Thursday, December 31, 2015

श्रृष्टि चक्र का साइंस

श्रृष्टि चक्र का साइंस
शिव निराकार हैं जो कि ऊर्जा का मूल श्रोत है। श्रृष्टि के समय शिव सगुण और निर्गुण दोनों उभरती हैं। सगुण ईश्वर से शक्ति का उद्धव होता है। जिससे नाद (पर) की उत्पत्ति होती है एवं नाद से बिंदु (पर) की। बिंदु  तीन हिस्सों में बंटता है।
1. बिंदु (पर) 2. नाद (अपर) एवं 3.बीज। प्रथम से शिव एवं अंतिम से शक्ति का तादात्म्य है तथा नाद दोनों का सम्मिलन है। शक्ति ज्योतिरूप है। यह अति सूक्ष्म है जिसे महायोनि कहते हैं। वहीं अद्र्धमात्रा अर्थात तिल अक्षर, प्रणव में आकार, उकार, मकार- इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त बिन्दुरूपा नित्य अद्र्धमात्रा है। उसी का ब्रह्मा, विष्णु और महेश सदैव ध्यान करते हैं। यही राजयोग है।
यही ज्योतिरूप शक्ति मानव शरीर में कुण्डलिनी का रूप ग्रहण कर आधार चक्र में चमकती है। मानव शरीर में तांत्रिक ग्रंथों के अनुसार छह चक्र होते हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध एवं आज्ञा। इसके अतिरिक्तं ब्रह्मरन्ध्र बीजकोश के रूप में विद्यमान है। यह सर्प सदृश मूलाधार में कुण्डली लगाकर सुषुप्तावस्था में स्थित रहती है जिसे गहन साधना व ध्यान के जरिए जाग्रत किया जाता है। इसे जगाने पर यह धीरे-धीरे प्रत्येक चक्र को पार करके ब्रह्मरन्ध्र के सहस्रदल में मिल जाती है एवं अमृतपान कर पुन: वापस लौट आती है। ततपश्चात इस शक्ति को हम जिस किसी रूप में चाहते हैं ढ़ाल लेते हैं। वैज्ञानिकों ने भी अपने प्रयोगों से यह सिद्ध किया है कि शक्ति को अलग-अलग श्रोतों में रूपान्तरित किया जा सकता है।
कितना गजब का संयोग है कि श्रृष्टि का चक्र का तादात्म जितना विज्ञान से है उतना ही भाषा से। तभी तो नाउन,प्रोनाउन,एडजक्टिन,वर्भ आदि से जैसे-जैसे जीवात्मा जुड़ता जाता है उसका स्वरूप बदलता जाता है। वैसे ही कहने को तो पंथ अलग -अलग हैं लेकिन मूल एक ही है जो पंच तत्वों के मिलकर बना है जो प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्सटीन की थ्योरी का आधार भी है और उसे प्रमाणित भी करता है।

डा.राजीव रंजन ठाकुर

Wednesday, December 30, 2015

वेद सार -1


अग्निमीले पुरोहिंत यज्ञस्यं देवमृृत्विर्जम्। होतारं रत्नधार्तमम्।
ऋग्वेद-1-1-1-1
भावार्थ :- अग्निम्- ज्ञानस्वरूप अग्ने
ईले- मैं स्तुति करता हूं
पुरोहितम्- समस्त जगत के हित साधक
ऋत्विजम् - सभी ऋतु
होतारम् - समस्त जगत को सब योग और क्षेम देने वाले।

