
भोलेनाथ को त्रिनेत्र भी कहा गया है। ये तीन नेत्र सूर्य, चंद्र एवं वहनी है। शिव केवल नाम ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल, परिवर्तन, परिवर्धन आदि में भोलेनाथ के सर्वव्यापी स्वरुप के ही दर्शन होते हैं। गंगाधर ने समस्त जगत के तापों को हरने के लिए ही अपनी जटा में गंगा को स्थान दिया है। वे समस्त जगत का भरण-पोषण के लिए ही माता अन्नपूर्णा से भिक्षा भी मांगते हैं।
शास्त्रों के अनुसार जब भी हम विषम परिस्थितियों से घिर जाते हैं तब हमारा मन विचलित होकर वहां से निकलने के लिए उस रास्ते को ढूंढने की कोशिश करने लगता है जो सहज के साथ ही आसान भी हो। लेकिन ये रास्ते सदैव दलदल से भरे होते हैं। उस पर चलते ही हम उसमें और फंसते चले जाते हैं। हम किसी चीज के पाने की इच्छा रखते हैं या करते हैं तो हमें अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति बनानी होगी और उसके लिए स्वयं साधक, साधन और साधना का सृजन करना होगा। ठीक इसी प्रकार प्राणी को शिव का वास्तविक रूप दर्शन के लिए प्रयत्न करना होगा। शिव का वास्तविक रूप परम ज्योति है। वह इन वाह्य चक्षुओं द्वारा देखा नहीं जा सकता, केवल अनुभव किया जा सकता है। दिव्य चक्षु जिसे शास्त्रों में आलौकिक नेत्र, ज्ञान चक्षु, त्रिनेत्र या शिव नेत्र कहा गया है, के द्वारा ही उनका दर्शन किया जा सकता है। शिव के वाह्य ज्योतिर्लिंगों की पूजा के बाद भी साधकों के लिए हृदस्थ परमब्रह्म की अनुभूति परम आवश्यक है जो साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है। आज भी शिव भक्त कठिन परिस्थितियों के बावजूद उन्हें ढूंढने कैलास तक पहुंच जाते हैं।
बावजूद अल्प समयावधि में शिव की महत्ता को पूरे श्रावण मास तक चलने वाली गंगाधाम (सुल्तानगंज) से बाबाधाम (देवघर) की पैदल यात्रा के दौरान समझा और महसूस किया जा सकता है।
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डॉ. राजीव रंजन ठाकुर
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