Monday, February 22, 2016

तंत्र-मंत्र-यंत्र - भाग1


धर्मशास्‍त्र और विज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं।
तंत्र, मंत्र और यंत्र हिन्दू धर्म की प्राचीन विद्या है। तंत्र का पदार्थ विज्ञान, रसायन शास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष एवं ध्यानयोग आदि विधाओं से गहरा संबंध है। तंत्र की प्रयोगशाला हमारा शरीर है। तंत्र का उद्देश्य शरीर में विद्यमान शक्ति केंद्रों को जागृत कर विशिष्ट कार्यों को सिद्ध करना।

तंत्र
संस्कृत के 'तनÓ धातु से तंत्र शब्द की उत्पत्ति हुई है। 'तनÓ का अर्थ- विस्तार एवं र्सवव्यापकता है। 'त्रÓ का अर्थ है त्राण। यानी मुक्ति करने वाला या लाभ करने वाला।
यह एक उपासना पद्धति है। भगवान शिव इसके जन्मदाता हैं। इसके सिद्धांत को गुप्त रखने का प्रावधान है। झाडÞ-फूंक, जादू-टोने से भी इसका गहरा संबन्ध है।

यंत्र
यंत्र कई प्रकार के होते हैं। इसे सामथ्र्य एवं आवश्यकता के अनुसार स्वर्ण, रजत, ताम्र या भोजपत्र पर शुभ मुहूर्त में बनाया जाता है। यंत्रों में विन्दु, त्रिभुज, चतुर्भुज, स्वस्तिक, कमल, पदमदल इत्यादि बने होते हंै।
यंत्रों पर ध्यान केन्द्रित करके साधक अपने इष्टदेव या किसी लोक-परलोक की आत्मा या शक्ति से संंबंध स्थापित कर सकते हैं। महर्षि दत्तात्रेय को यंत्र विद्या का जनक माना जाता है। क्योंकि भगवान शिव ने सारे मंत्र-तंत्र को दानवों के दुरुपयोग से बचाने के लिए कीलित कर दिया। बाद में महर्षि दत्तात्रेय ने ज्यामितिय कला के द्वारा वृत्त, त्रिकोण, अद्र्धवृत्त, चतुष्कोण को आधार बनाकर बीज मंत्रों की सहायता से इन शक्तियों को रेखांकित करके विशिष्ट पूजा-यंत्रों का आविष्कार किया। गुरु गोरखनाथ एवं शंकराचार्य का समय तंत्र विद्या का स्वर्णिम काल था।

मंत्र
मंत्र शब्द मन एवं त्र के संयोग से बना है। यहां मन का अर्थ- विचार है और त्र का अर्थ-मुक्ति है। यानी गलत विचारों से मुक्ति। मंत्र विशिष्ट शब्दों का एक जोडÞ है। जिसका उच्चारण विशिष्ट ध्वनि, तरंग, कंपन एवं  अदृश्य आकृतियों को जन्म देता है। इस प्रकार मंत्र द्वारा निराकार शक्तियां साकार होने लगती है। मंत्र के लगातार जाप से उत्पन्न घ्वनि वायुमंडल में छिपी शक्तियों को नियंत्रित करता है और उस पर साधक का प्रभाव एवं अधिकार हो जाता है।
मंत्रों की उत्पति वेदों और पुराणों से हुई है। वेदों का हर श्लोक एक मंत्र है। वेद के अनुसार मंत्र दो प्रकार के होते हैं।
1. ध्वन्यात्मक 2. कार्यात्मक
ध्वन्यात्मक मंत्रों का कोई विशेष अर्थ नहीं होता है। इसकी ध्वनि ही बहुत प्रभावकारी होती है। क्योंकि यह सीधे वातावरण और शरीर में प्रवेश कर एक अलौकिक शक्ति से परिचय कराती है। इस प्रकार के मंत्र को बीज मंत्र कहते हंै।
जैसे- ओं, ऐं, ह्रीं, क्लीं, श्रीं, अं, कं, चं आदि।

कार्यात्मक मंत्र:-इसका उपयोग पूजा पाठ में किया जाता है। प्रत्येक मंत्र का अलग-अलग उपयोग एवं प्रभाव है। जैसे 'ऊॅंÓ का संबन्ध नाभि से है। नाभि से जो श्वास के साथ उच्चारण होता है वह सीधे हमारी कुंडलिनी तक पहुंचता है। वैसे मंत्रों का उच्चारण मानसिक रुप से ही लाभकारी होता है
 लेकिन बीज मंत्रों का उच्चारण ध्वनि के साथ करना लाभकारी होता है। दोनों आंखों के मध्य के भाग को तीसरा नेत्र कहा जाता है। यहां पर छठा चक्र अवस्थित है। इस बीज मंत्र के प्रभाव से नाभि से लेकर मस्तिष्क के भीतर बने सहस्त्र दल कमल तक एक स्वरूप अपने आप बनता है। इसके लगातार उच्चारण से सिद्धि प्राप्त होती है।

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