तंत्र से तंत्र तक पहुंचने के लिए आज के नेता अपनी मर्यादा भूल चुके हैं। अब आप कहेंगे कि यह तंत्र है क्या। इस तंत्र के कई मायने हैं। इसमें लोकतंत्र को परिभाषित करने का सबसे बढ़ा पैमाना भीड़तंत्र है। इस चुनाव में देश की एक सबसे बड़ी पार्टी के नेता और उनके सिपाहसालार इसी तंत्र पर भरोसा कर रहे हैं। इसके लिए वकायदा पार्टी के शीर्ष अधिकारी द्वारा केंद्र स्तर से लेकर जमीनी स्तर के नेताओं को घुट्टी के साथ-साथ घुड़की भी दी जा रही है। पता नहीं यह भीड़तंत्र उनको उस तंत्र की प्राप्ति के लिए कितना मदद दे पायेगा यह तो समय ही बतायेगा। वहीं अगला तंत्र यानि तंत्र विद्या और तांत्रिकों की सलाह या उनके बताए रास्ते नेताओं को कहां तक उस तंत्र तक पहुंचाने में सफल हो पायेगा यह भी बताना कठिन है।
बिहार विधान सभा के लिए हो रहे इस चुनाव में हरेक नेताओं ने किसी न किसी तंत्र को अपना लिया है। उसी के सहारे वह चुनावी नैया पार करने की जुगत में हैं। लेकिन क्या इस तरह खुद की नैया पार करने की जुगत में लगे नेता आम जनता को उसकी समस्याओं से निजात दिला पायेंगे, यह काफी गंभीर विषय है। बिहार की जनता सही मायने में आज भी शोषित और शासित मानसिकता से उबर नहीं पाई है। यहीं कारण है कि आज भी हमारी मानसिक सहभागिता एक उच्च कोटि के याचक से उबर नहीं पाई है।
बिहार के हरेक क्षेत्र की समस्या भी अलग-अलग है। कहीं बाढ़ तो कहीं सुखाड़, कहीं बेरोजगारी तो कहीं बेगारी....। यही कारण है कि सही प्लेटफार्म नहीं मिलने के कारण सबसे ज्यादा बौद्धिक व कामगार मजदूरों का पलायन यहीं से होता है। चुनाव आते ही राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय नेता तक जनता से यही वायदे करती है कि मुझे वोट दीजिए मैं आपको सारी सुविधाएं मुहैया कराउंगा। सचमुच वादा तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की करते हैं लेकिन कहावत यहां यही सही बनती है कि कहां वह सुभाष बोस तो कहां यह झंडू घोष।
हालांकि चुनाव के दौरान इन तंत्रों का लंबे अरसे से राजनीतिज्ञों से चोली-दामन का साथ रहा है। लेकिन नाव की पतवार इतना सतही और मैली कभी भी नहीं दिखी थी जितना इस बार के चुनाव में देखने को मिल रहा है। इसको देखते हुए तो हम अतीत में सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि कहीं न कहीं हमारा पवित्र संविधान ही इसके लिए दोषी तो नहीं है। कारण लोकतंत्र की जननी ब्रिटेन में कोई लिखित संविधान नहीं है और सबसे सशक्त लोकतंत्र अमेरिका में संवैधानिक संशोधन का प्रावधान काफी कठिन है। वहां समाज का सबसे बौद्धिक ब्रेन राजनीति की ओर जाता है, वहीं हमारे देश का सबसे कुंठित व सतही ब्रेन राजनीति में जाता है।
भारत की इस तरह की राजनीतिक परिपाटी से ना तो कभी देश का कल्याण होगा और नाहि जनता का। हमलोग सदा किसी ना किसी से लुटते रहेंगे।
डॉ.राजीव रंजन ठाकुर
बिहार विधान सभा के लिए हो रहे इस चुनाव में हरेक नेताओं ने किसी न किसी तंत्र को अपना लिया है। उसी के सहारे वह चुनावी नैया पार करने की जुगत में हैं। लेकिन क्या इस तरह खुद की नैया पार करने की जुगत में लगे नेता आम जनता को उसकी समस्याओं से निजात दिला पायेंगे, यह काफी गंभीर विषय है। बिहार की जनता सही मायने में आज भी शोषित और शासित मानसिकता से उबर नहीं पाई है। यहीं कारण है कि आज भी हमारी मानसिक सहभागिता एक उच्च कोटि के याचक से उबर नहीं पाई है।
बिहार के हरेक क्षेत्र की समस्या भी अलग-अलग है। कहीं बाढ़ तो कहीं सुखाड़, कहीं बेरोजगारी तो कहीं बेगारी....। यही कारण है कि सही प्लेटफार्म नहीं मिलने के कारण सबसे ज्यादा बौद्धिक व कामगार मजदूरों का पलायन यहीं से होता है। चुनाव आते ही राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय नेता तक जनता से यही वायदे करती है कि मुझे वोट दीजिए मैं आपको सारी सुविधाएं मुहैया कराउंगा। सचमुच वादा तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की करते हैं लेकिन कहावत यहां यही सही बनती है कि कहां वह सुभाष बोस तो कहां यह झंडू घोष।
हालांकि चुनाव के दौरान इन तंत्रों का लंबे अरसे से राजनीतिज्ञों से चोली-दामन का साथ रहा है। लेकिन नाव की पतवार इतना सतही और मैली कभी भी नहीं दिखी थी जितना इस बार के चुनाव में देखने को मिल रहा है। इसको देखते हुए तो हम अतीत में सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि कहीं न कहीं हमारा पवित्र संविधान ही इसके लिए दोषी तो नहीं है। कारण लोकतंत्र की जननी ब्रिटेन में कोई लिखित संविधान नहीं है और सबसे सशक्त लोकतंत्र अमेरिका में संवैधानिक संशोधन का प्रावधान काफी कठिन है। वहां समाज का सबसे बौद्धिक ब्रेन राजनीति की ओर जाता है, वहीं हमारे देश का सबसे कुंठित व सतही ब्रेन राजनीति में जाता है।
भारत की इस तरह की राजनीतिक परिपाटी से ना तो कभी देश का कल्याण होगा और नाहि जनता का। हमलोग सदा किसी ना किसी से लुटते रहेंगे।
डॉ.राजीव रंजन ठाकुर
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