Thursday, December 31, 2015

श्रृष्टि चक्र का साइंस

श्रृष्टि चक्र का साइंस
शिव निराकार हैं जो कि ऊर्जा का मूल श्रोत है। श्रृष्टि के समय शिव सगुण और निर्गुण दोनों उभरती हैं। सगुण ईश्वर से शक्ति का उद्धव होता है। जिससे नाद (पर) की उत्पत्ति होती है एवं नाद से बिंदु (पर) की। बिंदु  तीन हिस्सों में बंटता है।
1. बिंदु (पर) 2. नाद (अपर) एवं 3.बीज। प्रथम से शिव एवं अंतिम से शक्ति का तादात्म्य है तथा नाद दोनों का सम्मिलन है। शक्ति ज्योतिरूप है। यह अति सूक्ष्म है जिसे महायोनि कहते हैं। वहीं अद्र्धमात्रा अर्थात तिल अक्षर, प्रणव में आकार, उकार, मकार- इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त बिन्दुरूपा नित्य अद्र्धमात्रा है। उसी का ब्रह्मा, विष्णु और महेश सदैव ध्यान करते हैं। यही राजयोग है।
यही ज्योतिरूप शक्ति मानव शरीर में कुण्डलिनी का रूप ग्रहण कर आधार चक्र में चमकती है। मानव शरीर में तांत्रिक ग्रंथों के अनुसार छह चक्र होते हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध एवं आज्ञा। इसके अतिरिक्तं ब्रह्मरन्ध्र बीजकोश के रूप में विद्यमान है। यह सर्प सदृश मूलाधार में कुण्डली लगाकर सुषुप्तावस्था में स्थित रहती है जिसे गहन साधना व ध्यान के जरिए जाग्रत किया जाता है। इसे जगाने पर यह धीरे-धीरे प्रत्येक चक्र को पार करके ब्रह्मरन्ध्र के सहस्रदल में मिल जाती है एवं अमृतपान कर पुन: वापस लौट आती है। ततपश्चात इस शक्ति को हम जिस किसी रूप में चाहते हैं ढ़ाल लेते हैं। वैज्ञानिकों ने भी अपने प्रयोगों से यह सिद्ध किया है कि शक्ति को अलग-अलग श्रोतों में रूपान्तरित किया जा सकता है।
कितना गजब का संयोग है कि श्रृष्टि का चक्र का तादात्म जितना विज्ञान से है उतना ही भाषा से। तभी तो नाउन,प्रोनाउन,एडजक्टिन,वर्भ आदि से जैसे-जैसे जीवात्मा जुड़ता जाता है उसका स्वरूप बदलता जाता है। वैसे ही कहने को तो पंथ अलग -अलग हैं लेकिन मूल एक ही है जो पंच तत्वों के मिलकर बना है जो प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्सटीन की थ्योरी का आधार भी है और उसे प्रमाणित भी करता है।

डा.राजीव रंजन ठाकुर

Wednesday, December 30, 2015

वेद सार -1


अग्निमीले पुरोहिंत यज्ञस्यं देवमृृत्विर्जम्। होतारं रत्नधार्तमम्।
ऋग्वेद-1-1-1-1
भावार्थ :- अग्निम्- ज्ञानस्वरूप अग्ने
ईले- मैं स्तुति करता हूं
पुरोहितम्- समस्त जगत के हित साधक
ऋत्विजम् - सभी ऋतु
होतारम् - समस्त जगत को सब योग और क्षेम देने वाले।

व्याख्या-- हे सर्वहितोपकारक अग्निदेव आप ज्ञानस्वरूप हो। आप समस्त जगत के हित साधक हो। हे यज्ञ देव सब मनुष्यों के पूज्यतम और ज्ञान यज्ञादि के लिए कमनीयतम हो। सभी ऋतुओं आदि के रचक अर्थात समयानुकूल सुख के संपादक आप ही हो। समस्त जगत को समस्त योग और क्षेम के देनेवाले हो और प्रलय के समय समस्त जगत का होम करने वाले हो। आप रमणीय पृथिव्यादिकों के धारण, रचना करने वाले तथा अपने सेवकों के लिए रत्नों के धारण करने वाले हो। इसलिए हे सर्वशक्तिमान मैं आपकी बार-बार स्तुति करता हूं। इसको आप स्वीकार कीजिए जिससे हमलोग आपकी कृपापात्र होकर सदैव आनंद में रहें। 

Tuesday, December 22, 2015

वेद सार

मेरे ब्लॉग को देश-विदेश में पढऩे वालों की ललक ,इच्छा,स्नेह व उनकी मांग नेमुझे ब्लॉग पर कुछ विशिष्ट संदर्भ पेश करने के लिए प्रेरित किया। इसी के मद्देनजर आज मैं चारो वेदों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातों की जानकारी शेयर कर रहा हूं। आशा है आपलोगों को यह पसंद आयेगा। इसके उपरांत मैं 31 दिसंबर से चारो वेदों की कुछ महत्वपूर्ण ऋचाओं को जो कि भौतिकवादी युग में भी मानव जीवन के लिए जरूरी है उसका अनुवाद सहित व्याख्या आपलोगों के लिए पोस्ट करूंगा।    
सनातम धर्म परंपरा की शुरूआत ऋग्वेद के प्रादुर्भाव के बाद से माना जाता है। यह ग्रंथ भारत और यूरोपीय भाषाओं का सबसे पुराना निदर्श है। इसमें अग्नि, इंद्र, मित्र, वरुण आदि देवताओं की स्तुतियां संग्रहित है। इन मंत्रों की रचना विभिन्न गोत्रों के ऋषियों ने की है। ऋग्वेद 10 मंडलों में विभक्त है। जिसमें 2 से 7 मंडल सबसे प्राचीन हैं। वहीं प्रथम और 10वां मंडल बाद में जोड़ा गया है। ऋग्वेद की अनेक बातें ईरानी भाषा का प्रचीनतम ग्रंथ अवेस्ता से मिलती है। दोनों ग्रंथों में बहुत से देवताओं के और सामाजिक वर्गों के नाम भी समान हैं। ऋग्वेद के अनुसार आर्यों की (जो कि 1500 ई पूर्व भारत आए उनकी) सबसे पवित्र नदी सिंधु थी। जबकि सरस्वती दूसरी प्रमुख नदी थी। ऋग्वेद में इंद्र को पुरंदर अर्थात किले को तोडऩे वाला कहा गया है। ऋग्वैदिक प्रशासन कबाईली था। इसी काल में व्यवसाय के आधार पर समाज का वर्गीकरण शुरू हुआ। ऋग्वेद में सबसे ज्यादा स्तुति इंद्र की 250 बार, अग्नि की 200 बार की गई है। अग्नि देव देवताओं और मानवों के बीच मध्यस्थ का काम करते थे। इसी कारण मानव द्वारा अग्नि में दी गई आहुति देवताओं तक पहुंचती थी। जबकि वरूण देव भी काफी आदरणीय थे। नवें मंडल में सोम रस के बारे में बताया गया है जबकि दसवां मंडल पुरुष सुक्त से संबंधित है। ऋग्वेद ,सामवेद व यजुर्वेद को त्रिवेद भी कहा जाता है। ऋग्वेद के सभी मंत्रों को अन्य वेदों में भी समाहित किया गया है। तदंतर वेद के चार स्वरूप हुए।

1.ऋग्वेद : इसमें ऋचाओं(श्लोक)की संख्या 1028 है। यह मंत्रों का संग्रह है। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले होता कहलाते हैं।

2.सामवेद : इसमें ऋचाओं(श्लोक)की संख्या 1810 है। इसमें मंत्रों को गायन के लिए धुन में बांधा गया है। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले उदगाता कहलाते हैं।

3.युजर्वेद :इसमें ऋचाओं(श्लोक)की संख्या 1875 है। इसमें मंत्रों के गायन और उसके अनुष्ठान की विधि के बारे में बताया गया है। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले अध्वर्यु कहलाते हैं।


4.अथर्वर्वेद :इसमें ऋचाओं(श्लोक)की संख्या 731 है। इसमें विपत्ति और व्याधि नाश एवं भूत- प्रेत से मुक्ति संबंधित मंत्र हैं। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले ब्रह्मा कहलाते हैं।

वेद की ऋचाओं को बताने वाले ऋषि व द्रष्टा : बाद के दिनों में विभिन्न गोत्रों से संबंध रखने वाले ऋषियों ने ऋग्वेद के ऋचाओं की रचना की। इनके नाम हैं-
मधुच्छंदा, विश्वामित्र, मेधातिथि, कण्व, जेता, आजीपति, घोर हिरण्यस्तूप, आंगिरस, प्रस्कण्व, सव्य, नोधा,गौतम, पराशर, शाक्य, राहुगण, कुत्स, ऋज्राश्व, अम्बरीष, कश्यप, मारीच,आप्त्यावित, कक्षीवान, दीर्घतमस, परच्छेप, अगस्त्य, मरूच्छेप, लोपामुद्रा,गुत्समद, सोमादुतिभार्गव, शौनक, कूर्म, उत्कीलकात्य, कौशिक,देवश्रवा, प्रजापति, वामदेव, वशिष्ठ, पुरूमीलहज व भरद्वाज।

Monday, December 21, 2015

meaning of relation

meaning of relation
We know that the relation is the basic need and pillor of society. It give's us source of morality,Designity,spiritual phenominon and mental bondation of jurispudence. Behind the development or fondation of relation only social,spritual and genetic substance is base. But in the materlistic age behind this only money is controling and flotring the meaning of relation.
In markandey puran speak"kuputro jaye to kachidapi ku mata na bhabati" totaly derooted in the materlistic age. If you have money,you earn money {through any process} you recognised by family and society.

nest after

Saturday, December 19, 2015

महामृत्युंजय शिव मंत्र ही सभी कष्टों से मुक्ति के उपाय

एको देवो महेश्‍वर। अर्थात भगवान भोलेनाथ ही सभी भूतों के प्रमुख पूजनीय व आराध्‍य देव हैं जिनकी कृपा से हर योनी का जीव अपनी कामना सिद़ध कर सकता है। सनातन धर्म की मान्यताओं में संसार पंचभूतों यानी पृथ्वी, जल, आकाश, वायु और अग्रि से बना है। ये पंच तत्व भी कहलाते हैं। हर तत्व का एक देवता है जो पंच देवों के रूप में पूजनीय हैं। भगवान शिव इन पांच तत्वों में से पृथ्वी तत्व के देवता माने जाते हैं। यही कारण है कि भैतिकवादी संसार में सुखों और कामनाओं की पूर्ति के लिए भगवान शिव की उपासना का महत्व है। लिंग पुराण के अनुसार शिव ज्योर्तिलिंग अर्द्धरात्रि के समय प्रकट हुआ था। इसलिए रात के समय शिव साधना बहुत ही असरदार मानी जाती है।
शिव पुराण के अनुसार महामृत्युंजय मन्त्र से कल्याणकारी शिव प्रसन्न होते हैं और धन ,सम्मान एवं ख्याति का विस्तार होता है। मृत्युतुल्य कष्ट, लंबी बीमारी एवं घरेलू समस्या से ग्रस्त होने पर महामृत्युंजय मन्त्र रामबाण सिद्ध होता है। जन्म कुंडली मे अगर मारकेश ग्रह बैठा हो या हाथ की आयु रेखा जगह जगह से कट रही हो या मिटी हुई हो तो यह जप अवश्य करें। जप की मात्रा सवा लाख होनी चाहिए।

मारकेश ग्रह के लक्षण: कुंडली मे मारकेश ग्रह बैठा होने का मुख्य पहचान है आपके मन मे बैचनी का अनुभव होना। किसी कार्य मे मन नहीं लगाना ,दुर्घटना होते रहना, बीमारी से त्रस्त रहना, अपनों से मनमुटाव होना, शत्रुओं की संख्या मे निरंतर वृद्धि होना एवं कार्य पूरा होते होते रह जाना, समाज मे मान और सम्मान की कमी होना। जब मारकेश ग्रह की महादशा व्यतीत होने लगती है तो यह मृत्यु का कारण बन जाता है। जप शुरू करने से पूर्व अगर रुद्राभिषेक कर लिया जाए तो मन्त्र विशेष फलदायी हो जाता है।

