Friday, February 12, 2016

वेद सार 16

अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।
इदमहमनृतान्सत्यमुपैभि।।
                                                                        यजुर्वेद-1/ 15

भावार्थ:-
अग्ने-हे सच्चिदानंद स्वप्रकाशस्वरूप ईश्वराग्ने
व्रतपते -हे व्रतों के पालक ईश्वर
व्रतम-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ, सन्यास आदि व्रतों का
चरिष्यामि-मैं आचरण करूंगा
तत्-मैं सभ्य विद्वान
शकेयम्-होऊॅंं
 मे-मेरी
राध्यताम्-सम्यक सिद्ध करें
इदम्-इस
अहम्-मैं
अनृतात-अमृत
सत्यम्-सत्य
व्यभिचार-नाश नहीं होता
उपैमि-प्राप्त होऊॅं।

व्याख्या:-
हे सच्चिदानंद
स्वप्रकाशस्वरूप ईश्वराग्ने। मैं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ, सन्यास आदि सत्यव्रतों का आचरण करूंगा। इसलिए कृपा कर आप मेरे इस सम्यक व्रत को सिद्ध करें। मैं अनित्य देहादि पदार्थों से अलग होकर इस विद्यालक्षणादि धर्म को प्राप्त होऊॅंं। मेरी इस इच्छा को आप पूरा करें जिससे मैं सभ्य, विद्वान, सत्याचरनी आप की भक्तियुक्त धर्मात्मा होऊॅंं।

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