इन्द्र-परमैश्वर्यवान्, च-तथा वायु-विज्ञानमय अनंतबल
मेधा-बुद्धि, ददातु-दीजिये।

व्याख्या:-हे सर्वोत्कृष्टेश्वर आप आनंद स्वरूप हो। कृपा कर आप मुझको सर्वविद्या संपन्न बुद्धि दीजिये। हे विज्ञानमय, विज्ञानप्रद प्रजापति, समस्त संसार के अधिष्ठाता आप मुझको अत्युत्तम बुद्धि दीजिए।

Monday, February 1, 2016

वेद सार 12

यां मेधां देवगणा: पितरश्चोपासते।
तथा मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।
                 यजुर्वेद:-32। 14
भावार्थ:-
याम्-जिस
मेधाम्-यथार्थ धारणा वाली बुद्धि को
देवगणा:-विद्वानों के पितर
च-तथा, उपासते-धारण करते हैं
तया-उससे, माम्-मुझको
अद्य-इसी समय, मेधया-बुद्धि के साथ
अग्ने-हे सर्वज्ञाग्ने परमात्मन्
मेधाविनम्-मेधावी
कुरु-कर, स्वाहा-इस।

व्याख्या:-हे सर्वज्ञाग्ने परमात्मन् जिस विज्ञानवती यथार्थ धारणावाली बुद्धि को विद्वानों के पितर धारण करते हैं तथा यथार्थ पदार्थ विज्ञान वाले पितर जिस बुद्धि के उपाक्षित होते हैं उस बुद्धि के साथ इसी समय कृपा से मुझको मेधावी करें। इसको आप अनुग्रह और प्रीति से स्वीकार कीजिए जिससे मेरी सारी जड़ता दूर हो।