जप नियम: जप निर्धारित मात्रा मे तथा निर्धारित समय पर प्रतिदिन के हिसाब से होना चाहिए। जप के दौरान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन, सात्विक भोजन, सत्य बचन, अहिंसा का पालन व वाणी पर नियंत्रण होना जरूरी है। अन्यथा यह जप पूर्ण फलदायी नहीं होता है। जप मे नियमबद्धता का होना ज्यादा जरूरी है। जप अपने घर या शिवालय में करें। अगर शिवालय किसी नदी के किनारे हो तो यह जप विशेष फलदायी होता है।

जप के समय ध्यान मे रखने वाली बातें :जप उसी समय प्रारम्भ करना चाहिए जब शिव का निवास कैलाश पर्वत पर, गौरी के सान्निध्य हों या शिव बसहा पर आरूढ़ हों। शिव का वास जब शमशान में हो तो जप की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। जप करते समय मुंह से आवाज नहीं निकालना चाहिए । जप के दौरान जम्हाई आने से वायें हाथ की उंगली से चुटकी बजाना चाहिए। जप के समय शिव का स्मरण सदैव करते रहना चाहिए। जप के पूर्ण होने पर हवन करना चाहिए और हवण के अंत में जप की कुल संख्या का दशांश तर्पण और उसका दशांश मार्जन करना चाहिए।  तदुपरांत दान एवं ब्राह्मण भोजन करवाना चाहिए।
कहा गया है दुख मे सुमिरन सब करे दुख मे करे न कोई, जो सुख मे सुमिरन करे दुख कहे को होय। इसलिये अगर आप कोई समस्या से ग्रस्त नहीं हैं आप साधारण तौर से अपनी जि़ंदगी व्यतीत कर रहे हैं तब भी आप शिव के इस चमत्कारी मन्त्र का जप अवश्य करें। जिंदगी रूपी नदी सुख और दुख रूपी दो किनारों के बीच प्रवाहित होती है, अगर आप समय रहते शिव मन्त्र का जप करते रहेंगे तो आप सदैव प्रसन्न रहेंगे।

शिव की प्रसन्नता प्राप्ति हेतु कुछ अन्य सुगम मन्त्र:
1.ह्रों जूं स:। इस शिव मन्त्र के नियमित 108 बार जप करने से शिव की कृपा वर्षा निरंतर होते रहती है।
2.नम: शिवाय। इस शिव मन्त्र का 108 बार प्रतिदिन जप आपको निरंतर प्रगति की ओर ले जाएगा। 

Monday, December 7, 2015

शिव तांडव स्तोत्रं

 शिवतांडव स्तोत्र का पाठ कर मनुष्‍य न केवल धन-संपत्ति प्राप्‍त कर सकता है अपितु उससे व्यक्तित्व भी निखरता है। यह स्तोत्र रावण द्वारा रचित है। जीवन में किसी भी सिद्धि की महत्वाकांक्षा हो तो इस स्तोत्र के जाप से आपको वह आसानी से प्राप्त हो जाएगी। सबसे ज्यादा फायदा आपकी वाक सिद्धि को होगा, अगर अभी तक आप दोस्तों में या किसी ग्रुप में बोलते हुए अटकते हैं तो यह समस्या इस स्तोत्र के पाठ से दूर हो जाएगी। इसकी शब्द रचना के कारण व्यक्ति का उच्चरण साफ हो जाता है। दूसरा इस मंत्र से नृत्य, चित्रकला, लेखन, युद्धकला, समाधि, ध्यान आदि कार्यो में भी सिद्धि मिलती है। इस स्तोत्र का जो भी नित्य पाठ करता है उसके लिए सारे राजसी वैभव और अक्षय लक्ष्मी भी सुलभ होती है।


जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥

धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥

जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥

सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥

ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥

कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥

नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥

प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥

अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥

कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌ ।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌ ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥

॥ इति शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥
शिव तांडव स्तोत्र


Wednesday, December 2, 2015

मां बगलामुखी की साधना और उपाय

कोई भी साधना तब तक सफल नहीं होती जब तक देवी की कृपा न हो। इसके लिए निर्विकार भाव और अंतरिक तथा वाह्य शुद्धिकरण के पश्चात कुशल गुरु के मार्ग निर्देशन के बाद ही शुरु करनी चाहिए। ं
भगवती बगला सुधा-समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय  मण्डप में रत्नवेदी पर रत्नमय सिंहासन पर विराजती हैं।  पीतवर्णा होने के कारण ये पीत रंग के ही वस्त्र, आभूषण व माला धारण किये हुए हैं। इनके एक हाथ में शत्रु की  जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्गर  है। व्यष्टि रूप में शत्रुओं का नाश करने वाली और समष्टि रूप में परम ईश्वर की सहांर-इच्छा की अधिस्ठात्री शक्ति बगला है।
श्री प्रजापति ने बगला उपासना वैदिक रीति से की और वे सृस्टि की संरचना करने में सफल हुए। उन्होंने इस विद्या का उपदेश सनकादिक मुनियों को दिया।  सनतकुमार ने इसका उपदेश श्री नारद को और श्री नारद ने सांख्यायन परमहंस को दिया। जिन्होंने छत्तीस पटलों में बगला तंत्र ग्रन्थ की रचना की। स्वतंत्र तंत्र के अनुसार भगवान् विष्णु इस विद्या के उपासक हुए। फिर श्री परशुराम जी और आचार्य द्रोण इस विद्या के उपासक हुए। आचार्य द्रोण ने यह विद्या परशुराम जी से ग्रहण की।

श्री बगला महाविद्या ऊर्ध्वाम्नाय के अनुसार ही उपास्य हैं जिसमें स्त्री (शक्ति) भोग्या नहीं बल्कि पूज्या है। बगला महाविद्या श्री कुल से सम्बंधित हैं। श्रीकुल की सभी महाविद्याओं की उपासना अत्यंत सावधानी पूर्वक गुरु के मार्गदर्शन में करनी चाहिए।  श्री बगलामुखी को ब्रह्मास्त्र विद्या के नाम से भी जाना जाता है।  शत्रुओं का दमन और विघ्नों का शमन करने में विश्व में इनके समकक्ष कोई अन्य देवता नहीं है।
भगवती बगलामुखी को स्तम्भन की देवी कहा गया है।  स्तम्भनकारिणी शक्ति नाम रूप से व्यक्त एवं अव्यक्त सभी पदार्थो की स्थिति का आधार पृथ्वी के रूप में शक्ति ही है और बगलामुखी उसी स्तम्भन शक्ति की अधिस्ठात्री देवी हैं।  इसी स्तम्भन शक्ति से ही सूर्यमण्डल स्थित है। सभी लोक इसी शक्ति के प्रभाव से ही स्तंभित है।
 जो साधक इस साधना को पूर्ण कर, सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें इन तथ्यो की जानकारी होना अति आवश्यक है।

1 ) कुल -महाविद्या बगलामुखी श्री कुल से सम्बंधित है।

2 ) नाम -बगलामुखी, पीताम्बरा , बगला , ब्रह्मास्त्र विद्या।

3 ) कुल्लुकामंत्र -जाप से पूर्व उस मंत्र कि कुल्लुका का न्यास सिर में किया जाता है। इस विद्या की कुल्लुका हूं छ्रौ है।

4)  महासेतु - साधन काल में जप से पूर्व 'महासेतुÓ का जप किया जाता है।  ऐसा करने से लाभ यह होता है कि साधक प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थिति में जप कर सकता है।  इस महाविद्या का महासेतु स्त्रीं है।  इसका जाप दस बार किया जाता है।

5)  कवचसेतु - इसे मंत्रसेतु भी कहा जाता है।  जप प्रारम्भ करने से पूर्व इसका जप एक हजार बार किया जाता है।  ब्राह्मण व छत्रियों के लिए प्रणव , वैश्यों  के लिए फट तथा शूद्रों के लिए ह्रीं कवचसेतु  है।

6 ) निर्वाण-ह्रूं ह्रीं श्रीं  से सम्पुटित मूल मंत्र का जाप ही इसकी निर्वाण विद्या है। इसकी दूसरी विधि यह है कि पहले प्रणव कर, अ , आ , आदि स्वर तथा क, ख , आदि व्यंजन पढ़कर मूल मंत्र पढ़ें और अंत में ऐं लगाएं और फिर विलोम गति से पुनरावृत्ति करें।

7 ) बंधन -किसी विपरीत या आसुरी बाधा को रोकने के लिए इस मंत्र का एक हजार बार जाप किया जाता है। मंत्र इस प्रकार है -ऐं ह्रीं ह्रीं ऐं

8) मुद्रा-इस विद्या में योनि मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।

9) प्राणायाम-साधना से पूर्व दो मूल मंत्रो से रेचक, चार मूल मंत्रो से पूरक तथा दो मूल मंत्रो से कुम्भक करना चाहिए। दो मूल मंत्रो से रेचक, आठ मूल मंत्रो से पूरक तथा चार मूल मंत्रो से कुम्भक करना और भी अधिक लाभ कारी है।

10 ) दीपन-दीपक जलने से जैसे रोशनी हो जाती है, उसी प्रकार दीपन से मंत्र प्रकाशवान हो जाता है। दीपन करने हेतु मूल मंत्र को योनि बीज ईं  से संपुटित कर सात बार जप करें।

11) प्राण योग-बिना प्राण अथवा जीवन के मन्त्र निष्क्रिय होता है। अत: मूल मन्त्र के आदि और अन्त में माया बीज ह्रीं से संपुट लगाकर सात बार जप करें ।

12 ) मुख शोधन-हमारी जिह्वा अशुद्ध रहती है जिस कारण उससे जप करने पर लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। अत: ऐं ह्रीं  ऐं  मंत्र से दस बार जाप कर मुखशोधन करें।

13 ) मध्य दृस्टि -साधना के लिए मध्य दृस्टि आवश्यक है। अत: मूल मंत्र के प्रत्येक अक्षर के आगे पीछे यं बीज का अवगुण्ठन कर मूल मंत्र का पांच बार जप करना चाहिए।

14 ) शापोद्धार-मूल मंत्र के जपने से पूर्व दस बार इस मंत्र का जप करें हलीं बगले ! रूद्र शापं विमोचय विमोचय ? ह्लीं स्वाहा।

15 ) उत्कीलन-मूल मंत्र के आरम्भ में ह्रीं स्वाहा मंत्र का दस बार जप करें।

16 ) आचार- इस विद्या के दोनों आचार हैं, वाम भी और दक्षिण भी ।
 एक बार जो मां बगला का कृपापात्र बन जाता है वह चहुं ओर से संपन्‍न व सुरक्षित भी हो जाता है।  

