Wednesday, May 25, 2016

वेद सार 49

यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरंंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।। 
                                                                               यजुर्वेद:- 34/1
भावार्थ:-
यत- जो
जाग्रत-जागते हुए पुरुष का
दूरम-दूर-दूर
उदैति-आता-जाता है
दैवम- देव
तद-वह मन
उ-निश्चय से
सुप्तस्थ-सोते हुए पुरुष का
तथैव-वैसे ही
एति-जाता-आता है
दूरंगम-दूर जाने का जिसका स्वभाव ही है
ज्योतिषाय्-अग्नि,सूर्यादि,श्रोतादि इन्द्रिय इन प्रकाशकों का भी
एकम-एक बड़ा चंचल वेग वाला
तत्-वह
मे-मेरा
मन:-मन
शिवसंकल्प-धर्म,कल्याण,संकल्पकारी,स्थिर,शुद्ध,धर्मात्मा
अस्तु-आप की कृपा से ही


व्याख्या:-हे धर्म निरुपद्रव परमात्मन् आप की कृपा से मेरा मन सदा धर्म कल्याण संकल्पकारी ही हो। वह कभी भी अधर्मकारी न हो। मन के बिना किसी पदार्थ का प्रकाश कभी नहीं होता। एक बड़ा चंचल वेग वाला मन आपकी कृपा से स्थिर,शुद्ध,धर्मात्मा,विद्यायुक्त हो सकता है। आत्मा का मुख्य साधक भूत,भविष्यत् और वर्तमान काल का ज्ञाता है। वह आपके वश में ही है। उम को आप हमारे वश में यथावत करें जिससे कि हम कुकर्म में कभी नहीं फसें। सदैव विद्या,धर्म और आपकी सेवा में ही रहे।

Tuesday, May 24, 2016

वेद सार 48

य आत्मदा बलदा यस्य विश्वऽउपासते प्रशिष यस्य देवा:।
यस्य च्छायामृतं ययस् मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम।।
                                                                          यजुर्वेद:- 25/13

भावार्थ:-
य:-जो परमात्मा
आत्मदा-आत्मज्ञानादि का दाता
बलदा-त्रिविध बल का दाता
यस्य-जिसके
विश्वे-समस्त जड़-चेतन
उपासते-यथावत मानते हैं
प्रशिषम्-अनुशासन
देवा:-विद्वान लोग
छाया-आश्रय ही
अमृतम-विज्ञानी लोगों का मोक्ष कहलाता है
अछाया-अकृपा
मृत्यु-दुष्ट जनों के लिए वारम्बार मरण और जन्मरूप महाक्लेश दायक है
कस्मै-परमसुख दायक
देवाय- पिता की
हविषा-हम सब मिलकर प्रेम विश्वास और भक्ति
विधेम-करें

व्याख्या:-हे मनुष्यो जो परमात्मा अपने लोगों को आत्मज्ञानादि का दाता है तथा त्रिविध बल का जो दाता हे,जिसके अनुशासन को यथावत् विद्वान लोग मानते हैं। सब प्राणी जड़ और चेतन उस परमात्मा के नियमों का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता है। उसकी छाया विज्ञानी(विद्वान) लोगों का मोक्ष कहलाता है तथा जिसकरी अछाया दुष्ट जनों के लिए बारम्बार मरण और जन्मरूप महाक्लेशदायक है।
हे मित्रो वही एक परम सुखदायक पिता है। आओ सब मिलकर प्रेम और विश्वास से भक्ति करें। कभी उनको छोड़कर अन्य को उपास्य न मानें। वह अपने को अत्यंत सुख देगा इसमें कतई संदेह नहीं है।

Monday, May 23, 2016

दस दिक्‍पाल देवता-7

                                                                    10-भगवान शिव
ईशान कोण के स्वामी हैं देवाधिदेव महादेव। इनकी उपासना न केबल देवता ही करते हैं बल्कि ऋषि-मुनि,ज्ञानी,ध्यानी,योगी,सिद्ध,महात्मा,असुर,विद्याधर,नाग,किन्नर,चारण,मनुष्य आदि भी भगवान शिव के ध्यान में निरंतर लगे रहते हैं। शिव चूंकि उद्दातदाता हैं इसलिए वह सभी की इच्छाओं की पूर्ति करते हैं।

