Thursday, May 19, 2016

वेद सार 47

तनूपाऽअग्नेऽसि तन्वं में पाहि। आयुर्दा अग्नेऽ स्यायुमै देहि। वर्चोदा अग्नेऽसि वर्चो मे देहि। अग्ने यन्मे तन्वा ऊनं तन्मऽआपृण।।
                                                                                                                       यजुर्वेद:-3/17

भावार्थ :-
तनूपा - शरीर का रक्षक
अग्ने - हे सर्व रक्षकश्वराग्ने
असि - तू है
तन्वम् - शरीर को
 में - हमारे
पाहि - कृपा से पालन कर
आयुर्दा: - आयु बढ़ाने वाले
असि - आप हो
वर्चोदा - विद्यादि तेज
वर्च: - सर्वोत्कृष्ट विद्यादि तेज
में - मुझ को
देहि - दो
यत - जो-जो कुछ भी
मे - मेरे
तन्वा: - शरीरादि में
ऊनम - न्यूण हो
तत् - उस-उस को
आपृण - कृपादृष्टि से सुख और ऐश्वर्य के साथ सब प्रकार से पूर्ण करो।

व्याख्या:-
 हे सर्वरक्षकेश्वराग्ने तू हमारे शरीर का रक्षक है इसलिए शरीर को कृपा से पालन कर। हे महावैद्य आप आयु को बढ़ाने वाले हो सो मुझ को उत्तमायु दीजिए। हे अनंत विद्यातेयुक्त आप विद्यादि तेज देने वाले हो सो मुझको सर्वोत्कृष्ट विद्यादि तेज हो।
पूर्वोक्त शरीरादि की रक्षा से हम को सदा आनंद में रखो और जो-जो कुछ भी शरीर में न्यूण हो उस-उस को कृपादृष्टि से सुख और ऐश्वर्य के साथ सब प्रकार से आप पूर्ण करो। किसी आनंद व श्रेष्ठ पदार्थ की न्यूनता हमको न रहे।
आप के पुत्र हम लोग जब पूर्णानंद में रहेंगे तभी आप पिता की शोभा हैं क्योंकि लड़के लोग छोटी व बड़ी चीज अथवा सुख पिता-माता को छोड़ किससे मांगे। सो आप सर्वशक्तिमान हमारे पिता सब ऐश्वर्य तथा सुख देने वालों में पूर्ण हो।

No comments:

Post a Comment