Thursday, November 26, 2015

ध्‍यान और मुद्राओं की साधना के लिए पहले जरूरी है शरीर की शुद़धता

शरीर को शुदध करने और ततपश्‍चात ध्‍यान मार्ग की ओर अग्रसर होने पर ही व्‍यक्ति अभिष्‍ट की प्राप्ति कर सकता है। मुद्रा रहस्‍य के अनुसार जब तक  आपका शरीर स्वस्थ नहीं होगा तब तक आपका ध्‍यान किसी कार्य में एकाग्र नहीं होगा।
आदि शंकराचार्य ने सौन्दर्य लहरी नामक ग्रन्थ में मां त्रिपुरसुन्दरी के स्वरूप का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। वहीं हमारे ऋषियों ने मुद्राओ को मंत्र साधना के साथ इसलिए जोड़ दिया ताकि व्यक्ति भगवान के साथ- साथ एक अच्छा स्वस्थ शरीर भी प्राप्त कर सके ।
सम्पूर्ण शरीर में मुख्य रूप से प्राण वायु स्थित है। यहीं प्राण वायु शरीर के विभिन्न अवयवों एवं स्थानों पर भिन्न-भिन्न कार्य करती है। इस दृष्टि से उनका नाम पृथक-पृथक दिया गया है। जैसे- प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। यह वायु समुदाय पांच प्रमुख केन्द्रों में अलग-अलग कार्य करता है। प्राण स्थान मुख्य रूप से हृदय में आंनद केंद्र (अनाहत चक्र) में है। प्राण नाभि से लेकर कठं-पर्यन्त फैला हुआ है। प्राण का कार्य श्वास-प्रश्वास करना, खाया हुआ भोजन पकाना, भोजन के रस को अलग-अलग इकाइयों में विभक्त करना, भोजन से रस बनाना, रस से अन्य धातुओं का निर्माण करना है। अपान का स्थान स्वास्थय केन्द्र और शक्ति केन्द्र है, योग में जिन्हें स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधर चक्र कहा जाता है। अपान का कार्य मल, मूत्र, वीर्य, रज और गर्भ को बाहर निकालना है। सोना, बैठना, उठना, चलना आदि गतिमय स्थितियों में सहयोग करना है। जैसे अर्जन जीवन के लिए जरूरी है, वैसे ही विर्सजन भी जीवन के लिए अनिर्वाय है। शरीर में केवल अर्जन की ही प्रणाली हो, विर्सजन के लिए कोई अवकाश न हो तो व्यक्ति का एक दिन भी जिंदा रहना मुश्किल हो जाता है। विर्सजन के माध्यम से शरीर अपना शोधन करता है। शरीर विर्सजन की क्रिया यदि एक, दो या तीन दिन बन्द रखे तो पूरा शरीर मलागार हो जाए। ऐसी स्थिति में मनुष्य का स्वस्थ्य रहना मुश्किल हो जाता है। अपान मुद्रा अशुचि और गन्दगी का शोधन करती है।

विधि– मध्यमा और अनामिका दोनों अँगुलियों एवं अंगुठे के अग्रभाग को मिलाकर दबाएं। इस प्रकार अपान मुद्रा निर्मित होती है। तर्जनी (अंगुठे के पास वाली) और कनिष्ठा (सबसे छोटी अंगुली) सीधी रहेगी।
आसन– इसमें उत्कटांसन (उकड़ू बैठना) उपयोगी है। वैसे सुखासन आदि किसी ध्यान-आसन में भी इसे किया जा सकता है।
समय– इसे तीन बार में 16-16  मिनट करें।48 मिनट का अभ्यास परिर्वतन की अनुभूति के स्तर पर पहुँचाता है। प्राण और अपान दोनों का शरीर में महत्व है। प्राण और अपान दोनों को समान बनाना ही योग का लक्ष्य है। प्राण और अपान दोनों के मिलन से चित्त में स्थिरता और समाधि उत्पन्न होती है।
लाभ—
शरीर और नाड़ियों की शुद्धि होती है।
मल और दोष विसर्जित होते है तथा निर्मलता प्राप्त होती है।
कब्ज दूर होती है। यह बवासीर के लिए उपयोगी है। अनिद्रा रोग दूर होता है।
पेट के विभिन्न अवयवों की क्षमता विकसित होती है।
वायु विकार एवं मधुमेह का शमन होता है।
मूत्रावरोध एवं गुर्दों का दोष दूर होता है।
दाँतों के दोष एवं दर्द दूर होते है।
पसीना लाकर शरीर के ताप को दूर करती है।
हृदय शक्तिशाली बनता है।

मुद्राओं के अभ्यास से गंभीर से गंभीर रोग भी समाप्त हो सकता है। मुद्राओं से सभी तरह के रोग और शोक मिटकर जीवन में शांति मिलती है।

मुख्‍यत:  पांच बंध  हैं-- .मूल बंध, उड्डीयान बंध, जालंधर बंध, बंधत्रय और महा बंध।

छह आसन मुद्राएं -- व्रक्त मुद्रा, अश्विनी मुद्रा, महामुद्रा, योग मुद्रा, विपरीत करणी मुद्रा, शोभवनी मुद्रा।

दस हस्त मुद्राएं : ज्ञान मुद्रा, पृथ्‍वी मुद्रा, वरुण मुद्रा,वायु मुद्रा,शून्य मुद्रा,सूर्य मुद्रा, प्राण मुद्रा,लिंग मुद्रा, अपान मुद्रा, अपान वायु मुद्रा।

अन्य मुद्राएं : सुरभी मुद्रा, ब्रह्ममुद्रा,अभयमुद्रा,भूमि मुद्रा,भूमि स्पर्शमुद्रा,धर्मचक्रमुद्रा, वज्रमुद्रा,वितर्कमुद्रा,जनाना मुद्रा, कर्णमुद्रा, शरणागतमुद्रा,ध्यान मुद्रा,सूची मुद्रा,ओम मुद्रा,अंगुलियां मुद्रा, महात्रिक मुद्रा,कुबेर मुद्रा, चीन मुद्रा,वरद मुद्रा,मकर मुद्रा, शंख मुद्रा,रुद्र मुद्रा,पुष्पपूत मुद्रा,वज्र मुद्रा, हास्य बुद्धा मुद्रा, ज्ञान मुद्रा, गणेश मुद्रा,मातंगी मुद्रा,गरुड़ मुद्रा, कुंडलिनी मुद्रा,शिव लिंग मुद्रा,ब्रह्मा मुद्रा,मुकुल मुद्रा महर्षि मुद्रा,योनी मुद्रा,पुशन मुद्रा,कालेश्वर मुद्रा, गूढ़ मुद्रा,बतख मुद्रा,कमल मुद्रा, योग मुद्रा,विषहरण मुद्रा, आकाश मुद्रा,हृदय मुद्रा, जाल मुद्रा, पाचन मुद्रा, आदि।

मुद्राओं के लाभ : कुंडलिनी या ऊर्जा स्रोत को जाग्रत करने के लिए मुद्रओं का अभ्यास सहायक सिद्धि होता है। कुछ मुद्रओं के अभ्यास से आरोग्य और दीर्घायु प्राप्त ‍की जा सकती है। इससे योगानुसार अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों की प्राप्ति संभव है। यह संपूर्ण योग का सार स्वरूप है।


Thursday, November 19, 2015

अमोघ शक्ति का पूंज है गायञी मंञ

मुंडकोपनिषद् में गायत्री के वेदों की जननी कहा गया है। यही एक मात्र ऐसा मंत्र है जिसकी उपासना व आराधना से ब्रह्मांड के समस्त देवी-देवताओं का ध्यान हो जाता है। इन्हीें शक्तियों के कारण इसे अतिगोपनीय मंत्र माना गया है। यही कारण है कि उपनयन संस्कार के समय बटुकों को उनके आचार्य कान में पूरे शरीर को ढक कर मंत्र का उच्चारण करते हैं।
देवी पुराण में गायत्री मंत्र और उस मंत्र के अक्षरों की चैतन्य शक्तियों के बारे मे विस्तार से बताया गया है।
ऊॅ भूभुर्व: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो योन: प्रचोदयात्।
गायत्री के इन मन्त्रों में " ऊॅ भूभुर्व: स्व" को देवी का प्रणव माना जाता है। इसके बाद के शब्दों की कुल संख्या 24 है। इनकी अक्षरों की चैतन्य शक्तियां और इनके कार्य अलग- अलग हैं। यजुर्वेद के अनुसार इनका विभाजन ऐसे किया गया है...
गायत्री वर्ण देवता शक्ति / कार्य
तत् गणेश सफलता,विध्नहरण, बुद्धि, वृद्धि
नरसिंह     पराक्रम,पुरूषार्थ, शत्रुनाश
वि विष्णु  पालन,प्राणियों का पालन रक्षा
तु:         शिव निश्वलता,आत्मपरायण, मुक्तिदान, आत्मनिष्ठा
श्री कृष्ण योग, क्रियाशीलता, कर्मयाेग, सौन्दर्य
रे राधा प्रेम, द्वेष समाप्ति, प्रेम दृष्टि
णि लक्ष्मी धन, धन,पद,यश और योग्य पदार्थ की प्राप्ति
यं अग्नि तेज, उष्णता,प्रकाश, सामर्थ्‍यवृदिध, तेजस्विता
इन्द्र रक्षा,भूत-प्रेतादि से मुक्ति, शत्रु के अनिष्ट आक्रमण से रक्षा
र्गो सरस्वती बुद्धि, मेघावृद्धि, चातुर्य, दूरदर्शिता, विवेकशीलता
दे दुर्गा दमन,विध्न पर विजय, शत्रुसंहार
हनुमान निष्ठा,कर्तव्य परायणता, निर्भयता, ब्रह्मचर्य निष्ठा
स्य पृथ्वी गम्भीरता, क्षमाशीलता, भारवहनक्षमता, सहिष्‍णुता
घी सूर्य        प्राण, प्रकाश,आरोग्य वृद्धि
श्रीराम मर्यादा, मैत्री, अविचलता
हि सीता तप,  निर्विकारता, पवित्रता,शील
घि चन्द्र शांति,  क्षोभ,उद्धिग्धनता का शमन
यो यम काल,मृत्यु से निर्भयता, समय सदुपयोग जागरूकता
यो ब्रह्म उत्पादन वृद्धि ,संतान वृद्धि
न: वरुण ईश, भावुकता, आर्द्रता, माधुर्य
प्र नारायण आदर्श, महत्वाकांक्षावृद्धि, उज्जवल चरित्र
चो हयग्रीव साहस,उत्साह, वीरता,निर्भयता,जूझने की शक्ति
हंस विवेक,उज्जवल कृति,सत्संगति, आत्मतुष्टि
यात् तुलसी सेवा, सत्यनिष्ठा,पतिव्रत्यनिष्ठा,आत्मशक्ति,परकष्ट निवारण
 सचमुच अगर साधक एकमात्र इसी मंत्र की साधना करे तो वह सभी देवी-देवताओं का कृपापात्र बन सकता है।

 

