Thursday, February 11, 2016

आखिर कहां खोती जा रही है सरस्वती

मां शारदे तुम कहां वीणा बजा रही हो.... 
 वैदिक युगों की सप्तसिन्धुओं में श्रेष्ठ सरस्वती जिसकी मौजूदगी ने ही प्रयाग की उस धरती को संगम के आभूषणों से अलंकृत किया और जिसकी प्रतिमा गंगा से भी कहीं ज्यादा पवित्र और दु:खमोचन रूप में प्रस्तुत थी कहां खो गयी। तदन्तर महाकाव्य और पुराणों के युगों से अधिष्ठापित मां भारती, शारदा, सप्तवर, वाक्देवी और ब्राह्माणी आदि प्रकृति की निराकार शक्ति संतति और ज्ञान की रक्षा और पालन का दायित्व ग्रहण करने वाली मां सरस्वती भौतिकवादिता व साम्प्रदायवाद की अंधी दौड़ में आज कहां खोती जा रही है।
आज सरस्वती का स्वरूप ज्ञान की देवी के रूप में केवल नाम के लिए तथा ब्रह्मा की पत्नी के रूप में संकुचित होकर रह गया है। इतना ही नहीं यह आर्यावर्त के कुछ हिस्सों में सिर्फ धार्मिक कर्मकांडों के हद तक ही सिमट चुकी है। अपने सच्चे अर्थों में सरस्वती का वृहद रूप खो चुका है। पहले गुरुकुलों, पाठशालाओं आदि से लेकर घर-घर में सरस्वती की आराधना और वंदन किया जाता था। क्योंकि वह प्रामाणिक  तौर पर ज्ञान, बुद्धि और विवेक की एक मात्र अधिष्ठात्री देवी थी। स्कूलों, कॉलेजों, पुस्कालयों आदि मेंं इसके पूजनोत्सव के लिए पहले से व्यापक तैयारियां की जाती थी। जिसके आयोजन में सभी शिक्षकगण व विद्यार्थी पूर्णरूपेण जुड़े रहते थे। वह बगैर राग-द्वेष के मां के पूजनोत्सव हेतु समर्पित दिखते थे।
  कालांतर में पश्चिमी सभ्यता का अंधाधुंध अनुकरण राजनीति का तुष्टिकरण स्वरूप, मानव का दानवीकरण व राष्ट्रवाद का क्षेत्रवाद में संकुचन आदि के कारण मां भारती भारत में रह ही नहीं गई है। मां के गर्भ में भू्रण का परिधान और वात्सल्यता के स्तनपान की अब कोई आवश्यकता जो नहीं रह गयी है।
अब कुपुत्रो जायेत् कचिदपि कुमाता न भवति का रूप जो बदल गया है। आज के सुपुत्र कुपुत्र कैसे हो सकते है। उनमें स्वार्थपरायणता का नशा, अहं और भौतिकवादिता काजो जुनून चढ़ा है। माता आज भौतिकवादिता और भोगवादिता के अस्त्रों से जो लैस होकर पुत्रों की रक्षा कर रही है। झूठी शान, मान-मर्यादा के नशे ने उसे वासना से वशीभूत जो कर दिया है। उसे सुरा और सुन्दरी की आवश्यकता होने लगी है।
इतिहास गवाह है, कि वैदिक युगों से लेकर आज तक जब भी देवताओं, दानवों और मानवों ने इन दोनों के प्रति आशक्ति जताई है तब-तब उन पर विपत्ति के काले बादल छाये हैं। इतना ही नहीं कई बार तो उनके समस्त सम्प्रदाय का भी विनाश हुआ है। आज मानव से मानवीयता का लोप क्यों होता जा रहा है? उनमें सामाजिक मानसिक आदि कुंठाएं क्यों अधिकाधिक पनप रही हैं? जिसके चलते वे सामाजिक रिश्तों की बात छोड़ अपने खून के संबंधों से भी वासनामायी रस और दगावाजी का आनंद लेने से नहीं चूकते।
ज्ञान का स्वरूप अध्यात्मवाद, मानवतावाद आदि से बदल कर भौतिकवाद के रूप में परिणत हो गया है।
राजनीति के कुर्सीकरण व तुष्टिकरण सिद्धांत ने तो इसे इस प्रकार निर्वस्त्र कर दिया कि अब इसे अपने बेइज्जती की पुष्टि के लिए गवाह की जरूरत ही नहीं रह गयी है। राजनीतिक तुष्टिकरण का पहला शिकार तो हमारी सभ्यता और संस्कृति ही हुई है। समाज मिजाज के अनुसार ढलने लगा है। धर्मनिरपेक्षता धर्मसापेक्षता में बदल कर रह गयी है। मानवता दानवता का रूप ले चुकी है। इसीलिए तो वंदे मातरम साम्प्रदायिक, जन-गण-मन क्षेत्रवाद और पुरस्कारोपरक और सरस्वती केवल हिन्दुओं की होकर रह गयी है। आज स्कूलों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों आदि में सरस्वती पूजा नहीं हो सकती क्योंकि वहां अन्य सम्प्रदाय के छात्र जो पढ़ते हंै।
 सरस्वती अब केवल हिन्दुओं को ही विद्या देती है, अन्य सम्प्रदायों वालों को नहीं। ज्ञान केवल हिन्दुओं के लिए जरूरी है अन्य के लिए नहीं। आज सरस्वती के हाथों में वीणा और पुस्तक रूपी  साज के बदले भौतिकवाद और सम्प्रदायवाद जैसे साजों ने लिया है। अब इसके लिए प्रयुक्त- विद्या समस्तास्तव देवी भेदा... और तमसो मां ज्योतिर्गमय्... जैसे संबोधनों की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी है।
अभी भी समय है कि हम सभी भारतवासी मिलकर ज्ञान की देवी से अपनी गलती के लिए क्षमा मांगे उसे अधिष्ठिपित करें। ताकि हममें मानवता और भाईचारे के गुणों का तार पुन: झंकृत हो सके और हम विश्व मानवता की अग्रिम पंक्ति में खड़े हो सके। मां तो मां होती है चाहे वह हिन्दुओं की हो या मुसलमानों की, ईसाईयों की  या फिर किसी की भी। वह तो वात्सल्यता और करूणामयी दृष्टि से सदा सद्मार्ग और सद्बुद्धि देती आयी है। सरस्वती यह तो नहीं कहती कि अमुक ज्ञान मुसलमानों के लिए और अमुक ज्ञान ईसाइयों के लिए है। ज्ञान तो ज्ञान है जो सबों के लिए समान महत्व का है। जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत हिन्दुओं के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना अन्य के लिए। जिस प्रकार एक सूर्य चाहे वह विश्व का कोई भी भाग हो, किसी भी सम्प्रदाय के लोग हों सभी को समान  शक्ति व रोशनी प्रदान करता है। उसी प्रकार मां भारती बिना किसी भेद-भाव के सबों को ज्ञान का रसास्वादन कराती है। अत: हमें नैसर्गिक सत्य को स्वीकार करते हुए ज्ञान की देवी की वांड््मयता को स्वीकार करना होगा।  तभी हम सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर मानव कहलाने के काबिल हो सकेंगे। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब हमें पता नहीं होगा कि आखिर सरस्वती भी क्या बला थी।

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