कोई भी साधना तब तक सफल नहीं होती जब तक देवी की कृपा न हो। इसके लिए निर्विकार भाव और अंतरिक तथा वाह्य शुद्धिकरण के पश्चात कुशल गुरु के मार्ग निर्देशन के बाद ही शुरु करनी चाहिए। ं
भगवती बगला सुधा-समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय मण्डप में रत्नवेदी पर रत्नमय सिंहासन पर विराजती हैं। पीतवर्णा होने के कारण ये पीत रंग के ही वस्त्र, आभूषण व माला धारण किये हुए हैं। इनके एक हाथ में शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्गर है। व्यष्टि रूप में शत्रुओं का नाश करने वाली और समष्टि रूप में परम ईश्वर की सहांर-इच्छा की अधिस्ठात्री शक्ति बगला है।
श्री प्रजापति ने बगला उपासना वैदिक रीति से की और वे सृस्टि की संरचना करने में सफल हुए। उन्होंने इस विद्या का उपदेश सनकादिक मुनियों को दिया। सनतकुमार ने इसका उपदेश श्री नारद को और श्री नारद ने सांख्यायन परमहंस को दिया। जिन्होंने छत्तीस पटलों में बगला तंत्र ग्रन्थ की रचना की। स्वतंत्र तंत्र के अनुसार भगवान् विष्णु इस विद्या के उपासक हुए। फिर श्री परशुराम जी और आचार्य द्रोण इस विद्या के उपासक हुए। आचार्य द्रोण ने यह विद्या परशुराम जी से ग्रहण की।
श्री बगला महाविद्या ऊर्ध्वाम्नाय के अनुसार ही उपास्य हैं जिसमें स्त्री (शक्ति) भोग्या नहीं बल्कि पूज्या है। बगला महाविद्या श्री कुल से सम्बंधित हैं। श्रीकुल की सभी महाविद्याओं की उपासना अत्यंत सावधानी पूर्वक गुरु के मार्गदर्शन में करनी चाहिए। श्री बगलामुखी को ब्रह्मास्त्र विद्या के नाम से भी जाना जाता है। शत्रुओं का दमन और विघ्नों का शमन करने में विश्व में इनके समकक्ष कोई अन्य देवता नहीं है।
भगवती बगलामुखी को स्तम्भन की देवी कहा गया है। स्तम्भनकारिणी शक्ति नाम रूप से व्यक्त एवं अव्यक्त सभी पदार्थो की स्थिति का आधार पृथ्वी के रूप में शक्ति ही है और बगलामुखी उसी स्तम्भन शक्ति की अधिस्ठात्री देवी हैं। इसी स्तम्भन शक्ति से ही सूर्यमण्डल स्थित है। सभी लोक इसी शक्ति के प्रभाव से ही स्तंभित है।
जो साधक इस साधना को पूर्ण कर, सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें इन तथ्यो की जानकारी होना अति आवश्यक है।
1 ) कुल -महाविद्या बगलामुखी श्री कुल से सम्बंधित है।
2 ) नाम -बगलामुखी, पीताम्बरा , बगला , ब्रह्मास्त्र विद्या।
3 ) कुल्लुकामंत्र -जाप से पूर्व उस मंत्र कि कुल्लुका का न्यास सिर में किया जाता है। इस विद्या की कुल्लुका हूं छ्रौ है।
4) महासेतु - साधन काल में जप से पूर्व 'महासेतुÓ का जप किया जाता है। ऐसा करने से लाभ यह होता है कि साधक प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थिति में जप कर सकता है। इस महाविद्या का महासेतु स्त्रीं है। इसका जाप दस बार किया जाता है।
5) कवचसेतु - इसे मंत्रसेतु भी कहा जाता है। जप प्रारम्भ करने से पूर्व इसका जप एक हजार बार किया जाता है। ब्राह्मण व छत्रियों के लिए प्रणव , वैश्यों के लिए फट तथा शूद्रों के लिए ह्रीं कवचसेतु है।
6 ) निर्वाण-ह्रूं ह्रीं श्रीं से सम्पुटित मूल मंत्र का जाप ही इसकी निर्वाण विद्या है। इसकी दूसरी विधि यह है कि पहले प्रणव कर, अ , आ , आदि स्वर तथा क, ख , आदि व्यंजन पढ़कर मूल मंत्र पढ़ें और अंत में ऐं लगाएं और फिर विलोम गति से पुनरावृत्ति करें।