Friday, November 13, 2015

क्यों और कैसे करे सूर्य की आराधना

अथर्ववेद के अनुसार,भगवान सूर्य ग्रहों और नक्षत्रों के स्वामी हैं। ये अपने ताप और प्रकाश से तीनों लोकों में ऊर्जा का संचारण करते हैं। वे उत्तरायण, दक्षिणायण और विषुवत क्रमश: मन्द, शीघ्र तथा समान गतियों से चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियों में ऊंचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन-रात को बड़ा-छोटा करते हैं। वहीं जब वृश्चिकादि पांच राशियों पर चलते हैं तब प्रति मास राशियों में एक-एक घड़ी कम हो जाती है और उसी गणित से दिन बढऩे लगता है। इस प्रकार दक्षिणायण आरंभ होने तक दिन चढ़ता है और उसका उत्तरायण होने पर रात्रि होती है। सूर्यदेव की सत्ता और महत्ता पर सम्पूर्ण ब्रह्मांड की संरचना टिकी है। भगवान सूर्य की उपासना के लिए चैत्र मास में भानू , वैशाख मास में इन्द्र, जेष्ठ मास में रवि, आषाढ़ मास में गर्भस्ति, श्रावण मास में यम, भाद्र मास में वरुण, आश्विन मास में सुवर्णरेखा, कार्तिक में दिवाकर, अग्रहण मास में मित्र, पौष में सनातन,माघ मेंअरुण और मलमास में पुरुष तपते हैं।
सूर्योपासना से विभिन्न दिशाओं की ओर क्रमश: मुख कर आराधना करने से बहुतेरे मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। यथा-भगवान सूर्य की पूरब दिशा की ओर मुख कर आराधना करने से उन्नति, पश्चिम मुख होकर आराधना करने से दुर्भाग्य का अंत, उत्तर मुख साधना करने से धन की प्राप्ति तथा दक्षिण मुख साधना करने से रोग शोक क्षय तथा शत्रु का नाश होता है।
 प्रत्येक वर्ष के कार्तिक एवं चैत्र मास के शुक्ल पक्ष पष्ठी को तथा सप्तमी की उपासना करने पर सर्वांगीण मनोकामना की सिद्धि प्राप्त होती है। प्रत्येक रविवार को सूर्योपासना करने से चतुर्दिक सुख की प्राप्ति होती है। प्रत्येक मास के शुक्ल पष्ठी रविवार के दिन नमक- तेल व तामसी भोजन का त्याग करना चाहिये। इन तिथि या दिन में सूर्योंपासना करने से नेत्र रोग दूर हो जाते हंै।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की पष्ठी तिथि, रविवार के दिन तथा सप्तमी तिथि भगवान सूर्य को प्रिय है। क्योंकि सप्तमी तिथि को ही भगवान सूर्य का आविर्भाव हुआ था।  इस पर्व को छठ पर्व के रूप में मनाते हैं। चार दिवसीय यह पर्व सनातन धर्मावलंबियों के लिए नियम-निष्ठा और स्वच्छता का कठोर पर्व है। कार्तिक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को नहाय-खाय के साथ यह पर्व शुरू होता है। इस दिन व्रती समेत सभी लोग कद्दू और भात का प्रसाद ग्रहण करते हैं। उसके दूसरे दिन पंचमी को खरना होता है। व्रती किसी नदी या तालाब किनारे या फिर घर में नया चूल्हा पर गूड़ का रसिया बनाती है। इसी का भोग मां षष्ठी को लगता है और उन्हें अघ्र्य दिया जाता है। ततपश्चात सभी प्रसाद ग्रहण करते हैं।  षष्ठी तिथि एवं सप्तमी तिथि को नदी,तालाब,पोखर या फिर घर में बने गड्ढे में स्वच्छ जल भर कर व्रती उसमें खड़ी होकर सूर्यदेव का ध्यान करते हैं। षष्ठी तिथि के दिन शाम के समय डूबते सूर्य को और सप्तमी तिथि को उदयीमान सूर्य की पूजा होती है और  उन्हें फल एवं पकवानों के साथ दूध व जल से अघ्र्य दिया जाता है। दोनों तिथियों में छठ पूजा होने के बावजूद षष्ठी तिथि को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि इस दिन डूबते सूर्य की पूजा होती है।
धार्मिक ग्रंथों में संध्या कालीन छठ पूर्व को संभवत: इसलिए प्रमुखता दी गयी है ताकि संसार को यह ज्ञात हो सके कि जब तक हम डूबते सूर्य अर्थात बुजुर्गों को आदर सम्मान नहीं देंगे तब तक उगता सूर्य अर्थात नई पीढ़ी उन्नत और खुशहाल नहीं होगी। संस्कारों का बीज बुजुर्गों से ही प्राप्त होता है। बुजुर्ग जीवन के अनुभव रूपी ज्ञान के कारण वेद पुराणों के समान आदर के पात्र होते हैं। इनका निरादर करने की बजाय इनकी सेवा करें और उनसे जीवन का अनुभव रूपी ज्ञान प्राप्त करें। यही छठ पूजा के संध्या कालीन सूर्य पूजा का तात्पर्य है।

डा.राजीव रंजन ठाकुर

उगऽ-उगऽ हो सुरुज देव भे गेल अरघ के बेर

'षष्ठी तिथि महाराज सर्वदा सर्वकामप्रदा।
उपोष्ण तु प्रयत्नेन सर्वकाल जयर्थिना।।Ó भविष्य पुराण
छठ पर्व सूर्योपासना का अमोघ अनुष्ठान है। सनातन धर्म के पांच प्रमुख देवताओं में भगवान भास्कर का प्रमुख स्थान है। वाल्मीकि रामायण में आदित्य हृदय स्तोत्र के द्वारा सूर्यदेव का जो स्तवन किया गया है उससे उनके सर्वशक्तिमयस्वरूप का बोध होता है। चार दिवसीय इस पर्व के बारे में मान्यता है कि पारिवारिक सुख-समृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए लोग इसे मनाते हैं।
 रामायण के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया था और सूर्यदेव की आराधना की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।
वहीं महाभारत के अनुसार कुंती पांच पुत्रों की माता थी और छठी माता के रूप में उन्हें कलंकित होना पड़ा था। माता को कलंक से मुक्ति दिलाने के लिए कर्ण ने गंगा में सूर्य को अर्घ्?य देना शुरू किया। इसके बाद भगवान सूर्य कर्ण के पास आए और अंग की जनता के समक्ष उन्हें अपना पुत्र माना। इस प्रकार कुंती की पवित्रता कायम रही। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने ही सूर्यदेव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य का भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों पानी में खड़ा होकर सूर्य को अर्घ्?य देता था। वहीं जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा था। जिससे उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया।
देवी भागवत पुराण के अनुसार राजा स्वयंभू मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत नि:संतान थे। तब महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियव्रत की पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र तो हुआ लेकिन वह मृत पैदा हुआ। दु:खी होकर राजा शिशु के शव को लेकर शमशान पहुंचे और पुत्र को हृदय से लगाकर फूट-फूट कर रोने लगे। तभी वहां एक अति सौदर्यमयी देवी प्रकट हुई। उनकी दिव्य आभा से अभिभूत हो राजा ने पुत्र के शव को पृथ्वी पर रखकर देवी की पूजा- अर्चना की। प्रसन्न होकर देवी ने कहा राजन मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री देवसेना हूं। गौरी पुत्र कार्तिकेय से मेरा विवाह हुआ है। मैं सभी मातृकओं में विख्यात स्कंद की पत्नी हूं। मूल प्रकृति के छठे वंश से मेरी उत्पत्ति हुई है। जिस कारण मैं षष्ठी कही जाती हूं। हे राजन मैं पुत्रहीन को पुत्र, पत्नीहीन को पत्नी, धनहीन को धन तथा कर्मवीरों को उनके श्रेष्ठ कर्मों के अनुरुप फल देती हूं। मैं तुम्हारे इस पुत्र को जीवित करती हूं। यह गुणी ज्ञानी और कमलकांति से युक्त होगा। यह भगवान नारायण की कला से उत्पन्न है इस कारण यह सुब्रत नाम से विख्यात होगा। इस तरह अपना परिचय देकर तथा शिशु को राजा को सौंपकर देवी अंतर्धान हो गयी। यह घटना कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को घटी थी। अत: इस तिथि को षष्ठी देवी की पूजा-अर्चना होने लगी और तभी से यह छठी मइया की पूजा के नाम से प्रचलित है।
वहीं लोक परंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। षोडस मातृकाओं में एक षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। जबकि मिथिला और अंग क्षेत्र में धारणा है कि छठ के दौरान पानी में खड़े होने मात्र से ही किसी भी प्रकार के चर्म रोग से छुटकारा मिल जाता है।

डा.राजीव रंजन ठाकुर

Tuesday, November 10, 2015

मां काली की आराधना किस मंञ से करें

'घंटा शूल हलानि शंखममुसलें। चक्रम धनु: सायकं हस्त्राव्जैर्दधति घनान्त विलसच्छीतांशू तुल्य प्रभाम्।
गौरी देह समुदभ्वां त्रिजगतां आधार भूतामहां पूर्वामत्र सरस्वतीमनु भजे शुम्भादि दैत्यार्दिनीम।
प्राणियों का दु:ख दूर करने के लिए देवी भगवती अलग-अलग रूप में  अवतार लेती हैं। सत्व, रज और तम-इन तीनों गुणों का संकलन और समायोजन की शक्ति भी मां भगवती के पास ही है। मां अपनी इन्हीं शक्तियों के माध्यम से संपूर्ण विश्व का सृजन, पालन और संहार करती हैं। काल पर भी शासन करने के कारण महाशक्ति काली कहलाती हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार शुम्भ-निशुम्भ नामक दो दैत्य थे। उनके उपद्रव से पीडित होकर देवताओं ने महाशक्ति का आह्वान किया। तब पार्वती के शरीर से कौशिकी प्रकट हुई। देवी से अलग होते ही देवी का स्वरूप काला हो गया। इसलिए शिवप्रिया पार्वती काली नाम से विख्यात हुई।
तंत्रशास्त्रमें कहा गया है- कलौ काली कलौकाली नान्यदेव कलौयुगे।
कलियुग में एकमात्र काली की आराधना ही पर्याप्त है। साथ ही यह भी कहा गया है-कालिका मोक्षदादेवि कलौशीघ्र फलप्रदा। मोक्षदायिनीकाली की उपासना कलियुग में शीघ्र फल प्रदान करती है।
काली माता का ध्यान करने से उनके मन में सुरक्षा का भाव आता है। उनकी अर्चना और स्मरण से बडे से बडा संकट भी टल जाता है। माता काली के स्वरूप और शक्तियां सभी देवताओं से अधिक हैं। माता काली के शीघ्र्र फलदायक और प्रबल शक्तिशाली मन्त्रों तथा अनेक विभित्र रूपों के भी मन्त्रों का संकलन सभी मन्त्रों में, 'क्रीं, हूं, हीं और स्वाहा शब्दों का प्रयोग होता है।
इनमें क्रीं का अत्यंत विशिष्ट महत्व है। इसमें अक्षर 'क जलस्वरूप और मोक्ष प्रदायक माना जाता है। 'क्र में लगा आधा र अग्रि का प्रतीक तथा सभी प्रकार के तेजों का प्रदायक है। ई की मात्रा मातेश्वरी के तीन कार्यों यथा- सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व संहार का प्रतीक है जबकि  मात्रा के साथ लगा हुआ बिंदू उनके ब्रह्मस्वरूप का द्योतक है। इस प्रकार केवल क्रीं शब्द ही एक पूर्ण मन्त्र का रूप ले लेता है। हूं का प्रयोग अधिकांश मन्त्रों में बीजाक्षर के रूप में होता है। इसे ज्ञान प्रदायक माना जाता है।
हीं शब्द ई की मात्रा के समान आद्याशक्ति के सृष्टि के रचयिता, धारणकर्ता और संहारकर्ता के रूपों का प्रतीक तथा ज्ञान का प्रदायक है। जहाँ तक मन्त्रों के अंत में लगने वाले स्वाहा शब्द का प्रश्‍न है, यह सभी मन्त्रों का मातृस्वरूप है तथा सभी पापों का नाशक माना जाता है।

एकाक्षर मन्त्र-क्रीं
यह काली का एकाक्षर मन्त्र है। यह इतना शक्तिशाली है कि शास्त्रों में इसे महामंत्र की संज्ञा दी गई है। इसे मातेश्वरी काली का प्रणव कहा जाता है और इसका जप उनके सभी रूपों की आराधना, उपासना और साधना में किया जा सकता है।

द्विअक्षर मन्त्र-क्रीं क्रीं
इस मन्त्र का भी स्वतन्त्र रूप से जप किया जाता है। लेकिन तांत्रिक साधनाएं और मन्त्र सिद्धि हेतु बड़ी संख्या में किसी भी मन्त्र का जप करने के पहले और बाद में सात -सात बार इन दोनों बीजाक्षरों के जप का विशिष्ट विधान है।

त्रिअक्षरी मन्त्र-क्रीं क्रीं क्रीं
यह काली की तांत्रिक साधनाओं और उनके प्रचंड रूपों की आराधनाओं का विशिष्ट मन्त्र है।

मां की आराधना का सर्वश्रेष्ठ मन्त्र-क्रीं स्वाहा
महामंत्र 'क्रीं में स्वाहा से संयुक्त यह मन्त्र उपासना अथवा आराधना के अंत में जपने के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

ज्ञान प्रदाता मन्त्र-ह्रीं
यह भी एकाक्षर मन्त्र है। माँ काली की आराधना अथवा उपासना करने के पश्चात इस मन्त्र के नियमित जप से साधक को सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इसे विशेष रूप से दक्षिण काली का मन्त्र कहा जाता है।