व्याख्या-- हे सर्वहितोपकारक अग्निदेव आप ज्ञानस्वरूप हो। आप समस्त जगत के हित साधक हो। हे यज्ञ देव सब मनुष्यों के पूज्यतम और ज्ञान यज्ञादि के लिए कमनीयतम हो। सभी ऋतुओं आदि के रचक अर्थात समयानुकूल सुख के संपादक आप ही हो। समस्त जगत को समस्त योग और क्षेम के देनेवाले हो और प्रलय के समय समस्त जगत का होम करने वाले हो। आप रमणीय पृथिव्यादिकों के धारण, रचना करने वाले तथा अपने सेवकों के लिए रत्नों के धारण करने वाले हो। इसलिए हे सर्वशक्तिमान मैं आपकी बार-बार स्तुति करता हूं। इसको आप स्वीकार कीजिए जिससे हमलोग आपकी कृपापात्र होकर सदैव आनंद में रहें। 

Tuesday, December 22, 2015

वेद सार

मेरे ब्लॉग को देश-विदेश में पढऩे वालों की ललक ,इच्छा,स्नेह व उनकी मांग नेमुझे ब्लॉग पर कुछ विशिष्ट संदर्भ पेश करने के लिए प्रेरित किया। इसी के मद्देनजर आज मैं चारो वेदों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातों की जानकारी शेयर कर रहा हूं। आशा है आपलोगों को यह पसंद आयेगा। इसके उपरांत मैं 31 दिसंबर से चारो वेदों की कुछ महत्वपूर्ण ऋचाओं को जो कि भौतिकवादी युग में भी मानव जीवन के लिए जरूरी है उसका अनुवाद सहित व्याख्या आपलोगों के लिए पोस्ट करूंगा।    
सनातम धर्म परंपरा की शुरूआत ऋग्वेद के प्रादुर्भाव के बाद से माना जाता है। यह ग्रंथ भारत और यूरोपीय भाषाओं का सबसे पुराना निदर्श है। इसमें अग्नि, इंद्र, मित्र, वरुण आदि देवताओं की स्तुतियां संग्रहित है। इन मंत्रों की रचना विभिन्न गोत्रों के ऋषियों ने की है। ऋग्वेद 10 मंडलों में विभक्त है। जिसमें 2 से 7 मंडल सबसे प्राचीन हैं। वहीं प्रथम और 10वां मंडल बाद में जोड़ा गया है। ऋग्वेद की अनेक बातें ईरानी भाषा का प्रचीनतम ग्रंथ अवेस्ता से मिलती है। दोनों ग्रंथों में बहुत से देवताओं के और सामाजिक वर्गों के नाम भी समान हैं। ऋग्वेद के अनुसार आर्यों की (जो कि 1500 ई पूर्व भारत आए उनकी) सबसे पवित्र नदी सिंधु थी। जबकि सरस्वती दूसरी प्रमुख नदी थी। ऋग्वेद में इंद्र को पुरंदर अर्थात किले को तोडऩे वाला कहा गया है। ऋग्वैदिक प्रशासन कबाईली था। इसी काल में व्यवसाय के आधार पर समाज का वर्गीकरण शुरू हुआ। ऋग्वेद में सबसे ज्यादा स्तुति इंद्र की 250 बार, अग्नि की 200 बार की गई है। अग्नि देव देवताओं और मानवों के बीच मध्यस्थ का काम करते थे। इसी कारण मानव द्वारा अग्नि में दी गई आहुति देवताओं तक पहुंचती थी। जबकि वरूण देव भी काफी आदरणीय थे। नवें मंडल में सोम रस के बारे में बताया गया है जबकि दसवां मंडल पुरुष सुक्त से संबंधित है। ऋग्वेद ,सामवेद व यजुर्वेद को त्रिवेद भी कहा जाता है। ऋग्वेद के सभी मंत्रों को अन्य वेदों में भी समाहित किया गया है। तदंतर वेद के चार स्वरूप हुए।

1.ऋग्वेद : इसमें ऋचाओं(श्लोक)की संख्या 1028 है। यह मंत्रों का संग्रह है। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले होता कहलाते हैं।

2.सामवेद : इसमें ऋचाओं(श्लोक)की संख्या 1810 है। इसमें मंत्रों को गायन के लिए धुन में बांधा गया है। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले उदगाता कहलाते हैं।

