Saturday, December 31, 2016

वेद सार--91

शं में परस्येंंं गात्राय शमस्त्ववराय मे ।
शं मे चतुभ्र्यो अंगेभ्य: शमस्तु तन्वेे मम।।
                                                        अथर्ववेद:-1/12/4
व्याख्या:-- हमारे सिर, उदर आदि अंगों में, दोनो हाथोंं और दोनो पैरों में तथा समस्त शरीर में व्याप्त रोगों का शमन होकर हमें सुख शांति मिले।


निर्लक्ष्म्यं ललाम्यंं निररातिं सुवामसि।
अथ या भद्रा तानि न: प्रजाया अरातिं नयामसि ।।
                                                        अथर्ववेद:-1/18/1

व्याख्या:-- बुुरे लक्षणों वाले अशुभ सूचक चिह्न को हम ललाट से दूर करते हैं। जो लाभकारक लक्षण हैं उन्हे अपने लिए और अपनी संतानों के लिए ग्रहण करते हैं तथा कुलक्षणों को हटाते हैं।  

वेद सार..90

एषां यज्ञमृत वर्चो ददेऽहं रायस्पोषमुत चित्तान्थग्ने।
सपत्ना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेयम्।।
                                                               अथर्ववेद:-1/9/4
व्याख्या:-- हे तेजस्वी अग्ने तू इस मनुष्य को दु:खरहित श्रेष्ठ स्वर्ग में पहुंचा दे। इसे उत्तम सुख और शांति प्राप्त हो। तेरी कृपा से शत्रु हमारे वश में हो जाएं । हम उनके तेज, धर्म, पुण्यकर्म को स्वीकार करते हैं।

मुंच शीर्षक्तया उत कास एनं परुष्परुराविवेशा यो अष्य।
 यो अभ्रजा वातजा यश्य शुष्मो वनस्पतीन्त्सचतां पर्वतांश्च।।
                                                                        अथर्ववेद:-1/12/3
व्याख्या:-- इस पुरुष के शरीर मे जो सिरदर्द, श्लेष्म, खांसी, वात्, पित्त, कफ और वर्षा, शीत व गर्मी के  कारण जो रोग रच - बस गए हैं, हे सूर्य तू उन रोगो का निवारण कर। 

Thursday, December 29, 2016

वेद सार---89

त्‍वमग्‍ने यातुधानानुपबद़धां इहा वह।
अथैषामिन्‍द्रो वज्रेणापि शीर्षाणि वृश्‍चतु ।।
                                 अथर्ववेद –-1/7/7
व्‍याख्‍या—दुष्‍टों को अपने पाश आदि में जकड़कर यहां लाने वाले हे अग्‍ने । इन्‍द्र अपने वज्र के तीव्र प्रहार से उन दुष्‍टों के सिरों को खंड़ विखंड़ करे। 
शं मे परस्‍मै गात्राय शमस्‍त्‍ववराय मे।
शं मे चतुर्भ्‍यो अंगेभ्‍य: शमस्‍तु तन्‍वे मम।    
                               अथर्ववेद –-1/12/4  

व्‍याख्‍या—हमारे सिर, उदर आदि अंगो में, दोनों हाथों और दोनों पैरों में तथा समस्‍त शरीर में व्‍याप्‍त रोगों का शमन होकर हमें सुख शांति मिले।   

Wednesday, December 28, 2016

वेद सार--88

अस्मिन वसु वसवो धारयविन्‍त्‍वन्‍द्र: पूषा वरुणो मित्रो अग्नि:
इममादित्‍या एत विश्‍वे च देवा उत्‍तरस्मिज्‍योतिषि  धारयन्‍तु।।
                                     अथर्ववेद –-1/9/1   
व्‍याख्‍या– धन वैभव की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को वसु, इन्‍द्र, पूषा, वरुण, सूर्य, अग्नि आदि सभी देवता धन वैभव से परिपूर्ण करें। आदित्‍यादि सभी देवता भी उसे तेज और अनुग्रह प्रदान करें।