शिव परिवार:- शिव का परिवार बहुत बड़ा है। वहां सभी द्वैतों का अंत दिखता है। एकादश रूद्र,रूद्राणियां,चौंसठ योगिनियां,मातृकाएं तथा भैरवादि इनके सहचर तथा सहचरी हैं। अनेक रूद्र गण जिनके अध्यक्ष वीरभद्र हैं,इनके साथ रहते हैं। माता पार्वती,पुत्र गणपति , उनकी पत्नी सिद्धि,बुद्धि तथा क्षेम और लाभ दो पुत्र हैं। उनका वाहन मूषक है। भगवती पार्वती का वाहन सिंह है। वाण,रावण,चन्डी,रिटि तथा भृंगी आदि उनके मुख्य पार्षदों हैं। इनके द्वार रक्षक के रूप में कीर्तिमुख प्रसिद्ध हैं। उनकी पूजा के बाद ही मंदिर आदि में प्रवेश तथा भगवान शिव की पूजा करने का विधान है। इससे भगवान शिव अति प्रसन्न होते हैं।

शिव का निवास स्थान:- शिव पुराण के अनुसार यों तो शिव सवैत्र व्याप्त हैं लेकिन काशी और कैलास इनके दो महत्वपूर्ण निवास स्थान कहे गये हैंं।

वाहन:- स्कन्द पुराण के अनुसार भगवान धर्म जो नंदी के नाम से वृषभ रूप में अवतरित हुए भगवान शिव का अत्यंत प्रिय वाहन है।

आयुध:- त्रिशूल और पिनाक इनके दो प्रमुख आयुध हैं।

शिव के स्वरूप और उपासना:- शास्त्रों में इनका स्वरूप अनंत बताया गया है। इनकी उपासना निर्गुण,सगुण,लिंगविग्रह आदि के रूप में होती है।

ध्यान मंत्र:- ध्यायेनित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलाडं़्ग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्यासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैव्र्याघ्रकृतिं वसानं
विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्।।

Thursday, May 19, 2016

वेद सार 47

तनूपाऽअग्नेऽसि तन्वं में पाहि। आयुर्दा अग्नेऽ स्यायुमै देहि। वर्चोदा अग्नेऽसि वर्चो मे देहि। अग्ने यन्मे तन्वा ऊनं तन्मऽआपृण।।
                                                                                                                       यजुर्वेद:-3/17

भावार्थ :-
तनूपा - शरीर का रक्षक
अग्ने - हे सर्व रक्षकश्वराग्ने
असि - तू है
तन्वम् - शरीर को
 में - हमारे
पाहि - कृपा से पालन कर
आयुर्दा: - आयु बढ़ाने वाले
असि - आप हो
वर्चोदा - विद्यादि तेज
वर्च: - सर्वोत्कृष्ट विद्यादि तेज
में - मुझ को
देहि - दो
यत - जो-जो कुछ भी
मे - मेरे
तन्वा: - शरीरादि में
ऊनम - न्यूण हो
तत् - उस-उस को
आपृण - कृपादृष्टि से सुख और ऐश्वर्य के साथ सब प्रकार से पूर्ण करो।

व्याख्या:-
 हे सर्वरक्षकेश्वराग्ने तू हमारे शरीर का रक्षक है इसलिए शरीर को कृपा से पालन कर। हे महावैद्य आप आयु को बढ़ाने वाले हो सो मुझ को उत्तमायु दीजिए। हे अनंत विद्यातेयुक्त आप विद्यादि तेज देने वाले हो सो मुझको सर्वोत्कृष्ट विद्यादि तेज हो।
पूर्वोक्त शरीरादि की रक्षा से हम को सदा आनंद में रखो और जो-जो कुछ भी शरीर में न्यूण हो उस-उस को कृपादृष्टि से सुख और ऐश्वर्य के साथ सब प्रकार से आप पूर्ण करो। किसी आनंद व श्रेष्ठ पदार्थ की न्यूनता हमको न रहे।
आप के पुत्र हम लोग जब पूर्णानंद में रहेंगे तभी आप पिता की शोभा हैं क्योंकि लड़के लोग छोटी व बड़ी चीज अथवा सुख पिता-माता को छोड़ किससे मांगे। सो आप सर्वशक्तिमान हमारे पिता सब ऐश्वर्य तथा सुख देने वालों में पूर्ण हो।