3.युजर्वेद :इसमें ऋचाओं(श्लोक)की संख्या 1875 है। इसमें मंत्रों के गायन और उसके अनुष्ठान की विधि के बारे में बताया गया है। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले अध्वर्यु कहलाते हैं।


4.अथर्वर्वेद :इसमें ऋचाओं(श्लोक)की संख्या 731 है। इसमें विपत्ति और व्याधि नाश एवं भूत- प्रेत से मुक्ति संबंधित मंत्र हैं। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले ब्रह्मा कहलाते हैं।

वेद की ऋचाओं को बताने वाले ऋषि व द्रष्टा : बाद के दिनों में विभिन्न गोत्रों से संबंध रखने वाले ऋषियों ने ऋग्वेद के ऋचाओं की रचना की। इनके नाम हैं-
मधुच्छंदा, विश्वामित्र, मेधातिथि, कण्व, जेता, आजीपति, घोर हिरण्यस्तूप, आंगिरस, प्रस्कण्व, सव्य, नोधा,गौतम, पराशर, शाक्य, राहुगण, कुत्स, ऋज्राश्व, अम्बरीष, कश्यप, मारीच,आप्त्यावित, कक्षीवान, दीर्घतमस, परच्छेप, अगस्त्य, मरूच्छेप, लोपामुद्रा,गुत्समद, सोमादुतिभार्गव, शौनक, कूर्म, उत्कीलकात्य, कौशिक,देवश्रवा, प्रजापति, वामदेव, वशिष्ठ, पुरूमीलहज व भरद्वाज।

Monday, December 21, 2015

meaning of relation

meaning of relation
We know that the relation is the basic need and pillor of society. It give's us source of morality,Designity,spiritual phenominon and mental bondation of jurispudence. Behind the development or fondation of relation only social,spritual and genetic substance is base. But in the materlistic age behind this only money is controling and flotring the meaning of relation.
In markandey puran speak"kuputro jaye to kachidapi ku mata na bhabati" totaly derooted in the materlistic age. If you have money,you earn money {through any process} you recognised by family and society.

nest after

Saturday, December 19, 2015

महामृत्युंजय शिव मंत्र ही सभी कष्टों से मुक्ति के उपाय

एको देवो महेश्‍वर। अर्थात भगवान भोलेनाथ ही सभी भूतों के प्रमुख पूजनीय व आराध्‍य देव हैं जिनकी कृपा से हर योनी का जीव अपनी कामना सिद़ध कर सकता है। सनातन धर्म की मान्यताओं में संसार पंचभूतों यानी पृथ्वी, जल, आकाश, वायु और अग्रि से बना है। ये पंच तत्व भी कहलाते हैं। हर तत्व का एक देवता है जो पंच देवों के रूप में पूजनीय हैं। भगवान शिव इन पांच तत्वों में से पृथ्वी तत्व के देवता माने जाते हैं। यही कारण है कि भैतिकवादी संसार में सुखों और कामनाओं की पूर्ति के लिए भगवान शिव की उपासना का महत्व है। लिंग पुराण के अनुसार शिव ज्योर्तिलिंग अर्द्धरात्रि के समय प्रकट हुआ था। इसलिए रात के समय शिव साधना बहुत ही असरदार मानी जाती है।
शिव पुराण के अनुसार महामृत्युंजय मन्त्र से कल्याणकारी शिव प्रसन्न होते हैं और धन ,सम्मान एवं ख्याति का विस्तार होता है। मृत्युतुल्य कष्ट, लंबी बीमारी एवं घरेलू समस्या से ग्रस्त होने पर महामृत्युंजय मन्त्र रामबाण सिद्ध होता है। जन्म कुंडली मे अगर मारकेश ग्रह बैठा हो या हाथ की आयु रेखा जगह जगह से कट रही हो या मिटी हुई हो तो यह जप अवश्य करें। जप की मात्रा सवा लाख होनी चाहिए।