क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं स्वाहा-
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन के चारों ध्येयों की आपूर्ति करने में समर्थ है। आठ अक्षरों का यह मन्त्र। उपासना के अंत में इस मन्त्र का जप करने पर सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

ऐं नम: क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा-
ग्यारह अक्षरों का यह मन्त्र अत्यंत दुर्लभ और सर्व सिंद्धियों को प्रदान करने वाला है। उपरोक्त पांच, छह, आठ और ग्यारह अक्षरों के इन मन्त्रों को दो लाख की संख्या में जपने का विधान है। तभी यह मन्त्र सिद्ध होता है।

डॉ राजीव रंजन ठाकुर

Sunday, November 8, 2015

आधी आबादी सब पर भारी

बिहार में विधानसभा के चुनाव का परिणाम आ चुका है। चुनाव के परिणाम ने एक बार फिर इतिहास के अनेकों उदाहरण को सही साबित कर दिया कि अगर रमणियां चेहरे से नकाब उतारकर रणक्षेत्र में उतरती हैं तो उसका परिणाम अप्रत्यशित होता है।
चुनाव के पूर्व सपनों के सौदागर ने सपने बेचने की जबरदस्त कोशिश की। वह यह भूल गए कि बिहार की भूमि पर जौहरियों की कमी नहीं है। यहां सपनों को भी परखा जाता है। चुनाव में मतदाताओं ने यह प्रमाणित कर दिया कि लोकतंत्र के भीड़तंत्र कहीं और मायने रखता हो लेकिन बिहार की जनता लोकतंत्र का मतलब अच्छी तरह समझती है। और यह हो भी क्यों नहीं क्योंकि उत्तर वैदिक काल के सोलह महाजनपदों में से एक लिच्छवी गणराज्य ही विश्व का पहला लोकतांत्रिक प्रदेश था।
चुनाव के प्रथम चरण से ही आधी आबादी ने जिस प्रकार अपनी आंतरिक शक्ति को संजो कर मौन रूप में उसका प्रयोग किया इससे तो लग ही रहा था कि परिणाम कुछ अप्रत्याशित ही होंगे। लेकिन स्वाभिमान और अहं वश बड़े-बड़े महारथी जनता को सपनों के जाल में उलझानें की कोशिश करते रहे। आधी आबादी जहां झूठे सनपों से उब चुकी थी वहीं जंगलराज के खौफ से सिहर भी रही थी। लेकिन उन्होंने अपने मौन की धारा को सुशासन की तरफ मोडऩे के लिए घुंघट से निकलकर ईबीएम का बटन दबाया।
इस चुनावी परिणाम के परिप्रेक्ष्य पर अगर नजर डालें तो आईने की तरह साफ-साफ यह दिखता है कि सुशासन के दौरान मुनिया बिटिया के लिए साइकिल,मध्याह्न भोजन,कन्या विवाह योजना,पोशाक राशि योजना,युवाओं के लिए ऋण योजना,छात्रवृति योजना के साथ -साथ विकास और सुशासन का खुशनुमा चेहरा दिखाई पड़ा। सुशासन के सामाजिक प्रबंधन का भी नजारा सामने था। मतदान का परिणाम भी जात-पात से उठकर सामाजिक विकास के नाम पर मिले मत की ओर ध्यान इंगित कर रहा है। मतदान में पुरुषों के मुकाबले 6 फीसद अधिक मतदान करने वाली महिलाओं ने गजब का कारनामा कर दिखाया। सही मायने में सिक्स ने कर ही दिया फिक्स।
सचमुच आधी आबादी ने दिखा दिया कि वह जब अपनी मर्यादा को तोड़कर बाहर निकलती है तो सारी शक्तियां तहस-नहस हो जाती है।      

डा. राजीव रंजन ठाकुर

Saturday, November 7, 2015

उक्‍त पांच काम करने से रूठ जाती है लक्ष्‍मी

उक्‍त पांच काम करने से रूठ जाती हैं देवी लक्ष्मी

इस भैतिकवादी समय में हर कोई चाहता है कि देवी लक्ष्मी की कृपा उस पर बनी रहे क्योंकि जिस पर भी देवी लक्ष्मी की कृपा होती है उसके पास जीवन की हर सुख-सुविधाएं उपलब्ध रहती हैं। जीवन का हर सुख उसे प्राप्त होता है। यही कारण है कि लोग देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए नित नए उपाय करते हैं।


Garuda Purana- Don't do these five works, Goddess Lakshmi will angry
 गरुड़ पुराण के अनुसार उक्‍त्‍ पांच काम करने से देवी लक्ष्मी मनुष्य तो क्या स्वयं भगवान विष्णु का भी त्याग कर देती हैं। इसलिए इन 5 कामों से बचना चाहिए। ये काम इस प्रकार हैं-

श्लोक
कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं ब्रह्वाशिनं निष्ठुरवाक्यभाषिणम्।
सूर्योदये ह्यस्तमयेपि शायिनं विमुञ्चति श्रीरपि चक्रपाणिम्।।

अर्थात्- 1. मैले वस्त्र पहनने वाले, 2. दांत गंदे रखने वाले, 3. ज्यादा खाने वाले, 4. निष्ठुर (कठोर) बोलने वाले, 5. सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाले स्वयं विष्णु भगवान हों तो उन्हें भी देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।

1. मैले कपड़े पहनना
गरुड़ पुराण के अनुसार मैले वस्त्र यानी गंदे कपड़े पहनने वालों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं। यदि आप साफ-स्वच्छ रहेंगे तो लोग आपसे मिलने-जुलने में संकोच नहीं करेंगे। आपकी जान-पहचान बढ़ेगी। यदि आप कोई व्यापार करते हैं तो जान-पहचान बढ़ने से आपके व्यापार में भी इजाफा होगा। अगर आप नौकरी करते हैं कि आपकी स्वच्छता देखकर मालिक भी खुश रहेगा।
इसके विपरीत यदि आप गंदे कपड़े पहनेंगे तो लोग आपसे दूरी बनाए रखेंगे। कोई आपसे बात करना पसंद नहीं करेगा। ऐसी स्थिति में आपका व्यापार ठप्प हो सकता है और यदि आप नौकरी करते हैं तो मालिक आपको इस अवस्था में देखकर नौकरी से भी निकाल सकता है। अतः गंदे कपड़े नहीं पहनना चाहिए।

2. दांत गंदे रखने वाले
जिन लोगों के दांत गंदे रहते हैं, देवी लक्ष्मी उन्हें भी छोड़ देती हैं। यहां दांत गंदे रहने का सीधा अर्थ आपके स्वभाव व स्वास्थ्य से है। जो लोग अपने दांत ठीक से साफ नहीं करते, वे कोई भी काम पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी से नहीं कर पाते। इससे उनके आलसी स्वभाव के बारे में पता चलता है। अपने आलसी स्वभाव के कारण ऐसे लोग अपनी जिम्मेदारी भी ठीक से नहीं निभा पाते। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से यदि देखें तो जिसके दांत गंदे होते हैं, उसका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता क्योंकि गंदे दांतों के कारण उन्हें पेट से संबंधित अनेक रोग हो सकते हैं। अतः गंदे दांत होने से व्यक्ति के आलसी व रोगी होने की संभावना सबसे अधिक रहती है। इसलिए देवी लक्ष्मी गंदे दांत वाले लोगों का त्याग कर देती हैं।

3. ज्यादा खाने वाले
जो लोग अपनी जरूरत से अधिक भोजन करते हैं वो निश्चित तौर पर अधिक मोटे होते हैं। मोटा शरीर उन्हें परिश्रम करने से रोकता है, वहीं ऐसे शरीर के कारण उन्हें अनेक प्रकार की बीमारियां भी घेर लेती हैं। ऐसे लोग परिश्रम से अधिक भाग्य पर भरोसा करते हैं। जबकि देवी लक्ष्मी ऐसे लोगों के पास रहना पसंद करती हैं जो अपने परिश्रम के बल पर ही आगे बढ़ने की काबिलियत रखते हैं। मोटा शरीर लोगों को अधिक आलसी बना देता है। इसलिए ज्यादा खाने वाले लोगों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं। अतः जरूरत से अधिक नहीं खाना चाहिए।

4. निष्ठुर (कठोर) बोलने वाले
जो लोग बिना किसी बात या छोटी-छोटी बातों पर दूसरों पर चीखते-चिल्लाते हैं, उन्हें अपशब्द कहते हैं। ऐसे लोगों को भी देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं। जो लोग इस प्रकार का व्यवहार अपने जान-पहचान वाले, नौकर या अपने अधीन काम करने वालों के साथ करते हैं उनका स्वभाव बहुत ही क्रूर होता है। इनके मन में किसी के प्रति प्रेम या दया नहीं होती। जिन लोगों के मन में प्रेम या दया का भाव न हो वो कभी दूसरों की मदद नहीं करते और जो लोग दूसरों की मदद नहीं करते, देवी लक्ष्मी उन्हें पसंद नहीं करती। मन में प्रेम व दया हो तो ही भगवान का आशीर्वाद बना रहता है। इसलिए निष्ठुर यानी कठोर बोलने वालों लोगों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।

5. सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाले
सूर्योदय व सूर्यास्त का समय भगवान का स्मरण करने तथा शारीरिक व्यायाम के लिए निश्चित किया गया है। सूर्योदय के समय योग, प्राणायाम व अन्य कसरत करने से शरीर स्वस्थ रहता है। इस समय वातावरण में शुद्ध आक्सीजन रहती है, जो फेफड़ों को स्वस्थ रखती हैं। इसके अतिरिक्त सूर्योदय के समय मंत्र जाप कर भगवान का स्मरण करने से भी अनेक फायदे मिलते हैं। अतः सूर्योदय होने से पहले ही उठ जाना चाहिए।
सूर्यास्त के समय भी हल्का-फुल्का व्यायाम किया जा सकता है। ये समय भगवान के पूजन के लिए नियत हैं। जो लोग सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोते हैं, वे निश्चित तौर पर आलसी होते हैं। अपने आलसी स्वभाव के कारण ही ऐसे लोग जीवन में कोई सफलता अर्जित नहीं कर पाते। यही कारण है कि सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोने वाले लोगों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।

Friday, November 6, 2015

क्‍या होगा बिहार का चुनाव परिणाम

सिक्स करेगा फिक्स
घुंघट की आढ़ से दिलवर का दीदार करने वाली बिहार की आधी आबादी ने इस बार सारे मिथकों को तोड़ते हुए घुंघट को हटाकर लोकतंत्र रूपी दिलवर का दीदार किया और एक बार फिर मौन रहकर बड़े-बड़े महारथियों को चुनावी संग्राम का परिणाम जानने के लिए असमंजस के भंवर में फेक दिया।
हालांकि इस क्रम में उनकी जुबान महंगी रसोई, जंगलराज के दौरान का खौफनाक मंजर को कोसती नजर आयीं, वहीं सुशासन का सकुन भी उन्हें उद्वेलित करती रहीं। बावजूद उन्होंने अपनी आंतरिक शक्ति को जागृत कर लोकतंत्र के इस महापर्व में जमकर आहुति डाली। लेकिन पांचों चरण में हुए मतदान का चुनावी आंकड़ा बताता है कि उन्होंने आहुति किस देवता(पार्टी) के नाम से डाली यह किसी को पता नहीं।
आंकड़ों पर एक नजर--
                     पुरुष वोटर  महिला वोटर
प्रथम चरण       52.67       59.42
दूसरा चरण       55.28       55.65
तीसरा चरण     53.03        54.57
चौथा चरण       53.62       64.18
पांचवां चरण     56.05       59.48
इन चुनाव के मतों का प्रतिशत औसतन करीब 6 फीसद महिला मतदाताओं की मतदान में बढ़ी भागीदारी को बता रहा है। यह संख्या बड़े-बड़े दिग्गजों व राजनीतिक महापंडितों की गणना को गड़बड़ा रहा है। वे सौ फीसद यह बताने में अक्षम दिख रहे हैं कि ऊंट किस करवट बैठेगा। इतना ही नहीं, महिलाओं के वर्गीकरण के औसतों  का अनुपात यह संकेत भी दे रहा है कि चुनाव परिणाम में सुशासन के नुमाइंदों को घाटा नहीं होने जा रहा है।
यही वजह है कि सारे प्रत्याशी अपनों की बैठक में जीतते व गैरों की महिफल में हारते नजर आ रहे हैं। लेकिन मतदान बाद प्रत्याशियों की गतिविधि से साफ लगता है कि उम्मीदों की उत्तेजना उन्हें सोने नहीं दे रही है। आंखों से नींद जैसे गायब है। सबको अपने पक्ष में वोटरों के समर्थन की आस है।