Wednesday, May 18, 2016

वेद सार 46

अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षममदितिर्माता स पिता स पुत्र:।
विश्वे देवा पन्चजना अदितिर्जातमदितिजनित्वम।।
                                                          ऋग्वेद:- 1/6/16/10

भावार्थ:-
अदिति-सदैव विनाश रहित
द्यौ:-सदैव स्वप्रकाश स्वरूप
अविकृत-विकार को न प्राप्त
अन्तरिक्षम्- सब का अधिष्ठाता
माता-सुख देने और मान करने वाला
स:-सो
पिता-जनक और पालक
पुत्र-नरकादि दु:खों से पवित्र और रक्षा करने वाला
विश्वे-सब
देवा:-दिव्य गुणों वाला
पन्च-पांच प्राण
जना:-जगत के जीवन हेतु
जातम्-प्रादुर्भूत
जनित्वम्-जन्म का हेतु

व्याख्या:-हे त्रैकाल्याबाधेश्वर आप सदा विनाश रहित तथा स्वप्रकाशस्वरूप हो,सबके अधिष्ठाता हो। आप मोक्ष प्राप्त जीवों को विनाश रहित सुख देने और अत्यन्त मान करने वाले हो सो अविनाशी स्वरूप हम सब लोगों के पिता और पालक हो।आप मुमुक्षु धर्मात्मा विद्वानों को नरकादि द़:खों से पवित्र और रक्षण करने वाले हो। आप अविनाशी परमात्मा ही हैं जो जीवन हेतु पंचप्राण के रचने वाले हैं। आप सदा प्रादुर्भूत  और चेतन ब्रह्म हैं।

Sunday, May 15, 2016

दस दिक्पाल देवता-6

                                                         9- ब्रह्मदेव

मुण्डकोपनिषद् के अनुसार ब्रह्मदेव ऊध्‍र्व क्षेत्र के स्वामी हैं। इनके प्रात: स्मरण मात्र से सभी प्रकार के मंगल होते हैं। सभी मांगलिक कार्यों के प्रारंभिक पूजन में इनका स्मरण पूजन करने का विधान है। प्रजापति ब्रह्मा को परब्रह्म परमात्मा के रूप में स्वीकार किया गया है। भगवान विष्णु के नाम कमल से ब्रह्मा जी का पादुर्भाव हुआ है। भगवान विष्णु की प्रेरणा से सरस्वती देवी ने उनके हृदय में प्रविष्ट होकर उनके चारों मुखों से उपवेद और चार वेदों का सस्वरगण कराया। पुन: उन्होने सृष्टि विस्तार के लिए सनक, सनदेन, स्नातन, सनतकुमार चार मानस पुत्र उत्पन्न किए। इसके बाद मरीचि, पुलस्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मृगु, वसिष्ठ दक्ष व कर्दम आदि मानस पुत्रों को उत्पन्न किया। ब्रह्मा का दिन ही दैनन्दिन सृष्टि चक्र का समय होता है। उनका दिन ही कल्प कहलाता है। समस्त पुराणों तथा स्मृतियों में सृष्टि प्रक्रिया में सर्वप्रथम ब्रह्मा के ही प्रकट होने का वर्णन आता है।

----इनके पूर्व मुख से ऋग्वेद, पश्चिम मुख से सामवेद, उत्तर मुख से अथर्ववेद और दक्षिण मुख से यजुर्वेद का अविर्भाव हुआ।

यज्ञ या हवण के दैनिक प्रयोग में लाई जाने सबसे पवित्र समिधा काष्ठ, 'पलासÓ को ब्रह्मा का ही प्रतीक माना जाता है।

वर्ण:- अग्नि पुराण के अनुसार इसका आधा भाग श्वेत और आधा कृष्ण है। ये चतुर्मुख, चतुर्भुज हैं।

वाहन:-ब्रह्म देव हंस पर आरूढ़ रहते हैं।
आयुध:-ब्रह्म देव एक हाथ में अक्षसूत्र और स्रुुवा, दूसरे हाथ में कुण्डिका और आज्यस्थाली, तीसरे हाथ में  कमंडलु और चौथे हाथ में रूद्राक्ष की माला धारण किए रहते हैं। इनके बाम भाग में सरस्वती तथा दक्षिण भाग में सावित्री विराजमान रहती हंै।

