Saturday, February 13, 2016

आत्मदर्शन से ही परम तत्व की प्राप्ति

प्रकृति का यह एक रहस्यपूर्ण नियम है कि खेत तैयारी होते ही बीज मिलता ही है। ठीक उसी प्रकार जब चराचर जगत की सारी संभावनाएं पूर्णरूपेण तैयार हो जाती है तब परमात्मा द्वारा इस ब्रह्मांड रूपी खेत को सृष्टि रूपी बीज प्रदान कर इसकी रचना की जाती है। परमात्मा का यह विज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति का कार्य देखा नहीं जा सकता है पर उसकी अनुभूति स्पष्टत: होती है। विज्ञानमय कोश से उपहित आत्म चैतन्य को व्यवहारिक जीव कहा जाता है जो पंचभूतों के रजोगुण से संपोषित होकर उत्पन्न होता है। और यही प्राण आदि पांच वायु, कर्मेंन्द्रियों से मिलकर प्राणमय कोश का निर्माण करता है। ज्ञानेन्द्रियों से युक्त मन मनोनय कोश है। इसपर भी आत्म चैतन्य का आवरण होता है जो कि व्यवहारिक जीव का उपकरण भी है। इसके घटक मन में किसी विषय का संकल्प होने पर विज्ञानमय कोश बुद्धि उस विषय का निश्चय करती है। इनके अनुसार ही जीवों के अग्रिम व्यवहार संपादित होते हैं। कर्मेंद्रियां, आकाश आदि सूक्ष्म भूतों के व्यस्त राजस अंशों से अलग-अलग क्रम से उत्पन्न होता है। चूंकि इनसे मनुष्य अलग-अलग कार्य संपादित करता है इसलिए इसे कर्मेंद्रिय कहा जाता है। जिसमें रजोगुण की प्रधानता रहती है। इन कोशों में विज्ञानमय कोश ज्ञान शक्ति संपन्नकर्ता तथा मनोमय कोश इच्छा शक्ति से संपन्न करण एवं प्राणमय कोश क्रिया शक्ति से संपन्न कार्य है। यही तीनों कोश मिलकर सूक्ष्म शरीर कहा जाता है।
    ब्रह्मा ईश्वर मनोमय है। विषयों में मन के प्रवृत होने पर वह भी विषयों में प्रवृत होता है और विषयों से मन के निवृत होने पर वह भी विषयों में निवृत होता है। इस प्रकार मन की प्रवृति और निवृति पर अपनी प्रवृति और निवृति के निर्भर होने से वह मनोमय है।
ईश्वर प्राण शरीर है। प्राण का अर्थ है विज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति। आत्मा इन दोनों शक्तियों से संपन्न है। ये दोनों शक्तियां ही आत्मा के शरीर हैं। क्योंकि शरीर साध्य समस्त कार्य इन दोनों शक्तियों से ही संपन्न होते हैं। ये दोनों शक्तियां उसे उसके मनोमय होने से प्राप्त हैं। क्योंकि मनोहीन में विज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के कार्य नहीं देखे जा सकते हैं। उक्त संपूर्ण गुणों से संपन्न ईश्वर हमारे हृदय के अंदर विद्यमान आत्मा है जो समस्त कार्यों का कर्ता, सर्वकाम-सर्व विषयक इच्छा का आश्रय, सभी मनोरम गंधों से युक्त, सभी रमणीक रसों से मंडित इस सारे जगत को चारों ओर से व्याप्त करने वाला है। मन सदा आशक्ति रूपी  मदिरा से मदमस्त रहता है। वह विश्रृंखलित रूप से भिन्न-भिन्न विषयों में इंद्रियों को प्रवर्तित कर पाप और पुण्य के जनक अनेक प्रवृतियों की सृष्टि करता है। इस प्रवृति के फलस्वरूप पुरुष अतिशय अनेक भयंकर दु:ख ज्वाला से जटिल संसार रूपी अग्नि में गिरता है। किंतु नित्यानित्य वस्तु विवेक ज्ञान के अभ्यास से वैराग्य की प्राप्ति करने के बाद मन से आशक्ति रूप मदिरा की महत्ता विनष्ट हो जाती है। इसलिए शांत, तितिक्षु और श्रद्धावित्त होकर आत्मा में ही आत्मा को देखें। क्योंकि सुंदर गतियुक्त समान संबंध संपन्न रूप से प्रकाशमान दो पक्षी एक ही वृक्ष का आश्रय ग्रहण कर अवस्थित है।
  जीव और ईश्वर दो पक्षी हैं। जीव रूपी पक्षी कर्मफलों का भोग करता है और ईश्वर नामक पक्षी बिना कुछ खाये ही प्रकाशमान रहता है। मनुष्य दैहिक, दैविक और भौतिक रूप से जब सामंजस्य स्थापित कर लेता है तभी वह अपनी अन्तरात्मा में समाविष्ट इस सर्वशक्तिमान की सत्ता का अनुभव प्राप्त कर उससे साक्षात्कार करता है जिससे उसमें परम तत्व को समझने की दृष्टि उद्धत होती है। इसके उपरांत ही वह अपने चित्त को पवित्र करने में सक्षम होता है और आत्मदर्शन करता है।
   अत: इससे स्पष्ट है कि परमात्मा ही जीवात्मा का पारमार्थिक स्वरूप है, अर्थात दोनों एक स्वरूप हैं। इसलिए जो मनुष्य इस संसार में अत्यंत प्रेम, धर्मात्मा, विद्या, सत्संग, सुविचारिता, निवेरता, जितेन्द्रियता, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से परमात्मा को स्वीकार करता है, वही मनुष्य यथार्थ सत्य विद्या से संपूर्ण दु:खों से छूटकर परमानंद परमात्मा को विराट रूप में प्राप्त कर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है और वह दुख सागर से छूट जाता है।

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