मारकेश ग्रह के लक्षण: कुंडली मे मारकेश ग्रह बैठा होने का मुख्य पहचान है आपके मन मे बैचनी का अनुभव होना। किसी कार्य मे मन नहीं लगाना ,दुर्घटना होते रहना, बीमारी से त्रस्त रहना, अपनों से मनमुटाव होना, शत्रुओं की संख्या मे निरंतर वृद्धि होना एवं कार्य पूरा होते होते रह जाना, समाज मे मान और सम्मान की कमी होना। जब मारकेश ग्रह की महादशा व्यतीत होने लगती है तो यह मृत्यु का कारण बन जाता है। जप शुरू करने से पूर्व अगर रुद्राभिषेक कर लिया जाए तो मन्त्र विशेष फलदायी हो जाता है।

जप नियम: जप निर्धारित मात्रा मे तथा निर्धारित समय पर प्रतिदिन के हिसाब से होना चाहिए। जप के दौरान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन, सात्विक भोजन, सत्य बचन, अहिंसा का पालन व वाणी पर नियंत्रण होना जरूरी है। अन्यथा यह जप पूर्ण फलदायी नहीं होता है। जप मे नियमबद्धता का होना ज्यादा जरूरी है। जप अपने घर या शिवालय में करें। अगर शिवालय किसी नदी के किनारे हो तो यह जप विशेष फलदायी होता है।

जप के समय ध्यान मे रखने वाली बातें :जप उसी समय प्रारम्भ करना चाहिए जब शिव का निवास कैलाश पर्वत पर, गौरी के सान्निध्य हों या शिव बसहा पर आरूढ़ हों। शिव का वास जब शमशान में हो तो जप की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। जप करते समय मुंह से आवाज नहीं निकालना चाहिए । जप के दौरान जम्हाई आने से वायें हाथ की उंगली से चुटकी बजाना चाहिए। जप के समय शिव का स्मरण सदैव करते रहना चाहिए। जप के पूर्ण होने पर हवन करना चाहिए और हवण के अंत में जप की कुल संख्या का दशांश तर्पण और उसका दशांश मार्जन करना चाहिए।  तदुपरांत दान एवं ब्राह्मण भोजन करवाना चाहिए।
कहा गया है दुख मे सुमिरन सब करे दुख मे करे न कोई, जो सुख मे सुमिरन करे दुख कहे को होय। इसलिये अगर आप कोई समस्या से ग्रस्त नहीं हैं आप साधारण तौर से अपनी जि़ंदगी व्यतीत कर रहे हैं तब भी आप शिव के इस चमत्कारी मन्त्र का जप अवश्य करें। जिंदगी रूपी नदी सुख और दुख रूपी दो किनारों के बीच प्रवाहित होती है, अगर आप समय रहते शिव मन्त्र का जप करते रहेंगे तो आप सदैव प्रसन्न रहेंगे।

शिव की प्रसन्नता प्राप्ति हेतु कुछ अन्य सुगम मन्त्र:
1.ह्रों जूं स:। इस शिव मन्त्र के नियमित 108 बार जप करने से शिव की कृपा वर्षा निरंतर होते रहती है।
2.नम: शिवाय। इस शिव मन्त्र का 108 बार प्रतिदिन जप आपको निरंतर प्रगति की ओर ले जाएगा। 