ध्यान मंत्र :-
 'अहं ब्रह्मा च शर्वश्च जगत: कारणं परम्।
आत्मेश्वर उपद्रष्टा स्वंयदृगविशेषण:।।Ó

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Saturday, May 14, 2016

वेद सार 45

कि थं स्विद्वनं क उ स वृक्षऽआस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षु:।
 मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठभुवनानि धारयन।
                                                                               यजुर्वेद:-17/20

भावार्थ - किंस्वित - विद्या क्या है
वनम् - वन
क: - किसको
उ-और
स:-उसी को
वृक्ष:- वृक्ष
आस-कहते हैं
यत: - जिस सामथ्र्य से
द्यावापृथिवी - स्वर्ण सुख विशेष और भूमि मध्य
मनीषिण: - हे विद्वानो
मनसा-उसके विज्ञान से
पृच्छत - प्रश्न करो
इद - उसका निश्चय
तद - उसके विषय में
यद - जो
अध्यतिष्ठत् - समस्त जगत में और सबके ऊपर विराजमान हो रहा है भुवनानि - सब भुवनों को
धारयन् - धारण करके।

व्याख्या: - विद्या क्या है? वन और वृक्ष किसको कहते हैं? 
:: जिस सामथ्र्य से विश्वकर्मा ईश्वर ने अनेक विधि रचना से अनेक पदार्थ को रचा है वैसे हीं स्वर्ग, नरक सहित अन्य लोकों को रचा है। उसी को वन और वृक्ष आदि कहते हैं। हे विद्वानो जो सब भुवनों को धारण करके समस्त जगत में और सबसे ऊपर विराजमान हो रहा है उसके विषय में प्रश्न और निश्चय तुम लोग करो। ईश्वर के विज्ञान से ही जीवों का कल्याण होता है। अन्यथा नहीं।

Friday, May 13, 2016

वेद सार 44

वैश्वानरस्य सुमतों स्याम राजा हि कं भुवनानामभिश्री :।
इतो जातो विश्वमिदं विचष्टे वैश्वानरो यतते सूर्येण।।
                                                             ऋग्वेद-1/7/6/1

भावार्थ:-वैश्वानरस्थ-परमेश्वर की
 सुमतों-उत्कृष्ट ज्ञान में
स्यान-हम निश्चित सुखस्वरूप और विज्ञान वाले हों
राजा-हमारा तथा समस्त जगत का स्वामी
हि-और
कम्-सबका सुखदाता
भुवनानाम-सब भुवनों का अभिश्री:-सब का निधि
इत: इसी ईश्वर के सामथ्र्य से
जात:- उत्पन्न हुआ
विश्वम्-संसार
इदम्-यह
विचस्टे-उसने रचा है
वैश्वानर:- संसारस्थ सब नरों का नेता
यतते-प्रकाशक हंै
सूयेण-सूर्य के साथ।

व्याख्या:-
हे मनुष्यो, जो हमारा तथा समस्त जगत का राजा, समस्त भुवनों का स्वामी, सब का सुखदाता, सबका निधि, समस्त नरों का नेता और जिसने सूर्य समेत समस्त प्रकाशक पदार्थ रचे हंै उसी से यह संसार उत्पन्न हुआ है। उसी परमेश्वर के उत्कृष्ट ज्ञान में हम निश्चित ही सुखस्वरूप और विज्ञान वाले हों। हे महाराजाधिराजेश्वर आप हमारी इस आशा को कृपा कर पूरा करो। 

Tuesday, May 10, 2016

दस दिक्‍पाल देवता 5

                                                    7-अनंत देव

अनंत देव अध:(रसातल) क्षेत्र के स्वामी हैं। श्रीमद् भागवत के अनुसार भगवान की एक मूर्ति गुणातीत है जिसे वासुदेव कहा जाता है वहीं दूसरी तामसी है जिसे अनंत या शेष कहते हैं। भगवान की तामसी नित्यकला 'अनंतÓ के नाम से विख्यात है। ये अनादि हैं। इनके वीक्षण मात्र से प्रकृति में गति जाती है और सत्व,रज तथा तम- ये तीनों गुण अपने-अपने कार्य करने लगते हैं। इस तरह जगत की उत्पत्ति ,स्थिति और लय का क्रम चल पड़ता है। इनके पराक्रम,प्रभाव औश्र गुण अनंत हैं। ये संपूर्ण लोकों की स्थिति के लिए ब्रह्मांड को अपने मस्तक पर धारण करते हैं। देवता,असुर,नाग,सिद्ध,गंधर्व,विद्याधर,मुनिगण आदि अनंत भगवान का ही ध्यान करते हैं। इनकी आंखें पे्रम के मद से आनंदित और विह्वल रहती है। भगवान अनंत द्रष्टा और दृश्य को आकृष्ट कर एक बना देते हैं। इसलिए इन्हें 'संकर्षणÓ भी कहा जाता है। कोई पीडि़त या पतित व्यक्ति इनके नाम का अनायास ही अगर उच्चारण कर लेता है तो वह इतना पुण्यात्मा बन जाता है कि वह दूसरे पुरुषों के पाप-ताप को भी नष्ट कर देता है।