यत्रैषामग्‍ने जनिमानि वेत्‍थ गुहा सतामत्त्रिणां जातवेद:
तांस्‍त्‍वं ब्रह्रमणा वावृधानो जहयेषां शततर्हमग्‍ने।
                                 अथर्ववेद –-1/8/4     
व्‍याख्‍या—हे अग्‍ने ज्ञानसंपन्‍न तू ब्राहमणों के दवरा प्राप्‍त मंत्र बल से वृदिध पाकर असुरों को अनेक प्रकार से नष्‍ट करने वाला हो। गुफाओं मे रहनेवाले इन दुष्‍टों की संतानों को भी तू अच्‍छी तरह जानता है अत: तेरे दवारा उनका भी समूल नाश हो।  

Friday, December 23, 2016

वेद सार- 87

ये त्रिसप्‍ता परियन्ति विश्‍वा रूपाणि बिभ्रत:
वाचस्‍पतिर्बला तेषां तन्‍वो अद्ध दधातु मे।।
                      अथर्ववेद—1/1/1  
व्‍याख्‍यापृथ्वि, जल, तेज, वायु, आकाश, तन्‍मात्रा और अहंकार – ये सात पदार्थ और सत्‍व, रज तथा तम- ये तीन गुण इस प्रकार    
जगत में तीन गुणा सात इक्‍कीस देवता सब ओर आवागमन करते हैं। वाणी का स्‍वामी ब्रह्मा उनके अद्भुत बल को हमें प्रदान करें।  



 पुनरेहि वाचस्‍पते देवेन मनसा सह।
वसोष्‍पते नि रमय मय्‍येवास्‍तु मयि श्रुतम।।
                      अथर्ववेद- 1/1/2  

व्‍याख्‍या—हे वाणी के स्‍वामी परमेश्‍वर हम और आनंदित हों इसके लिए तुम हमारी कामनाओं को पूर्ण कर और पढे हुए ज्ञान को धारण करने के निमित्‍त हमारी बुद्धियों को प्रकाशित करने वाला हो।      

Thursday, December 22, 2016

वेद सार- 86

यज्ञस्‍य चक्षु: प्रभृतिमुखं च वाचा श्रोत्रण मनसा जुहोमि।
इमं यज्ञं विततं विश्‍वंकर्मणा देता यन्‍तु सुमनस्‍यमाना:।।
                                 अथर्ववेद- 2/35/5   

व्‍याख्‍या– जो पुरुष सत्‍यव्रती, सत्‍य, संकल्‍पी, सत्‍यसंध होकर ईश्‍वरीय ज्ञान को मन, वचन और कर्म से स्‍वीकार करता है तथा ॠषियों की वैदिक वाणी को श्रवण, पठन - पाठन और निरंतर विचार मग्‍न होकर ग्रहण करता है और ईश्‍वर द्वारा दिए इस ज्ञान - विज्ञान को तथा धर्म को जन - जन तक प्रचारित करता है वह पूजनीय है। अत: ईश्‍वर द्वारा प्रदत्‍त इस ज्ञान को मन, वचन और कर्म से सभी को स्‍वीकार करना चाहिए और इसका प्रचार करते रहना चाहिए।         

Wednesday, December 21, 2016

वेद साार- 85

अपूर्वेणेषिता वाचास्‍ता वदन्ति यथायथम़।
वदन्‍तीर्यत्र गच्‍दन्ति तवाहुर्ब्राह़माणं महत।।
                   अथर्ववेद—  10/8 /34
व्‍याख्‍या—जिस परमात्‍मा से पहले कोई नहीं था , एससे प्ररित वाणियां यथार्थ का वर्णन करती हुई जिस तक पहुंचती हैं वो ही महान ब्रह़म कहलाता है।

अन्‍ततं विततं पुरुत्रानन्‍तमन्‍तवच्‍चा समन्‍ते।
ते नाकपालश्‍चरति विचिन्‍वन विद़वान भूतमुत भव्‍यमस्‍य।।   
                                अथर्ववेद-- 10/8/12

व्‍याख्‍यानेक रूपों मे व्‍याप्‍त, अनन्‍त, सबमें समाया हुआ भूत, भविष्‍य तथा वर्तमान काल के सभी संबंधों को जानता हुआ इस जगत को चलाने वाला परमात्‍मा हैं ।     

Monday, December 5, 2016

वेद सार - 84

 कालो अश्वो वहति सप्तरश्मि: सहस्राक्षो अजरो भूरिरेता: ।
   तमारोहन्ति कवयो वियश्चितस्तस्य चक्रा भुवनानि विश्वा ।।
अथर्ववेद :-19/52/1