डा. राजीव रंजन ठाकुर

Wednesday, November 4, 2015

कैसे करें मां लक्ष्‍मी की पूजा

लक्ष्‍मी रूपेण संस्थिता......
अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनु: कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च धर्म जलजं घंटां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दघतीं हस्तै: प्रसन्नाननां
सेवे सैभिमर्दिनीमिह महालक्ष्मी सरोजस्थिताम्।।
                                                  मार्कण्डेय पुराण
कितनी अद्भुत बात है कि मानव समस्त कामनाओं से अभिभूत हो मां लक्ष्मी की इस भाव से कि जिनके हाथ में अक्षमाला, परशु, गदा, वाण, वज्र, कमल, धनुष, कुण्डिका, शक्ति, खडग़, पर्म, शंख, घंटा, मधुपात्र, शूल, पाश और सुदर्शनचक्र धारण करने वाली कमलस्थित महिषासुरमर्दिनी महालक्ष्मी का ध्यान करता है। सचमुच शक्ति शब्द सुनते ही हमारे सामने एक स्त्री का स्वरूप ही उभरता है। उससे भी अद्भुत बात यह है कि उस स्त्री में हमें केवल और केवल मां का ही रूप दिखाई देता है। जब-जब पुरूष ने इस शक्तिरूपा को मां से इतर भोग्या के रूप में देखा है तब-तब उसका परिणाम विनाशकारी हुआ है। रावण महिषासुर, अंधकासुर, चंड-मुंड,शुंभ- निशुंभ, बाली से लेकर आज के युग तक इस जैसे आततायियों की एक लंबी फेहरिस्त है जिसका शक्ति ने संहार किया है। तमाम प्राकृतिक आपदाएं इस शक्ति के प्रकोप का जीता-जागता उदाहरण है।
माता लक्ष्मी की उपासना उनके तीन रूपों में किए जाने का विधान है।
1. श्री कनकधारा 2.श्री लक्ष्मी 3. श्री महालक्ष्मी
1. देवी कनकधारा की आराधना इस मंत्र से करनी चाहिए- अड़्गं हरे: पुलकभूषणमाश्रयन्ती, भृड़्गाड़्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।
अड़्गीकृताखिल विभूतिरपाड़्ग लीला, माड़्गल्यदास्तु मम मंगल देवताया।।
2. श्री लक्ष्मी की आराधना इस मंत्र से कारनी चाहिए- जय पद्मपलाशक्षि जय त्वं श्रीपतिप्रिये।
जय मातर्महालक्ष्मि संसारर्णवतारिणि।।
3. श्री महालक्ष्मी  की आराधना इस मंत्र से करनी चाहिए-सिंहासनगत: शक्र: सम्प्राप्य त्रिदिवं पुन:।
देवराज्ये स्थितो देवीं तुष्टावाब्जकरां तत:।।
इस स्त्रोतो मां लक्ष्मी का ध्यान व पूजा कर मनुष्य समस्त वैभवों और धान्य-धान्य से परिपूर्ण हो जाता है, ऐसा पुराणों में वर्णित है।
माता लक्ष्मी का वाहन उल्लू है जिसे रात में ही दिखाई देता है। वहीं जब माता गज की सवारी करती हंै तब वह समस्त ऐश्वर्य और वैभव प्रदान करने वाली वैभव स्वरूपा बन जाती है। इस लिए पुराणों में मां के तीन स्वरूप की पूजा अलग-अलग कामनाओं के लिए करने का विधान है। मां की पूजा स्थिर लग्न यानि जब लग्न में कुंभ, सिंह, वृष और वृश्चिक का प्रवेश होता है तब करनी चाहिए। क्योंकि इस काल में पूजा का प्रभाव सौ फीसद फलदायी माना गया है। मार्कण्डेय पुराण में जो तीन रात्रि यानि कालरात्रि, महारात्रि, महोरात्रि की जो चर्चा की गई है उसमें महोरात्रि वही रात्रि है जिसमें स्थिर लग्न के समय मां लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ है। उसी वक्त हम उस देवी की आराधना करते है। मां लक्ष्मी की पूजा में श्रीयंत्र का बहुत महत्व है। इस यंत्र की स्थापना करने या फिर इस महोरात्रि में उसकी पूजा-आराधना से समस्त कामनाओं की पूर्ति संभव है।
पूजन सामग्री-माता की पूजा के लिए लाल कमल पुष्प, स्फटिक की माला, कमलाक्ष, रोली, अक्षत, स्वर्णधातु, जल, धूप, केला,दीपक,लाल वस्त्र आदि की आवश्यकता होती है।
पूजा विधि-पूजन शुरू करने से पूर्व चौकी को धोकर उस पर रंगोली बनाएं। चौकी के चारों कोने पर चार दीपक जलाएं। जिस स्थान पर गणेश एवं लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित करनी हो वहां कुछ चावल रखें। इस स्थान पर गणेश और लक्ष्मी की मूर्ति को रखें। लक्ष्मी माता की पूर्ण प्रसन्नता हेतु भगवान विष्णु की मूर्ति लक्ष्मी माता के बायीं ओर रखकर पूजा करनी चाहिए।
इसके बाद आसन पर मूर्ति के सम्मुख बैठ जाएं। इसके बाद अपने गंगा जल से स्वयं,आसन,भूमि व समस्त सामग्री को इस मंत्र से शुद्धि करें- ऊं अपवित्र: पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। यास्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर शुचि। इसके बाद हाथ में जल लेकर ऊं केशवाय नम:,ऊं माधवाय नम: ,ऊं नारायणाय नम: नामक मंत्र से आचमन करें।
शुद्धि और आचमन के बाद चंदन लगाना चाहिए। अनामिका उंगली से श्रीखंड चंदन लगाते हुए इस मंत्र का उच्चरण करें-चन्दनस्य महत्पुण्यम् पवित्रं पापनाशनम, आपदां हरते नित्यम् लक्ष्मी तिष्ठतु सर्वदा।
इसके बाद घड़े या लोटे पर मोली बांधकर कलश के ऊपर आम का पल्लव रखें। कलश के अंदर सुपारी, दूर्वा, अक्षत, मुद्रा रखें। नारियल पर वस्त्र लपेट कर कलश पर रखें। हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरूण देवता का कलश में आह्वान करें। इसके बाद लक्ष्मी देवी की प्रतिष्ठा करें। हाथ में अक्षत लेकर बोलें -भूर्भुव: स्व: महालक्ष्मी, इहागच्छ इह तिष्ठ, एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम।
प्रतिष्ठा के बाद स्नान कराएं। रक्त चंदन लगाएं। अब लक्ष्मी देवी को इदं रक्त वस्त्र समर्पयामि कहकर लाल वस्त्र पहनाएं। फिर लक्ष्मी देवी की अंग पूजा करें। ततपश्चात देवी को इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि मंत्र से नैवैद्य अर्पित करें। फिर एक फूल लेकर लक्ष्मी देवी पर चढ़ाएं और बोले एष पुष्पान्जलि ऊं महालक्ष्मियै नम:।
लक्ष्मी देवी की पूजा के बाद भगवान विष्णु एवं शिव जी पूजा करनी चाहिए फिर गल्ले की पूजा करें। पूजन के पश्चात सपरिवार आरती और क्षमा प्रार्थना करें।

डॉ राजीव रंजन ठाकुर

Tuesday, October 27, 2015

'तंत्रÓ से तंत्र तक

तंत्र से तंत्र तक पहुंचने के लिए आज के नेता अपनी मर्यादा भूल चुके हैं। अब आप कहेंगे कि यह तंत्र है क्या। इस तंत्र के कई मायने हैं। इसमें लोकतंत्र को परिभाषित करने का सबसे बढ़ा पैमाना भीड़तंत्र है। इस चुनाव में देश की एक सबसे बड़ी पार्टी के नेता और उनके सिपाहसालार इसी तंत्र पर भरोसा कर रहे हैं। इसके लिए वकायदा पार्टी के शीर्ष अधिकारी द्वारा केंद्र स्तर से लेकर जमीनी स्तर के नेताओं को घुट्टी के साथ-साथ घुड़की भी दी जा रही है। पता नहीं यह भीड़तंत्र उनको उस तंत्र की प्राप्ति के लिए कितना मदद दे पायेगा यह तो समय ही बतायेगा। वहीं अगला तंत्र यानि तंत्र विद्या और तांत्रिकों की सलाह या उनके बताए रास्ते नेताओं को कहां तक उस तंत्र तक पहुंचाने में सफल हो पायेगा यह भी बताना कठिन है।
बिहार विधान सभा के लिए हो रहे इस चुनाव में हरेक नेताओं ने किसी न किसी तंत्र को अपना लिया है। उसी के सहारे वह चुनावी नैया पार करने की जुगत में हैं। लेकिन क्या इस तरह खुद की नैया पार करने की जुगत में लगे नेता आम जनता को उसकी समस्याओं से निजात दिला पायेंगे, यह काफी गंभीर विषय है। बिहार की जनता सही मायने में आज भी शोषित और शासित मानसिकता से उबर नहीं पाई है। यहीं कारण है कि आज भी हमारी मानसिक सहभागिता एक उच्च कोटि के याचक से उबर नहीं पाई है।
 बिहार के हरेक क्षेत्र की समस्या भी अलग-अलग है। कहीं बाढ़ तो कहीं सुखाड़, कहीं बेरोजगारी तो कहीं बेगारी....। यही कारण है कि सही प्लेटफार्म नहीं मिलने के कारण सबसे ज्यादा बौद्धिक व कामगार मजदूरों का पलायन यहीं से होता है। चुनाव आते ही राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय नेता तक जनता से यही वायदे करती है कि मुझे वोट दीजिए मैं आपको सारी सुविधाएं मुहैया कराउंगा। सचमुच वादा तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की करते हैं लेकिन कहावत यहां यही सही बनती है कि कहां वह सुभाष बोस तो कहां यह झंडू घोष।  
हालांकि चुनाव के दौरान इन तंत्रों का लंबे अरसे से राजनीतिज्ञों से चोली-दामन का साथ रहा है। लेकिन नाव की पतवार इतना सतही और मैली कभी भी नहीं दिखी थी जितना इस बार के चुनाव में देखने को मिल रहा है। इसको देखते हुए तो हम अतीत में सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि कहीं न कहीं हमारा पवित्र संविधान ही इसके लिए दोषी तो नहीं है। कारण लोकतंत्र की जननी ब्रिटेन में कोई लिखित संविधान नहीं है और सबसे सशक्त लोकतंत्र अमेरिका में संवैधानिक संशोधन का प्रावधान काफी कठिन है। वहां समाज का सबसे बौद्धिक ब्रेन राजनीति की ओर जाता है, वहीं हमारे देश का सबसे कुंठित व सतही ब्रेन राजनीति में जाता है।
भारत की इस तरह की राजनीतिक परिपाटी से ना तो कभी देश का कल्याण होगा और नाहि जनता का। हमलोग सदा किसी ना किसी से लुटते रहेंगे।