वर्ण:- इनका शरीर पीताम्बर है। कान में कुंडल और गले में वैजयन्ती की माला धारण किए रहते हैं।

आयुध:- इनके एक हाथ में हल की मूठ रहती है,वहीं दूसरे हाथ में अभय मुद्रा है।

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                                                         8-नैर्ऋति देव

नैर्ऋति देव नैर्ऋत्य कोण के स्वामी हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार ये सभी राक्षसों के अधिपति और परम पराक्रमी हैं। दिक्पाल निर्ऋति के लोक में जो ारक्षस रहते हैं वे जाति मात्र के राक्षस हें। आचरण में वे पूर्णरूप से पुण्यात्मा हैं। वे श्रुति और स्मृति के मार्ग पर चलते हैं। वे ऐसा खान-पान नहीं करते जिनका शास्त्रों में विधान नहीं है। वे पुण्य का अनुष्ठान करते हैं। वहीं स्कन्दपुराण के अनुसार इन्हें सभी प्रकार के भोग सुलभ हैं। निर्ऋति देवता भगवदीय जनों के हित के लिए पृथ्विी पर आते हैं।

वर्ण:- इनका शरीर गाढ़े काजल की भाति काला है तथा बहुत विशाल है।

आयुध:- ये पीले आभूषणों से भूषित और हाथ में खड्ग लिये हुए हैं। राक्षयों का समूह इन्हें चारो ओर से घेरे रहता है।

सवारी:-मत्स्य पुराण के अनुसार ये पालकी पर चलते हैं। इनका तेज काफी प्रखर है।

Monday, May 9, 2016

दस दिक्‍पाल देवता 4

                                                6- अग्नि देव

अग्नि कोण के स्वामी हैं अग्नि देव। यजुर्वेद के अनुसार भगवान के मुख से इनकी उत्पत्ति हुई है। वहीं कठोपनिषद् के अनुसार अग्नि देवता ब्रह्मांड में व्याप्त हैं। वे भिन्न-भिन्न स्थलों में अलग-अलग स्वरूप में स्थित रहते हें। पार्थिव अग्नि के रूप में काष्ठ के ईंधन से, मध्यम अग्नि के रूप में जल के ईंधन से और उत्तम अग्नि के रूप में जलाघात रूप(गैस) से उत्पन्न होते हें। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार अग्नि देवता प्रत्येक के जीवन ं  मअुनस्यूत हें। इनके बिना किसी का जीवन संभव ही नहीं है। अग्नि देवता से ऋग्र्वेद का आविर्भव हुआ है। अग्नि पुराण इन्हीं की देन है। ऋग्वेद के अनुसार मानव और देवता के बीच कड़ी का काम अग्नि देव ही करते हैं। मनुष्य द्वारा अग्नि में डाली गई हवि अग्नि देव के माध्यम से ही सीधे देवताओं तक पहुंचती है। अत: इन्हें जो हब्य प्रदान करता है एस पर इनकी अपार कृपा दृष्टि रहती है।

अग्नि देव का परिवार:- इनकी पत्नी का नाम स्वाहा है। स्वाहा से इनके तीन पुत्र हुए-पावक,पवमान औश्र शुचि।

अग्नि देव का वर्ण:- इनका वर्ण लाल है।

वाहन:- छाग इनका वाहन है।

आयुध:- ये यज्ञोपवित और रूद्राक्ष धारण किए हुए हें। इनके एक हाथ में शक्ति और दूसरे हाथ में वरद मुद्रा है।