7 ) बंधन -किसी विपरीत या आसुरी बाधा को रोकने के लिए इस मंत्र का एक हजार बार जाप किया जाता है। मंत्र इस प्रकार है -ऐं ह्रीं ह्रीं ऐं
8) मुद्रा-इस विद्या में योनि मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।
9) प्राणायाम-साधना से पूर्व दो मूल मंत्रो से रेचक, चार मूल मंत्रो से पूरक तथा दो मूल मंत्रो से कुम्भक करना चाहिए। दो मूल मंत्रो से रेचक, आठ मूल मंत्रो से पूरक तथा चार मूल मंत्रो से कुम्भक करना और भी अधिक लाभ कारी है।
10 ) दीपन-दीपक जलने से जैसे रोशनी हो जाती है, उसी प्रकार दीपन से मंत्र प्रकाशवान हो जाता है। दीपन करने हेतु मूल मंत्र को योनि बीज ईं से संपुटित कर सात बार जप करें।
11) प्राण योग-बिना प्राण अथवा जीवन के मन्त्र निष्क्रिय होता है। अत: मूल मन्त्र के आदि और अन्त में माया बीज ह्रीं से संपुट लगाकर सात बार जप करें ।
12 ) मुख शोधन-हमारी जिह्वा अशुद्ध रहती है जिस कारण उससे जप करने पर लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। अत: ऐं ह्रीं ऐं मंत्र से दस बार जाप कर मुखशोधन करें।
13 ) मध्य दृस्टि -साधना के लिए मध्य दृस्टि आवश्यक है। अत: मूल मंत्र के प्रत्येक अक्षर के आगे पीछे यं बीज का अवगुण्ठन कर मूल मंत्र का पांच बार जप करना चाहिए।
14 ) शापोद्धार-मूल मंत्र के जपने से पूर्व दस बार इस मंत्र का जप करें हलीं बगले ! रूद्र शापं विमोचय विमोचय ? ह्लीं स्वाहा।
15 ) उत्कीलन-मूल मंत्र के आरम्भ में ह्रीं स्वाहा मंत्र का दस बार जप करें।
16 ) आचार- इस विद्या के दोनों आचार हैं, वाम भी और दक्षिण भी ।
भगवती बगला सुधा-समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय मण्डप में रत्नवेदी पर रत्नमय सिंहासन पर विराजती हैं। पीतवर्णा होने के कारण ये पीत रंग के ही वस्त्र, आभूषण व माला धारण किये हुए हैं। इनके एक हाथ में शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्गर है। व्यष्टि रूप में शत्रुओं का नाश करने वाली और समष्टि रूप में परम ईश्वर की सहांर-इच्छा की अधिस्ठात्री शक्ति बगला है।
श्री प्रजापति ने बगला उपासना वैदिक रीति से की और वे सृस्टि की संरचना करने में सफल हुए। उन्होंने इस विद्या का उपदेश सनकादिक मुनियों को दिया। सनतकुमार ने इसका उपदेश श्री नारद को और श्री नारद ने सांख्यायन परमहंस को दिया। जिन्होंने छत्तीस पटलों में बगला तंत्र ग्रन्थ की रचना की। स्वतंत्र तंत्र के अनुसार भगवान् विष्णु इस विद्या के उपासक हुए। फिर श्री परशुराम जी और आचार्य द्रोण इस विद्या के उपासक हुए। आचार्य द्रोण ने यह विद्या परशुराम जी से ग्रहण की।
श्री बगला महाविद्या ऊर्ध्वाम्नाय के अनुसार ही उपास्य हैं जिसमें स्त्री (शक्ति) भोग्या नहीं बल्कि पूज्या है। बगला महाविद्या श्री कुल से सम्बंधित हैं। श्रीकुल की सभी महाविद्याओं की उपासना अत्यंत सावधानी पूर्वक गुरु के मार्गदर्शन में करनी चाहिए। श्री बगलामुखी को ब्रह्मास्त्र विद्या के नाम से भी जाना जाता है। शत्रुओं का दमन और विघ्नों का शमन करने में विश्व में इनके समकक्ष कोई अन्य देवता नहीं है।
