Saturday, February 27, 2016

वेद सार 25

त्वं हि विश्वतोमुख विश्वत: परिभूरसि।
अप न: शोशुचदघम्।।
                                       ऋग्वेद:-1/7/5/6

भावार्थ:-त्वम्-तू, हि-हो विश्वतोमुख-हे सर्वतोमुख अग्ने विश्वत:-सब जगत्, सब ठिकानों में परिभू-व्याप्त
असि-हो
न:-हमारा
अप-शोशुचत्-सब नष्ट हो जाय अधम्-पाप।

व्याख्या:-हे परमात्मन् तू ही सब जगत में व्याप्त हो। अतएव आप विश्वतोमुख हो। हे सर्वतोमुख अग्ने, आप स्वशक्ति से जब जीवों के हृदय में सत्योपदेश नित्य ही कर रहे हो, वही आप का मुख है। हे कृपालो आप की इच्छा से हमारा पाप सब नष्ट हो जाय जिससे हमलोग निष्पाप होकर आपकी भक्ति और आज्ञा पालन में नित्य तत्पर रहें।

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