ध्यान मंत्र:-
 पिड़्ग भ्रूमयश्ऱकेशश्च पिड़्गाक्षस्रितयोडरुण।
छागस्थ: साक्षसूत्रश्च वरद: शक्तिधारक:।।

Saturday, May 7, 2016

दस दिक्पाल देवता 3


                                                        4-वायु देव

वायु देव वायव्य दिशा के स्वामी हैं। ऋग्वेद के अनुसार इनकी उत्पत्ति विराटपुरुष के प्राण से हुई है। प्राणियों में जो प्राण है उसके अधिष्ठातृ देवता वायु ही हैं। शरीर के पांचो प्राणों में देवभाव वायु देव से ही प्राप्त होता है। आधिभौतिक दृष्टि से भी विचार करें तो प्रतीत होता है कि श्वांस द्वारा वायु को ग्रहण न किया जाए तो मृत्यु निश्चित है। इस तरह हम प्रत्येक क्षण वायु के द्वारा ही अमरता को प्राप्त करते हैं। वायु देव ने ही संपूर्ण यजुर्वेद और वायु पुराण प्रदान कर संसार को आध्यात्मिक लाभ पहुंचाया है। वायु देव हर क्षण मृत्यु से बचाकर हमें सत्यपथ पर चलाते रहते हैं। संसार में जितने भी बल हें सबका केंद्र वायु देव ही हैंं। महाभारत के अनुसार वायु के समक्ष किस की का बल नहीं है।

वायु देव के परिवार:- हनुमान और भीम इनके पुत्र हैं जो क्रमश: अंजनी और कुंती के गर्भ से उत्पन्न हुए।

आयुध:- इनके एक हाथ में ध्वज और दूसरे हाथ में वरमुद्रा है।

वायु देव की आराधना का मंत्र:-
धावद्धरिणमारूढ़ द्विभुजं ध्वजधारिणम्।
वरदानकरं धूम्रवार्ण वायुमहं भजे।।
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                                                      5-यम देव

यम देव दक्षिण दिशा के स्वामी हैं। यह हमारे शुभ और अशुभ कार्यों को जानते हैं। ऋग्वेद के अनुसार यम देव पूर्ण ज्ञानी हैं। इनके लोक में निरंतर अनश्वर ज्योति जगमगाती रहती है। यह लोक स्वयं अनश्वर है और इसमें कोई मरता नहीं है। इनका वर्ण नीला है और देखने में काफी उग्र हैं। इनकी आंखें लाल है। संसार के समस्त जीवों का जब वह शरीर का त्याग करता है तो उसके कर्मों के अनुसार उसकी आत्मा को दंड और पुरस्कार का प्रावधान  यम देव ही करते हैं। भैंसा इनकी सवारी है। और इनके हाथ में पाश रहता है।

यम देव का परिवार:-यम देव भगवान सूर्य के पुत्र हैं। इनकी माता का नाम संज्ञा है। हरिवंश पुराण के अनुसार यम की बहन यमी ही यमुना है। इनकी दूसरी बहन तपती है। दोनो बहनें क्रमश: उत्तर और दक्षिण भारत की प्रमुख नदियों में से है।

Friday, May 6, 2016

दस दिक्पाल देवता 2


2.वरुण देव
पश्चिम भाग (दिशा) के देवता वरुण हैं। इनकी द्वादश आदित्यों में भी गणना होती है। वेद के अनुसार यह प्रकृति के नियमों के व्यवस्थापक के रूप में जाते हैं। ऋग्वेद 8। 42। 1 के अनुसार वरुण देव के विधान के कारण ही द्युलोक और पृथ्वी लोक अलग-अलग हैं। वे आदित्य रूप से दिन में तो प्रकाश देते ही हैं। रात में भी चांद और तारों को प्रकाशित कर प्रकाश देते हैं। पृथ्वी और अंतरिक्ष में जितने भी जलरूप हैं सबके स्वामी वरुण देव ही हैं। अथर्ववेद 5। 24। 4 के अनुसार देवताओं ने इन्हें जलेश्वर के पद पर अभिषिक्त किया।