भगवती बगलामुखी को स्तम्भन की देवी कहा गया है। स्तम्भनकारिणी शक्ति नाम रूप से व्यक्त एवं अव्यक्त सभी पदार्थो की स्थिति का आधार पृथ्वी के रूप में शक्ति ही है और बगलामुखी उसी स्तम्भन शक्ति की अधिस्ठात्री देवी हैं। इसी स्तम्भन शक्ति से ही सूर्यमण्डल स्थित है। सभी लोक इसी शक्ति के प्रभाव से ही स्तंभित है।
जो साधक इस साधना को पूर्ण कर, सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें इन तथ्यो की जानकारी होना अति आवश्यक है।
1 ) कुल -महाविद्या बगलामुखी श्री कुल से सम्बंधित है।
2 ) नाम -बगलामुखी, पीताम्बरा , बगला , ब्रह्मास्त्र विद्या।
3 ) कुल्लुकामंत्र -जाप से पूर्व उस मंत्र कि कुल्लुका का न्यास सिर में किया जाता है। इस विद्या की कुल्लुका हूं छ्रौ है।
4) महासेतु - साधन काल में जप से पूर्व 'महासेतुÓ का जप किया जाता है। ऐसा करने से लाभ यह होता है कि साधक प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थिति में जप कर सकता है। इस महाविद्या का महासेतु स्त्रीं है। इसका जाप दस बार किया जाता है।
5) कवचसेतु - इसे मंत्रसेतु भी कहा जाता है। जप प्रारम्भ करने से पूर्व इसका जप एक हजार बार किया जाता है। ब्राह्मण व छत्रियों के लिए प्रणव , वैश्यों के लिए फट तथा शूद्रों के लिए ह्रीं कवचसेतु है।
6 ) निर्वाण-ह्रूं ह्रीं श्रीं से सम्पुटित मूल मंत्र का जाप ही इसकी निर्वाण विद्या है। इसकी दूसरी विधि यह है कि पहले प्रणव कर, अ , आ , आदि स्वर तथा क, ख , आदि व्यंजन पढ़कर मूल मंत्र पढ़ें और अंत में ऐं लगाएं और फिर विलोम गति से पुनरावृत्ति करें।
7 ) बंधन -किसी विपरीत या आसुरी बाधा को रोकने के लिए इस मंत्र का एक हजार बार जाप किया जाता है। मंत्र इस प्रकार है -ऐं ह्रीं ह्रीं ऐं
8) मुद्रा-इस विद्या में योनि मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।
9) प्राणायाम-साधना से पूर्व दो मूल मंत्रो से रेचक, चार मूल मंत्रो से पूरक तथा दो मूल मंत्रो से कुम्भक करना चाहिए। दो मूल मंत्रो से रेचक, आठ मूल मंत्रो से पूरक तथा चार मूल मंत्रो से कुम्भक करना और भी अधिक लाभ कारी है।
10 ) दीपन-दीपक जलने से जैसे रोशनी हो जाती है, उसी प्रकार दीपन से मंत्र प्रकाशवान हो जाता है। दीपन करने हेतु मूल मंत्र को योनि बीज ईं से संपुटित कर सात बार जप करें।
11) प्राण योग-बिना प्राण अथवा जीवन के मन्त्र निष्क्रिय होता है। अत: मूल मन्त्र के आदि और अन्त में माया बीज ह्रीं से संपुट लगाकर सात बार जप करें ।
12 ) मुख शोधन-हमारी जिह्वा अशुद्ध रहती है जिस कारण उससे जप करने पर लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। अत: ऐं ह्रीं ऐं मंत्र से दस बार जाप कर मुखशोधन करें।
13 ) मध्य दृस्टि -साधना के लिए मध्य दृस्टि आवश्यक है। अत: मूल मंत्र के प्रत्येक अक्षर के आगे पीछे यं बीज का अवगुण्ठन कर मूल मंत्र का पांच बार जप करना चाहिए।
14 ) शापोद्धार-मूल मंत्र के जपने से पूर्व दस बार इस मंत्र का जप करें हलीं बगले ! रूद्र शापं विमोचय विमोचय ? ह्लीं स्वाहा।
15 ) उत्कीलन-मूल मंत्र के आरम्भ में ह्रीं स्वाहा मंत्र का दस बार जप करें।
16 ) आचार- इस विद्या के दोनों आचार हैं, वाम भी और दक्षिण भी ।
एक बार जो मां बगला का कृपापात्र बन जाता है वह चहुं ओर से संपन्न व सुरक्षित भी हो जाता है।
आपको साधुवाद महोदय
ReplyDelete