Tuesday, October 27, 2015

'तंत्रÓ से तंत्र तक

तंत्र से तंत्र तक पहुंचने के लिए आज के नेता अपनी मर्यादा भूल चुके हैं। अब आप कहेंगे कि यह तंत्र है क्या। इस तंत्र के कई मायने हैं। इसमें लोकतंत्र को परिभाषित करने का सबसे बढ़ा पैमाना भीड़तंत्र है। इस चुनाव में देश की एक सबसे बड़ी पार्टी के नेता और उनके सिपाहसालार इसी तंत्र पर भरोसा कर रहे हैं। इसके लिए वकायदा पार्टी के शीर्ष अधिकारी द्वारा केंद्र स्तर से लेकर जमीनी स्तर के नेताओं को घुट्टी के साथ-साथ घुड़की भी दी जा रही है। पता नहीं यह भीड़तंत्र उनको उस तंत्र की प्राप्ति के लिए कितना मदद दे पायेगा यह तो समय ही बतायेगा। वहीं अगला तंत्र यानि तंत्र विद्या और तांत्रिकों की सलाह या उनके बताए रास्ते नेताओं को कहां तक उस तंत्र तक पहुंचाने में सफल हो पायेगा यह भी बताना कठिन है।
बिहार विधान सभा के लिए हो रहे इस चुनाव में हरेक नेताओं ने किसी न किसी तंत्र को अपना लिया है। उसी के सहारे वह चुनावी नैया पार करने की जुगत में हैं। लेकिन क्या इस तरह खुद की नैया पार करने की जुगत में लगे नेता आम जनता को उसकी समस्याओं से निजात दिला पायेंगे, यह काफी गंभीर विषय है। बिहार की जनता सही मायने में आज भी शोषित और शासित मानसिकता से उबर नहीं पाई है। यहीं कारण है कि आज भी हमारी मानसिक सहभागिता एक उच्च कोटि के याचक से उबर नहीं पाई है।
 बिहार के हरेक क्षेत्र की समस्या भी अलग-अलग है। कहीं बाढ़ तो कहीं सुखाड़, कहीं बेरोजगारी तो कहीं बेगारी....। यही कारण है कि सही प्लेटफार्म नहीं मिलने के कारण सबसे ज्यादा बौद्धिक व कामगार मजदूरों का पलायन यहीं से होता है। चुनाव आते ही राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय नेता तक जनता से यही वायदे करती है कि मुझे वोट दीजिए मैं आपको सारी सुविधाएं मुहैया कराउंगा। सचमुच वादा तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की करते हैं लेकिन कहावत यहां यही सही बनती है कि कहां वह सुभाष बोस तो कहां यह झंडू घोष।  
हालांकि चुनाव के दौरान इन तंत्रों का लंबे अरसे से राजनीतिज्ञों से चोली-दामन का साथ रहा है। लेकिन नाव की पतवार इतना सतही और मैली कभी भी नहीं दिखी थी जितना इस बार के चुनाव में देखने को मिल रहा है। इसको देखते हुए तो हम अतीत में सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि कहीं न कहीं हमारा पवित्र संविधान ही इसके लिए दोषी तो नहीं है। कारण लोकतंत्र की जननी ब्रिटेन में कोई लिखित संविधान नहीं है और सबसे सशक्त लोकतंत्र अमेरिका में संवैधानिक संशोधन का प्रावधान काफी कठिन है। वहां समाज का सबसे बौद्धिक ब्रेन राजनीति की ओर जाता है, वहीं हमारे देश का सबसे कुंठित व सतही ब्रेन राजनीति में जाता है।
भारत की इस तरह की राजनीतिक परिपाटी से ना तो कभी देश का कल्याण होगा और नाहि जनता का। हमलोग सदा किसी ना किसी से लुटते रहेंगे।

डॉ.राजीव रंजन ठाकुर

Friday, October 23, 2015

जन्म और मृत्यु दोनों को परिभाषित करता है शिवलिंग

लिंग पुराण में कहा गया है - 'लीलार्थ गमकं चिन्हं इति अभिधीयतेÓ। अर्थात जन्म व मृत्यु दोनों को एक साथ परिभाषित करने वाला लिंग शब्द परम कल्याणकारी शिव रूप है।
शिव चेतन ज्योति विन्दु हैं। इनका अपना कोई स्थूल या सूक्ष्म शरीर नहीं है। वह परमात्मा हैं। शिव स्वयं ज्ञान प्रकाश उत्पन्न करते हैं जो कुछ ही समय में सारे विश्व में फैल जाता है। इसके फैलते ही कलियुग और तमोगुण के स्थान पर संसार में सतयुग और सतोगुण की स्थापना हो जाती है। अज्ञान-अंधकार तथा विकारों का विनाश हो जाता है। वैदिक धर्म ग्रंथों में शिव को सभी विद्याओं का जनक माना गया है। वे तंत्र-मंत्र, योग से लेकर समाधि तक प्रत्येक क्षेत्र के आदि और अंत हैं। इतना ही नहीं वह संगीत के आदि सृजनकर्ता भी हैं और नटराज के रूप में कलाकारों के आराध्य भी हैं।
श्वेताश्वर उपनिषद् में कहा गया है कि-'एकोहि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थु:Ó। अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड में केवल एकमात्र रूद्र ही हैं दूसरा कोई नहीं। वहीं शिव पुराण के अनुसार पवन देव ने स्वयं कहा है कि सृष्टि की शुरूआत में केवल शिव ही मौजूद रहते हैं। वे ही अद्र्धनारीश्वर रूप में संसार की सृष्टि करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं और अंत में उसका संहार भी करते हैं। चारो वेदों और 18 पुराणों में भी समस्त देवताओं को भगवान रूद्र की पूजा-आराधना करते हुए प्रस्तुत किया गया है। रामचरित मानस में जहां तुलसीदास जी ने लिखा है-लिंग थापि विधिवत करि पूजा, शिव समान प्रिय मोहि न दूजा, वहीं श्रीमद् भागवत गीता में भी भगवान रूद्र की पूजा को श्रेष्ठ बताया गया है। स्कंद पुराण के अनुसार स्वयं भगवान विष्णु ने पत्नी लक्ष्मी सहित सर्वप्रथम भगवान सदाशिव की पूजा करके ही तेज प्राप्त किया था। वेद मंत्रों के अधिष्ठाता होने के कारण भोलेनाथ को अघोर और समस्त लोकों में व्याप्त रहने के कारण तत्पुरुष भी कहा गया है। तत्वज्ञानी व्यक्ति महेश्वर शिव को क्षर और अक्षर से परे मानते हैं। जिस कारण जीव समस्त प्राणी स्वरूप शिव का स्मरण करके इस पंचतत्व की काया से मुक्त हो जाता है। इसीलिए तो रूद्र संहिता में कहा गया है कि-'ऊं तत्पुरूषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्र प्रचोदयात्Ó।।