वर्ण:-वरुण देवता का वर्ण स्वर्णिम है।

वाहन:- अग्नि पुराण के अनुसार वरुण देवता का वाहन मकर है।

आयुध:-अग्निपुराण के अनुसार वरुण देवता का प्रधान आयुध पाश है। जिसे नागपाश और विश्वजित भी कहते हैं।  वरुण देव वज्र, गाण्डीव, धनुष और अक्षय तूषीर का भी प्रयोग करते हैं। महाभारत के अनुसार अग्नि देव के कहने पर कुछ समय के लिए गाण्डीव धनुष और अक्षय तूणीर को वरुण देव ने अर्जुन को भेंट किया था जिसे स्वर्गारोहण से पूर्व अर्जुन ने देवताओं को लौटा दिया था।

परिवार:-वरुण देव के पिता कश्यप ऋषि और माता का नाम अदिति है। इनकी बड़ी पत्नी का नाम देवी है। देवी से बल नामक पुत्र और सुरा नामक पुत्री हुई। इनकी दूसरी पत्नी का नाम पर्णाशा है जिसे शतायुध नामक पुत्र पैदा हुआ। तीसरी पत्नी का नाम चर्षणी है जिसमें भृगु ऋषि उत्पन्न हुए।
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3.कुबेर देव
कुबेर देवता उत्तर भाग (दिशा) के स्वामी है। ये नौ निधियों (पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और खर्व के स्वामी हैं) मत्स्य पुराण के अनुसार यक्षों पर अधीश्वर बनने के लिए कुबेर ने नर्मदा और काबेरी तट पर सौ दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर महादेव ने इन्हें यक्षों का अधीश्वर होने का वरदान दे दिया। (मत्स्य पुराण)

वाहन:-इनका वाहन नर है।

आयुध:-कुबेर देव खडग़, त्रिशूल और गदा धारण करते हैं और यक्षों, राक्षसों और गुह्यकों की इनकी विशाल सेना है।

परिवार:-इनकी माता इडविडा और पिता विश्रवा है। इनकी सौतेली मां का नाम कैकसी है। इससे रावण, कुंभकर्ण और विभीषण हुए। कुबेर की पत्नी का नाम भद्रा है। नलकूबर और मणिग्रीव नामक इनके दो पुत्र हैं। कैलास पर स्थित अलकापुरी इनकी राजधानी है।

Tuesday, May 3, 2016

दश दिक्पाल देवता -1

नवग्रह मंडल में दश दिक्पालों के भी पूजन का विधान है। पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, वायव्य, उत्तर, ईशान, उध्र्व तथा अध। ये क्रमश: 10 दिशाएं हैं। प्रत्येक दिशा के अधिपति के रूप में एक-एक देवता हैं। ये ही 10 दिक्पाल देवता कहलााते हैं।

1.पूर्व के देवता हैं इन्द्र। महाभारत के अनुसार महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से इनका जन्म हुआ। इन्द्रतीर्थ में इन्होने सौ यज्ञ किए थे।  इसलिए इनका नाम शतक्रतु हुआ। ये भू , भुव: और स्व: लोकों के अधिपति हैं। इनकी पत्नी का नाम शची है। इनके पुत्र का नाम जयंत और पुत्री का नाम जयंती है। इनकी शक्ति की कोई शानी नहीं है। जब राहु के उपराग से सूर्य प्रकाशहीन हो जाते हैं तब देवराज इन्द्र इस असुर को पराजित कर सूर्य को प्रकाशयुक्त कर देते हंै। सूर्य के न रहने पर सूर्य बनकर तपते हैं और चंद्रमा के न रहने पर स्वयं चन्द्रमा बनकर जगत् को शीतलता प्रदान करते हैं। इसी प्रकार जरूरत पडऩे पर पृथ्वी ,जल ,अग्नि ,वायु बनकर विश्व की स्थिति बनाये रखते हंै। संतुष्ट होने पर समस्त प्राणियों को बल, तेज ,और सुख प्रदान करते हैं। अपने उपासकों की सभी कामनाओं की पूर्ति करते हैं। ये दुराचारियों को दंड और सदाचारियों की रक्षा करते हंै।
श्रीतत्व निधि के अनुसार इन्द्र श्वेत वर्ण ऐरावत हाथी पर आसीन ह्रै। इनके हाथ में वज्र और अंकुश है। इनके सहस्र नेत्र हैं और वर्ण स्वर्ण की भांति है।
इन ध्यान साधना इन मन्त्रों से करें:-
श्वेतस्तिसमारूढं वज्रांकुशलसत्करम्।
सहस्रनेत्रं पीताभमिन्द्रं हृदि विभावये।।