डॉ.राजीव रंजन ठाकुर

Friday, October 23, 2015

जन्म और मृत्यु दोनों को परिभाषित करता है शिवलिंग

लिंग पुराण में कहा गया है - 'लीलार्थ गमकं चिन्हं इति अभिधीयतेÓ। अर्थात जन्म व मृत्यु दोनों को एक साथ परिभाषित करने वाला लिंग शब्द परम कल्याणकारी शिव रूप है।
शिव चेतन ज्योति विन्दु हैं। इनका अपना कोई स्थूल या सूक्ष्म शरीर नहीं है। वह परमात्मा हैं। शिव स्वयं ज्ञान प्रकाश उत्पन्न करते हैं जो कुछ ही समय में सारे विश्व में फैल जाता है। इसके फैलते ही कलियुग और तमोगुण के स्थान पर संसार में सतयुग और सतोगुण की स्थापना हो जाती है। अज्ञान-अंधकार तथा विकारों का विनाश हो जाता है। वैदिक धर्म ग्रंथों में शिव को सभी विद्याओं का जनक माना गया है। वे तंत्र-मंत्र, योग से लेकर समाधि तक प्रत्येक क्षेत्र के आदि और अंत हैं। इतना ही नहीं वह संगीत के आदि सृजनकर्ता भी हैं और नटराज के रूप में कलाकारों के आराध्य भी हैं।
श्वेताश्वर उपनिषद् में कहा गया है कि-'एकोहि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थु:Ó। अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड में केवल एकमात्र रूद्र ही हैं दूसरा कोई नहीं। वहीं शिव पुराण के अनुसार पवन देव ने स्वयं कहा है कि सृष्टि की शुरूआत में केवल शिव ही मौजूद रहते हैं। वे ही अद्र्धनारीश्वर रूप में संसार की सृष्टि करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं और अंत में उसका संहार भी करते हैं। चारो वेदों और 18 पुराणों में भी समस्त देवताओं को भगवान रूद्र की पूजा-आराधना करते हुए प्रस्तुत किया गया है। रामचरित मानस में जहां तुलसीदास जी ने लिखा है-लिंग थापि विधिवत करि पूजा, शिव समान प्रिय मोहि न दूजा, वहीं श्रीमद् भागवत गीता में भी भगवान रूद्र की पूजा को श्रेष्ठ बताया गया है। स्कंद पुराण के अनुसार स्वयं भगवान विष्णु ने पत्नी लक्ष्मी सहित सर्वप्रथम भगवान सदाशिव की पूजा करके ही तेज प्राप्त किया था। वेद मंत्रों के अधिष्ठाता होने के कारण भोलेनाथ को अघोर और समस्त लोकों में व्याप्त रहने के कारण तत्पुरुष भी कहा गया है। तत्वज्ञानी व्यक्ति महेश्वर शिव को क्षर और अक्षर से परे मानते हैं। जिस कारण जीव समस्त प्राणी स्वरूप शिव का स्मरण करके इस पंचतत्व की काया से मुक्त हो जाता है। इसीलिए तो रूद्र संहिता में कहा गया है कि-'ऊं तत्पुरूषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्र प्रचोदयात्Ó।।

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डॉ. राजीव रंजन ठाकुर

Tuesday, October 20, 2015

प्रकृति की गुहार



प्रकृति की गुहार 

बार बार कह रही धरती माता
मेरी आबरू से ना खेलो
बार बार संकेत भी दे रही है प्रकृति
मेरा दोहन ना करो
बार बार प्रकृति के पंच तत्‍व कर रहा हमें आगाह
मुझे ना छेड़ो
कभी तूफान,सुनामी
तो कभी घनघोर बारिश
कभी भीषण जल त्रासदी
तो कभी बरसते आग के गोले
कभी धरती हिलती
तो कभी मेघ फटते
कभी लाखों को काल का ग्रास बनाती
तो कभी आर्थिक कमर तोड़ती
वह कह रही है संकेत समझो और संभलो
अपनी भौतिकता की चाह छोड़ो
क्‍योंकि प्रकृति और पुरूष के मिलने से ही
श्रृष्टि की प्रक्रिया है संभव
हे धरा के सपूतो जिस तरह अपनी स्‍त्री और धन की करते हो रक्षा
उसी तरह संसार की इस प्रकृति रूपी मां की न लो इज्‍जत
नहीं तो उसकी सहनशीलता और धैर्य टूटेगा तो
न रहेगी यह धरा और न रहोगे तुम
इसलिए्, अभी भी समय है
हम समझें ,संभलें बिना किसी अभिमान
ना करें प्रकृति का दोहन
उसे खिलनें दें
और उसके आगोश में जीयें जीवन।।
डा राजीव रंजन ठाकुर

Monday, October 19, 2015

महादेव का चिंतन ही ध्यान है

'ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतसंÓ-अर्थात चांदी के पर्वत समान जिनकी श्वेत कान्ति है,जो सुन्दर चंद्रमा को आभूषण रूप से धारण करते हैं, उन भूतभावन भगवान महेश्वर का प्राणी प्रतिदिन ध्यान करे। महेश्वर भोलेनाथ ध्येय हैं। उनका चिंतन ही ध्यान है। मोक्ष ही प्राणी मात्र के जीवन का प्रायोजन है। इन तथ्यों को जानने वाला आस्थावान ही शिवत्व को प्राप्त कर सकता है। भूतभावन जगत के परम कारक, विश्वात्मा तथा विश्वरूप कहे गए हैं। ब्रह्म अर्थात रूद्र का पर्याय आनंद है। इस संपूर्ण जगत को ब्रह्म व्याप्त समझकर उन्हीं का ध्यान तथा चिंतन करना चाहिए। भगवान भोलेनाथ और उनका कोई भी नाम समस्त संसार के मंगलों का मूल है। शिव, शंभू और शंकर उनके तीन मुख्य नाम हैं। इन तीनों का अर्थ है कल्याण की जन्मभूमि, संपूर्ण रूप से कल्याणमय और परम शांतिमय। इनके नाम लेने मात्र से ही सबका कल्याण हो जाता है।
भोलेनाथ को त्रिनेत्र भी कहा गया है। ये तीन नेत्र सूर्य, चंद्र एवं वहनी है। शिव केवल नाम ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल, परिवर्तन, परिवर्धन आदि में भोलेनाथ के सर्वव्यापी स्वरुप के ही दर्शन होते हैं। गंगाधर ने समस्त जगत के तापों को हरने के लिए ही अपनी जटा में गंगा को स्थान दिया है। वे समस्त जगत का भरण-पोषण के लिए ही माता अन्नपूर्णा से भिक्षा भी मांगते हैं।
 शास्त्रों के अनुसार जब भी हम विषम परिस्थितियों से घिर जाते हैं तब हमारा मन विचलित होकर वहां से निकलने के लिए उस रास्ते को ढूंढने की कोशिश करने लगता है जो सहज के साथ ही आसान भी हो। लेकिन ये रास्ते सदैव दलदल से भरे होते हैं।  उस पर चलते ही हम उसमें और फंसते चले जाते हैं। हम किसी चीज के पाने की इच्छा रखते हैं या करते हैं तो हमें अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति बनानी होगी और उसके लिए स्वयं साधक, साधन और साधना का सृजन करना होगा। ठीक इसी प्रकार प्राणी को शिव का वास्तविक रूप दर्शन के लिए प्रयत्न करना होगा। शिव का वास्तविक रूप परम ज्योति है। वह इन वाह्य चक्षुओं द्वारा देखा नहीं जा सकता, केवल अनुभव किया जा सकता है। दिव्य चक्षु जिसे शास्त्रों में आलौकिक नेत्र, ज्ञान चक्षु, त्रिनेत्र या शिव नेत्र कहा गया है, के द्वारा ही उनका दर्शन किया जा सकता है। शिव के वाह्य ज्योतिर्लिंगों की पूजा के बाद भी साधकों के लिए हृदस्थ परमब्रह्म की अनुभूति परम आवश्यक है जो साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है। आज भी शिव भक्त कठिन परिस्थितियों के बावजूद उन्हें ढूंढने कैलास तक पहुंच जाते हैं।
 बावजूद अल्प समयावधि में शिव की महत्ता को पूरे श्रावण मास तक चलने वाली गंगाधाम (सुल्तानगंज) से बाबाधाम (देवघर) की पैदल यात्रा के दौरान समझा और महसूस किया जा सकता है।
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डॉ. राजीव रंजन ठाकुर

उद्दात दाता हैं भोलेनाथ


भाव भक्ति द्वारा समस्त देवगणों से पूजित एवं सेवित, करोड़ो सूर्यों की प्रखर कांति से युक्त, अष्टदल कमल से वेष्टित सदाशिव का लिंग रूप विग्रह समस्त चराचर की उत्पत्ति का कारण और समस्त भूतों एवं अष्ट दरिद्रों का नाश करने वाला है। शिवलिंग ब्रह्मा, विष्णु द्वारा पूजित होने के कारण जन्मजन्य दु:ख का विनाशक है। सदा शिव का लिंड्ड रूप कुंकम, चंदन, भष्म आदि से लिम्पित होने के कारण जन्म-जन्म के पापों का नाश करने वाला है। शिव के समस्त रूप मानव को आठों प्रहर, हर दिशा, दशा, काल और परिवेश मे रक्षा प्रदान करने मे सक्षम है। शिवलिंग की पूजा को पुराणों में भी श्रेष्ठ माना गया है। इसकी पूजा से समस्त पापों, विपत्तियों, रोगों आदि से छुटकारा मिल जाता है। जरा सोचिए कि भोलेनाथ का चरित्र कितना उद्दात है। एक ओर तो हम उनकी स्तुति करते हुए कहते है- कर्पूर गौंर करुणावतारं अर्थात जो कर्पूर के समान गौर वर्ण के हैं और साक्षात करुणा के अवतार है। वही संसार को पाप रूपी विष के मुक्ति दिलाने के लिए जब समुद्र मंथन के उपरांत प्राप्त विष को गले में उतार लिया तो नील कंठ कहलाये। उसके बाद हम कहने लगे नीलांम्ब भुजस्य मल कोमलांगम् - अर्थात जो स्वयं लोगों को जीवन देने के लिए विष धारण कर कर्पुर वर्ण से नीलांम्बर हो गए। ऐसा किसी भी देव दानव या मानव से संभव है क्या? समस्त वैभव युक्त स्वर्ग का त्याग कर हिमखंड कैताश मे वास करना, शमशान मे निवास करना, बाघ का चर्म पहना, सर्पों की माला धारण करना, भांग, धतुर, कंद-मूल खाना, नंदी की सवारी करना आदि क्या कोई ऐसा त्याग कर सकता है क्या? बावजूद समस्त जगत में सबों के लिए सर्व सुलभ बाबा भोले नाथ जैसा
पथप्रदर्शक, गुरू, अध्येता, वैद्य, महाकाल, महामृत्युंजय, आशुतोष, नीलकंठ आदि कोई हो सकता है। कदापि नहीं। इसीलिए विप्र जन उनकी स्तुति करते हुए कहते है-ं बिमल विभूति बूढ़ बरद बहनमां से लम्बे-लम्बे लट लटाकवे बाबा बासुकि। परम आरत हूं मंै सुख शांति सब खोई, तेरे द्वारे भिक्षा मांगन आये बाब बासुकि। कहत सेवकगण दुहु कर जोरी बाबा दुखिया के दु:ख हरहुु बाबा बासुकि....। सचमुच समस्त जगत के उद्दात दाता हैं भोलनाथ।
डॉ राजीव रंजन ठाकुर