Monday, December 7, 2015

शिव तांडव स्तोत्रं

 शिवतांडव स्तोत्र का पाठ कर मनुष्‍य न केवल धन-संपत्ति प्राप्‍त कर सकता है अपितु उससे व्यक्तित्व भी निखरता है। यह स्तोत्र रावण द्वारा रचित है। जीवन में किसी भी सिद्धि की महत्वाकांक्षा हो तो इस स्तोत्र के जाप से आपको वह आसानी से प्राप्त हो जाएगी। सबसे ज्यादा फायदा आपकी वाक सिद्धि को होगा, अगर अभी तक आप दोस्तों में या किसी ग्रुप में बोलते हुए अटकते हैं तो यह समस्या इस स्तोत्र के पाठ से दूर हो जाएगी। इसकी शब्द रचना के कारण व्यक्ति का उच्चरण साफ हो जाता है। दूसरा इस मंत्र से नृत्य, चित्रकला, लेखन, युद्धकला, समाधि, ध्यान आदि कार्यो में भी सिद्धि मिलती है। इस स्तोत्र का जो भी नित्य पाठ करता है उसके लिए सारे राजसी वैभव और अक्षय लक्ष्मी भी सुलभ होती है।


जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥

धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥

जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥

सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥

ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥

कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥

नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥

प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥

अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥

कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌ ।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌ ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥

॥ इति शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥
शिव तांडव स्तोत्र


Wednesday, December 2, 2015

मां बगलामुखी की साधना और उपाय

कोई भी साधना तब तक सफल नहीं होती जब तक देवी की कृपा न हो। इसके लिए निर्विकार भाव और अंतरिक तथा वाह्य शुद्धिकरण के पश्चात कुशल गुरु के मार्ग निर्देशन के बाद ही शुरु करनी चाहिए। ं
भगवती बगला सुधा-समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय  मण्डप में रत्नवेदी पर रत्नमय सिंहासन पर विराजती हैं।  पीतवर्णा होने के कारण ये पीत रंग के ही वस्त्र, आभूषण व माला धारण किये हुए हैं। इनके एक हाथ में शत्रु की  जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्गर  है। व्यष्टि रूप में शत्रुओं का नाश करने वाली और समष्टि रूप में परम ईश्वर की सहांर-इच्छा की अधिस्ठात्री शक्ति बगला है।
श्री प्रजापति ने बगला उपासना वैदिक रीति से की और वे सृस्टि की संरचना करने में सफल हुए। उन्होंने इस विद्या का उपदेश सनकादिक मुनियों को दिया।  सनतकुमार ने इसका उपदेश श्री नारद को और श्री नारद ने सांख्यायन परमहंस को दिया। जिन्होंने छत्तीस पटलों में बगला तंत्र ग्रन्थ की रचना की। स्वतंत्र तंत्र के अनुसार भगवान् विष्णु इस विद्या के उपासक हुए। फिर श्री परशुराम जी और आचार्य द्रोण इस विद्या के उपासक हुए। आचार्य द्रोण ने यह विद्या परशुराम जी से ग्रहण की।

श्री बगला महाविद्या ऊर्ध्वाम्नाय के अनुसार ही उपास्य हैं जिसमें स्त्री (शक्ति) भोग्या नहीं बल्कि पूज्या है। बगला महाविद्या श्री कुल से सम्बंधित हैं। श्रीकुल की सभी महाविद्याओं की उपासना अत्यंत सावधानी पूर्वक गुरु के मार्गदर्शन में करनी चाहिए।  श्री बगलामुखी को ब्रह्मास्त्र विद्या के नाम से भी जाना जाता है।  शत्रुओं का दमन और विघ्नों का शमन करने में विश्व में इनके समकक्ष कोई अन्य देवता नहीं है।
भगवती बगलामुखी को स्तम्भन की देवी कहा गया है।  स्तम्भनकारिणी शक्ति नाम रूप से व्यक्त एवं अव्यक्त सभी पदार्थो की स्थिति का आधार पृथ्वी के रूप में शक्ति ही है और बगलामुखी उसी स्तम्भन शक्ति की अधिस्ठात्री देवी हैं।  इसी स्तम्भन शक्ति से ही सूर्यमण्डल स्थित है। सभी लोक इसी शक्ति के प्रभाव से ही स्तंभित है।
 जो साधक इस साधना को पूर्ण कर, सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें इन तथ्यो की जानकारी होना अति आवश्यक है।

