Saturday, June 20, 2015

प्रथम योगाचार्य हैं शिव

शिव सत्यम्, शिवम्, सुंदरम। अर्थात जो सत्य है वही ब्रह्म है। ब्रह्म अर्थात परमात्मा। जो शिव है वही परम शुभ है, पवित्र है। और जो सुंदर है वही प्रकृति है। अर्थात परमात्मा, शिव और पार्वती के अलावा कुछ भी जानने योग्य नहीं है। इन्हें जानना और इन्हीं में लीन हो जाने का मार्ग है योग। शिव कहते हैं मनुष्य पशु है। इसी पशुता को समझना ही योग और तंत्र का प्रारंभ है। योग में मोक्ष या परमात्मा की प्राप्ति के तीन मार्ग हैं- जागरण, अध्ययन और समर्पण। जब शिव को आभास हुआ कि उस परम तत्व या सत्य को जानने का मार्ग योग है, तो उन्होंने पत्नी पार्वती को अमरनाथ की पवित्र गुफा में इस मार्ग के बारे में बतलाया। वह ज्ञान बहुत ही गूढ़, गंभीर और रहस्यमय था। उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो गईं हैं। वह ज्ञान योग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। विज्ञान भैरव तंत्र एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए 112 ध्यान सूत्रों को संकलित किया गया है। योग शास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव के विज्ञान भैरव तंत्र और शिव संहिता में उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को तंत्र का वामयोग कहते हैं। इसी की एक शाखा हठयोग भी है। भगवान शिव कहते हैं- वामो मार्ग: परमगहनों योगितामधगम्य अर्थात वाम मार्ग अत्यंत गहन है और योगियों के लिए अगम्य। शिव को आदि देव और आदिनाथ भी कहा गया है। शिव से ही योग का जन्म माना गया है। वैदिक काल के रुद्र का स्वरूप और जीवन दर्शन पौराणिक काल आते-आते पूरी तरह बदल गया। वेद जिन्हें रूद्र कहते हैं, पुराण उन्हें शंकर और महेश कहते हैं। शिव का ना तो प्रारंभ है और नाहि अंत। शिव को स्वयंभू इसलिए कहा जाता है कि वे आदि देव हैं। जब धरती पर कुछ भी नहीं था, सिर्फ वही थे। तिब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर प्रारंभ में उनका निवास रहा। वैज्ञानिकों के अनुसार वह धरती की सबसे प्राचीन भूमि है। पुरातन काल में उसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। जब समुद्र हटा तो अन्य धरती का प्रकटन हुआ। शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वह सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकडऩे वाले शिव भक्त हैं। क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जिओ, वर्तमान में जिओ। अपनी चिन्ता वृत्तियों से मत लड़ो। उन्हें अजनबी बन कर देखो। कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आईस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है। शिव ने योग में धरना, ध्यान और समाधि को ही मुख्य रूप से इसका अवयव बताया। उन्होंने कहा कि साधक को भूल कर भी सिद्धियों के प्रलोभन में नहीं पडऩा चाहिए। धन, यौवन और सत्ता ये तीन वस्तुएं बड़ी अनर्थकारी हैँ। लेकिन इन तीनों का सदुपयोग किया जाए तो बड़ा सुखदायी भी है। बुद्धि के साथ एकाकार करके भगवान के विषय में सोचो तो यह हुआ बुद्धि का योग। मन के साथ एकाकार करके परमात्मा का साकार स्वरूप का चिंतन और उसमें प्रीति करो, तो यह हुआ भक्ति योग। वहीं संसार और इंद्रियों के साथ एकता करके जो भी कार्य किया जाए वह है कर्मयोग। आज योग की आप जितनी भी मुद्राएं करते हैं वह व्यवहारिक रूप से इन्हीं तीनों सूत्रों के अंग हैं। योग न सिर्फ मानसिक बल्कि आध्यात्मिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से भी मानव की समृद्धि का कारक है। आज भी योग की जितनी भी विधाएं हैं, चाहे वह पातंजलि का योग दर्शन हो या फिर बुद्ध का योग से संदर्भित अष्टांगिक मार्ग, सभी का आधार शिव योग सूत्र ही है। जिसे ज्यादा परिष्कृत रूप में विवेचित किया गया है। नि:संदेह शिव ही परम योगी हैं। वे ही योग के उपद्रष्टा, विवेचक और उत्पन्नकर्ता हैं। उन्हीं से उत्पन्न और उन्हीं में समाहित होना शिव का आदर्श भी है और लक्ष्य भी। इसलिए तो पूरी दुनिया आज एक बार फिर उसी योग दर्शन की ओर अग्रसर है जिसके जरिए देवता, दानव, यज्ञ, किन्नर, ऋषि मुनी आदि हजारों हजार साल तक निश्कंटक, निरोग हो चिरायु जीवन का आनंद लेते थे।

डॉ. राजीव रंजन ठाकुर