व्याख्या :- काल सात रस्सियों वाला, हजारों धुरियों को चलाने वाला अजर-अमर है। वह महाबली समयरूपी घोड़े के समान दौड़ रहा है। समस्त उत्पन्न वस्तुएं, पदार्थ, जीव और सारे भुवन अथवा लोक उसके चक्र में चक्रवत घूम रहे रहे हैं।  उस घोड़े पर ज्ञानी और क्रान्तदर्र्शी लोग ही सवार हो सकते हैं। 

Saturday, December 3, 2016

वेद सार -83

 इयं वेदि: परो अन्त: पृथिव्या अयं सोमो कृष्णो अश्वस्य रेत:
अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिर्ब्रद्यायं बाच: परमं व्योम ।।
अथर्ववेद :-9/10/14

व्याख्या :- पृथ्वी गोल है। सभी प्राणी सोम अर्थात अन्य आदि के रस से बलवान होते हैं। परमाणुओं के संयोग और वियोग से अथवा आकर्षण - विकर्षण से समस्त संसार एक नाभि में स्थित है। परमेश्वर ही समस्त वाणियों, अर्थात ज्ञान का भंडार है। पृथ्वी के गोल होने की बात वैदिक ऋषि जानते थे।

 सूर्यो द्यां सूर्य: पृथिवीं सूर्य आपोति पश्यति । 
    सूर्यो भूतस्यैकं चक्षुरा रुरोह दिवं महीम्।। 
अथर्ववेद :-13/1/45
व्याख्या :- सूर्य सबको चलाने वाला है। वह परमेश्वर है। वह प्रकाशमान सूर्य, जो सर्वप्रेरक है, सर्वनियामक है, सारी पृथ्वी को, सारे कार्यो को सदैव निहारता रहता है। वह सर्वनियन्ता, समस्त संसार का द्रष्टा, एक नेत्र स्वरूप इश्वर आकाश और धरती पर सबसे ऊंचा है। वह पुरुषोत्तम है। 

Friday, December 2, 2016

वेद सार -82

 यद्द् देवा देवान् हविषायजन्तामत्र्यान् मनसामत्यैन । 
   मदेम तत्र परमे व्योमन पश्येम तदुदितों सूर्यस्य ।।
                                                             अथर्ववेद:-7/5/3

व्याख्या:- जो मनुष्य परमात्मा के नित्य उपकारी गुणोंं को अपने पूर्ण विश्वास औैर पुरुषार्थ से ग्रहण करते है, वो पुरुष आनंद का उपभोग करते हुए परमात्मा का दर्शन करते हैंै। वे अविद्या को नष्ट करके व ज्ञान प्राप्त करके उसी प्रकार सर्वत्र विचरण करते है जैसे सूर्य के निकलने पर अंधकार नष्ट हो जाता है और सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है।

 विराड् वा इदमग्र आसीत् तत्या जाताया ।
सर्वमबिभेदियमे वेेदं भविष्यतीति ।।
                                                           अथर्ववेद:-8/10/1

व्याख्या:- सृष्टि से पहले एक विराट शक्ति थी । उसे ही ईश्वरीय शक्ति कहते हंै। उसी से सृष्टि का प्रारंभ माना जाता है। उसी ने प्रकट होकर प्रत्येक जीवन में अपने को स्थित किया। उस विराट परमात्मा को जानकर ही मनुष्य इस संसार में समस्त कार्यो में निपुण होता है। 

Thursday, December 1, 2016

वेद सार - 81


 नैनं प्राप्नोति शपथो न कृत्या नाभि शोचनम्।
    नैनं विष्कन्धमश्नुते यस्तवा बिभत्र्याअंजन ।।
अथर्ववेद:-4/9/5

व्याख्या:- जो मनुष्य शुद्ध अन्त:करण से परमात्मा को अपनी आत्मा में स्थिर रखता है उसको आत्मिक और आध्यात्मिक शांति प्राप्त होती है तथा उसके आधिभौतिक तथा आधिदैविक कष्टों का विनाश हो जाता है।

 ईष्र्याया ध्राजि प्रथमां प्रथमस्या उतापराम्।
   अग्निं हृदय्यंश्शोकं तं ते निर्वापयामसि ।।
अथर्ववेद:-6/11/1
व्याख्या:--मनुष्य दूसरों की वृद्धि देखकर कभी ईष्र्या न करे । दूसरों की उन्नति अथवा सूख को अपना ही उन्नति और सूख माने ।