1 ) कुल -महाविद्या बगलामुखी श्री कुल से सम्बंधित है।

2 ) नाम -बगलामुखी, पीताम्बरा , बगला , ब्रह्मास्त्र विद्या।

3 ) कुल्लुकामंत्र -जाप से पूर्व उस मंत्र कि कुल्लुका का न्यास सिर में किया जाता है। इस विद्या की कुल्लुका हूं छ्रौ है।

4)  महासेतु - साधन काल में जप से पूर्व 'महासेतुÓ का जप किया जाता है।  ऐसा करने से लाभ यह होता है कि साधक प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थिति में जप कर सकता है।  इस महाविद्या का महासेतु स्त्रीं है।  इसका जाप दस बार किया जाता है।

5)  कवचसेतु - इसे मंत्रसेतु भी कहा जाता है।  जप प्रारम्भ करने से पूर्व इसका जप एक हजार बार किया जाता है।  ब्राह्मण व छत्रियों के लिए प्रणव , वैश्यों  के लिए फट तथा शूद्रों के लिए ह्रीं कवचसेतु  है।

6 ) निर्वाण-ह्रूं ह्रीं श्रीं  से सम्पुटित मूल मंत्र का जाप ही इसकी निर्वाण विद्या है। इसकी दूसरी विधि यह है कि पहले प्रणव कर, अ , आ , आदि स्वर तथा क, ख , आदि व्यंजन पढ़कर मूल मंत्र पढ़ें और अंत में ऐं लगाएं और फिर विलोम गति से पुनरावृत्ति करें।

7 ) बंधन -किसी विपरीत या आसुरी बाधा को रोकने के लिए इस मंत्र का एक हजार बार जाप किया जाता है। मंत्र इस प्रकार है -ऐं ह्रीं ह्रीं ऐं

8) मुद्रा-इस विद्या में योनि मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।

9) प्राणायाम-साधना से पूर्व दो मूल मंत्रो से रेचक, चार मूल मंत्रो से पूरक तथा दो मूल मंत्रो से कुम्भक करना चाहिए। दो मूल मंत्रो से रेचक, आठ मूल मंत्रो से पूरक तथा चार मूल मंत्रो से कुम्भक करना और भी अधिक लाभ कारी है।

10 ) दीपन-दीपक जलने से जैसे रोशनी हो जाती है, उसी प्रकार दीपन से मंत्र प्रकाशवान हो जाता है। दीपन करने हेतु मूल मंत्र को योनि बीज ईं  से संपुटित कर सात बार जप करें।

11) प्राण योग-बिना प्राण अथवा जीवन के मन्त्र निष्क्रिय होता है। अत: मूल मन्त्र के आदि और अन्त में माया बीज ह्रीं से संपुट लगाकर सात बार जप करें ।

12 ) मुख शोधन-हमारी जिह्वा अशुद्ध रहती है जिस कारण उससे जप करने पर लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। अत: ऐं ह्रीं  ऐं  मंत्र से दस बार जाप कर मुखशोधन करें।

13 ) मध्य दृस्टि -साधना के लिए मध्य दृस्टि आवश्यक है। अत: मूल मंत्र के प्रत्येक अक्षर के आगे पीछे यं बीज का अवगुण्ठन कर मूल मंत्र का पांच बार जप करना चाहिए।

14 ) शापोद्धार-मूल मंत्र के जपने से पूर्व दस बार इस मंत्र का जप करें हलीं बगले ! रूद्र शापं विमोचय विमोचय ? ह्लीं स्वाहा।

15 ) उत्कीलन-मूल मंत्र के आरम्भ में ह्रीं स्वाहा मंत्र का दस बार जप करें।

16 ) आचार- इस विद्या के दोनों आचार हैं, वाम भी और दक्षिण भी ।
 एक बार जो मां बगला का कृपापात्र बन जाता है वह चहुं ओर से संपन्‍न व सुरक्षित भी हो जाता है।