सोलह मातृकाएं

किसी भी प्रकार की मंगल कामना और कार्य के निर्विध्न संपादन व संचालन के लिए भगवान गजानन के साथ ही सोलह मातृकाओं का स्मरण और पूजन अवश्य करना चाहिए। अनुष्ठान में अग्निकोण की वेदिका या पाटे पर सोलह कोष्ठक के चक्र की रचना कर उत्तर मुख या पूर्व मुख के क्रम से सुपारी व अक्षत पर क्रमश: इन 16 मातृकाओं की पूजा का विधान है। इससे न केवल कार्य की सिद्धि होती है बल्कि उसका संपूर्ण फल भी प्राप्त होता है। ये 16 मातृकाएं निम्नलिखित है- गौरी, पद्या, शची, मेघा, सावित्री, विजय, जपा, पष्ठी, स्वधा, स्वाहा, माताएं, लोकमताएं, धृति, पुष्टि, तुष्टी तथा कुल देवता। 
1. गौरी-: यश, मंगल, सुख-सुविधा आदि व्यवहारिक पदार्थ तथा मोक्ष-प्रदान करना इनका स्वभाविक गुण है। गौरी शरणगतवत्सला एवं तेज की अधिष्ठात्री देवी है। सूर्य में जो तेज है वह माता गौरी की कृपा से ही है। भगवान शंकर को सदा शक्ति संपन्न बनाए रखने में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। माता गौरी दु:ख, शोक, भय, उद्वेग को सदा के लिए नष्ट कर देती है। इसलिए देवी भागवत में कहा गया है कि बिना गौरी-गणेश की पूजा के कोई कार्य सफल नहीं हो सकता। आराधना स्त्रोत:- हेमाद्रितनयां देवीं वरदां शंकरप्रियाम्। लम्बोदरस्य जननीं गौरीमावाहयम्यहम्।
  2. पद्मा-: पद्मा माता लक्ष्मी का ही रूप है। जब-जब भगवान कल्कि का अवतार ग्रहण करते हैं तब-तब माता लक्ष्मी का नाम पद्मा ही होता है। पद्मा का अविर्भाव समुद्र मंथन के पश्चात हुआ है। वह समस्त ऐश्वर्य, वैभव, धन-धान्य और समृद्धि को प्रदान करती हंै। इसलिए यह विष्णुप्रिया हमेशा कमल पर विराजमान रहती हंै। ्रआराधना स्त्रोत- पद्मापत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नम:। पद्मासनायै पदमिन्यै वैष्णव्यै च नमो नम:।।
  3. शची-: ऋग्वेद के अनुसार विश्व में जितनी भी सौभाग्यशाली नारियां हैं उनमें शची सबसे अधिक सौभ्याग्यशालिनी हैं। इनके रूप से सम्मोहित होकर ही देवराज इन्द्र ने इनका वरण किया। शची पवित्रता में श्रेष्ठ और स्त्री जाति के लिए आदर्श हैं। रूप, यौवन और कामुकता का अभय वरदान प्राप्ति के लिए शची की आराधना श्रेयकर माना जाता है। आराधना स्त्रोत- दिव्यरूपां विशालाक्षीं शुचिकुण्डलधारिणीम। रत्न मुक्ताद्यलडंकररां शचीमावाहयाम्यहम्।।
  4. मेधा: मत्स्य पुराण के अनुसार यह आदि शक्ति प्राणिमात्र में शक्ति रूप में विद्यमान है। हममें जो निर्णयत्मिका बुद्धि शक्ति है वह आदिशक्ति स्वरूप ही है। माता मेधा बुद्धि में स्वच्छता लाती है। इसलिए बुद्धि को प्रखर और तेजस्वी बनाने एवं उसकी प्राप्ति के लिए मेधा का आह्वाहन करना चाहिए। आराधना स्त्रोत- वैवस्तवतकृत फुल्लाब्जतुल्याभां पद्मवसिनीम्। बुद्धि प्रसादिनी सौम्यां मेधाभावाहयाम्यहम्।।
  5. सावित्री-: सविता सूर्य के अधिष्ठातृ देवता होने से ही इन्हें सावित्री कहा जाता है। इनका आविर्भाव भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से हुआ है। सावित्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी है। संपूर्ण वैदिक वांडम्य इन्हीं का स्वरूप है। ऋग्वेद में कहा गया है कि माता सावित्री के स्मरण मात्र से ही प्राणी के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उसमें अभूतपूर्व नई ऊर्जा के संचार होने लगता है। आराधना स्त्रोत- ऊॅ हृीं क्लीं श्री सावित्र्यै स्वाहा।
  6. विजया-: विजया, विष्णु, रूद्र और सूर्य के श्रीविग्रहों में हमेशा निवास करती है। इसलिए जो भी प्राणी माता विजया का निरंतर स्मरण व आराधना करता है वह सदा विजयी होता है। आराधना स्त्रोत- विष्णु रूद्रार्कदेवानां शरीरेष्पु व्यवस्थिताम्। त्रैलोक्यवासिनी देवी विजयाभावाहयाभ्यहम।
  7. जया-: प्राणी को चहुं ओर से रक्षा प्रदान करने वाली माता जया का प्रादुर्भाव आदि शक्ति के रूप में हुआ है। दुर्गा सप्तशती के कवच में आदि शक्ति से प्रार्थना की गई है कि-' जया में चाग्रत: पातु विजया पातु पृष्ठत:Ó। अर्थात हे मां आप जया के रूप में आगे से और विजया के रूप में पीछे से मेरी रक्षा करें। आवाहन स्त्रोत: सुरारिमथिनीं देवी देवानामभयप्रदाम्। त्रैलोक्यवदिन्तां देवी जयामावाहयाम्यहम्।।
  8. पष्ठी-: लोक कल्याण के लिये माता भगवती ने अपना आविर्भाव ब्रह्मा के मन से किया है। अत: ये ब्रह्मा की मानस कन्या कही जाती हंै। ये जगत पर शासन करती है। इनकी सेना के प्रधान सेनापति कुमार स्कन्द है। ब्रह्मा की आज्ञा से इनका विवाह कुमार स्कन्द से हुआ। माता पष्ठी जिसे देवसेना भी कहा जाता है मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट हुई है। इसलिए इनका नाम षष्ठी देवी है। माता पुत्रहीन को पुत्र, प्रियाहीन को प्रिया-पत्नी और निर्धन को धन प्रदान करती हैं। विश्व के तमाम शिशुओं पर इनकी कृपा बरसती है। प्रसव गृह में छठे दिन, 21वें दिन और अन्नप्राशन के अवसर पर षष्ठी देवी की पूजा की जाती है। आवाहन स्त्रोत : मयूरवाहनां देवी खड्गशक्तिधनुर्धराम्। आवाहये देवसेनां तारकासुरमर्दिनीम्।।
  9. स्वधा-: पुराणों के अनुसार जबतक माता स्वधा का आविर्भाव नहीं हुआ था तब तक पितरों को भूख और प्यास से पीडि़त रहना पड़ता था। ब्रह्मवैवत्र्त पुराण के अनुसार स्वधा देवी का नाम लेने मात्र से ही समस्त तीर्थ स्नान का फल प्राप्त हो जाता है, और संपूर्ण पापों से मुक्ति मिल जाती है। ब्राह्मण वायपेय यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है। यदि स्वधा, स्वधा, स्वधा, तीन बार उच्चारण किया जाए तो श्राद्ध, बलिवैश्वदेव और तर्पण का फल प्राप्त हो जाता है। माता याचक को मनोवंछित वर प्रदान करती है। आराधना स्त्रोत: ब्रह्मणो मानसी कन्यां शश्र्वत्सुस्थिरयौवनाम्। पूज्यां पितृणां देवानां श्राद्धानां फलदां भजे।।
  10. स्वाहा: मनुष्य द्वारा यज्ञ या हवण के दौरान जो आहुति दी जाती है उसे संबंधित देवता तक पहुंचाने में स्वाहा देवी ही मदद करती है। इन्हीं के माध्यम से देवताओं का अंश उनके पास पहुंचता है। इनका विवाह अग्नि से हुआ है। अर्थात मनुष्य और देवताओं को जोडऩे की कड़ी का काम माता अपने पति अग्नि देव के साथ मिलकर करती हैं। इनकी पूजा से मनुष्य की समस्त अभिलाषाएं पूर्ण होती है। आराधना स्त्रोत: स्वाहां मन्त्राड़्गयुक्तां च मन्त्रसिद्धिस्वरूपिणीम। सिद्धां च सिद्धिदां नृणां कर्मणां फलदां भजे।।
  11. मातर:(मातृगण:) शुम्भ- निशुम्भ के अत्याचारों से जब समस्त जगत त्राहिमाम कर रहा था तब देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर माता जगदंबा हिमालय पर प्रकट हुई। इनके रूप- लावन्य को देखकर राक्षसी सेना मोहित हो गई और एक-एक कर घूम्रलोचन, चंड-मुंड, रक्त-वीज समेत निशुम्भ और शुम्भ माता जगदंबा के विभिन्न रूपों का ग्रास बन गये और समस्त लोको में फिर दैवीय शक्ति की स्थापना हुई। अत: माता अपने अनुयायियों की रक्षा हेतु जब भी आवश्यकता होती है तब- तब प्रकट होकर तमाम राक्षसी प्रकृति से उनकी रक्षा करती हैं। आवाहन स्त्रोत: आवाहयाम्यहं मातृ: सकला लोकपूजिता:। सर्वकल्याणरूपिण्यो वरदा दिव्य भूषिता: ।।
  12. लोक माताएं-: राक्षसराज अंधकासुर के वध के उपरांत उसके रक्त से उन्पन्न होने वालेे अनगिनत अंधक का भक्षण करने करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने अंगों से बत्तीस मातृकाओं की उत्पति की। ये सभी महान भाग्यशालिनी बलवती तथा त्रैलोक्य के सर्जन और संहार में समर्थ हंै। समस्त लोगों में विष्णु और शिव भक्तों की ये लोकमाताएं रक्षा कर उसका मनोरथ पूर्ण करती हैं। आवाहन स्त्रोत: आवाहये लोकमातृर्जयन्तीप्रमुखा: शुभा:। नानाभीष्टप्रदा शान्ता: सर्वलोकहितावहा:।। आवाहये लोक मातृर्जगत्पालन संस्थिता:। शक्राद्यैरर्चिता देवी स्तोत्रैराराधनैरतथा।
  13. घृति-: माता सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के प्रजापति पद से पदच्युत होने के पश्चात् उनके हित के लिए साठ कन्याओं के रूप में खुद को प्रकट किया। जिसकी पूजा कर राजा दक्ष पुन: प्रजापति हो गए। मत्स्य पुराण के अनुसार पिण्डारक धाम में आज भी देवी घृति रूप में विराजमान हंै। माता घृति की कृपा से ही मनुष्य धैर्य को प्राप्त करता हुआ धर्म मार्ग में प्रवेश करता है।
  14. पुष्टि-: माता पुष्टि की कृपा से ही संसार के समस्त प्राणियों का पोषण होता है। इसके बिना सभी प्राणी क्षीण हो जाते हंै। आवाहन स्त्रोत : पोषयन्ती जगत्सर्व शिवां सर्वासाधिकाम । बहुपुष्टिकरीं देवी पुष्टिमावाहयाम्यहम।।
  15. तुष्टि-: माता तुष्टि के कारण ही प्राणियों में संतोष की भावना बनी रहती है। माता समस्त प्राणियों का प्रयोजन सद्धि करती रहती हैं। आवाहन स्त्रोत: आवाहयामि संतुष्टि सूक्ष्मवस्त्रान्वितां शुभाम्। संतोष भावयित्रीं च रक्षन्तीमध्वरंं शुभम्।
  16. कुलदेवता-: मातृकाओं के पूजन क्रम में प्रथम भगवान गणेश तथा अंत में कुलदेवता की पूजा करनी चाहिए। इससे वंश, कुल, कुलाचार तथा मर्यादा की रक्षा होती है। इससे वंश नष्ट नहीं होता है और सुख, शांति तथा ऐश्वर्य की प्रप्ति होती है। आवाहन स्त्रोत: चूंकि अलग-अलग कुल के अलग-अलग देवता व देवियां होते हंै। इसलिए सबका मंत्र अलग-अलग है।
 डा.राजीव रंजन ठाकुर