Wednesday, December 30, 2015

वेद सार -1


अग्निमीले पुरोहिंत यज्ञस्यं देवमृृत्विर्जम्। होतारं रत्नधार्तमम्।
ऋग्वेद-1-1-1-1
भावार्थ :- अग्निम्- ज्ञानस्वरूप अग्ने
ईले- मैं स्तुति करता हूं
पुरोहितम्- समस्त जगत के हित साधक
ऋत्विजम् - सभी ऋतु
होतारम् - समस्त जगत को सब योग और क्षेम देने वाले।

व्याख्या-- हे सर्वहितोपकारक अग्निदेव आप ज्ञानस्वरूप हो। आप समस्त जगत के हित साधक हो। हे यज्ञ देव सब मनुष्यों के पूज्यतम और ज्ञान यज्ञादि के लिए कमनीयतम हो। सभी ऋतुओं आदि के रचक अर्थात समयानुकूल सुख के संपादक आप ही हो। समस्त जगत को समस्त योग और क्षेम के देनेवाले हो और प्रलय के समय समस्त जगत का होम करने वाले हो। आप रमणीय पृथिव्यादिकों के धारण, रचना करने वाले तथा अपने सेवकों के लिए रत्नों के धारण करने वाले हो। इसलिए हे सर्वशक्तिमान मैं आपकी बार-बार स्तुति करता हूं। इसको आप स्वीकार कीजिए जिससे हमलोग आपकी कृपापात्र होकर सदैव आनंद में रहें। 

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