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डॉ. राजीव रंजन ठाकुर

Tuesday, October 20, 2015

प्रकृति की गुहार



प्रकृति की गुहार 

बार बार कह रही धरती माता
मेरी आबरू से ना खेलो
बार बार संकेत भी दे रही है प्रकृति
मेरा दोहन ना करो
बार बार प्रकृति के पंच तत्‍व कर रहा हमें आगाह
मुझे ना छेड़ो
कभी तूफान,सुनामी
तो कभी घनघोर बारिश
कभी भीषण जल त्रासदी
तो कभी बरसते आग के गोले
कभी धरती हिलती
तो कभी मेघ फटते
कभी लाखों को काल का ग्रास बनाती
तो कभी आर्थिक कमर तोड़ती
वह कह रही है संकेत समझो और संभलो
अपनी भौतिकता की चाह छोड़ो
क्‍योंकि प्रकृति और पुरूष के मिलने से ही
श्रृष्टि की प्रक्रिया है संभव
हे धरा के सपूतो जिस तरह अपनी स्‍त्री और धन की करते हो रक्षा
उसी तरह संसार की इस प्रकृति रूपी मां की न लो इज्‍जत
नहीं तो उसकी सहनशीलता और धैर्य टूटेगा तो
न रहेगी यह धरा और न रहोगे तुम
इसलिए्, अभी भी समय है
हम समझें ,संभलें बिना किसी अभिमान
ना करें प्रकृति का दोहन
उसे खिलनें दें
और उसके आगोश में जीयें जीवन।।
डा राजीव रंजन ठाकुर

Monday, October 19, 2015

महादेव का चिंतन ही ध्यान है

'ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतसंÓ-अर्थात चांदी के पर्वत समान जिनकी श्वेत कान्ति है,जो सुन्दर चंद्रमा को आभूषण रूप से धारण करते हैं, उन भूतभावन भगवान महेश्वर का प्राणी प्रतिदिन ध्यान करे। महेश्वर भोलेनाथ ध्येय हैं। उनका चिंतन ही ध्यान है। मोक्ष ही प्राणी मात्र के जीवन का प्रायोजन है। इन तथ्यों को जानने वाला आस्थावान ही शिवत्व को प्राप्त कर सकता है। भूतभावन जगत के परम कारक, विश्वात्मा तथा विश्वरूप कहे गए हैं। ब्रह्म अर्थात रूद्र का पर्याय आनंद है। इस संपूर्ण जगत को ब्रह्म व्याप्त समझकर उन्हीं का ध्यान तथा चिंतन करना चाहिए। भगवान भोलेनाथ और उनका कोई भी नाम समस्त संसार के मंगलों का मूल है। शिव, शंभू और शंकर उनके तीन मुख्य नाम हैं। इन तीनों का अर्थ है कल्याण की जन्मभूमि, संपूर्ण रूप से कल्याणमय और परम शांतिमय। इनके नाम लेने मात्र से ही सबका कल्याण हो जाता है।
भोलेनाथ को त्रिनेत्र भी कहा गया है। ये तीन नेत्र सूर्य, चंद्र एवं वहनी है। शिव केवल नाम ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल, परिवर्तन, परिवर्धन आदि में भोलेनाथ के सर्वव्यापी स्वरुप के ही दर्शन होते हैं। गंगाधर ने समस्त जगत के तापों को हरने के लिए ही अपनी जटा में गंगा को स्थान दिया है। वे समस्त जगत का भरण-पोषण के लिए ही माता अन्नपूर्णा से भिक्षा भी मांगते हैं।
 शास्त्रों के अनुसार जब भी हम विषम परिस्थितियों से घिर जाते हैं तब हमारा मन विचलित होकर वहां से निकलने के लिए उस रास्ते को ढूंढने की कोशिश करने लगता है जो सहज के साथ ही आसान भी हो। लेकिन ये रास्ते सदैव दलदल से भरे होते हैं।  उस पर चलते ही हम उसमें और फंसते चले जाते हैं। हम किसी चीज के पाने की इच्छा रखते हैं या करते हैं तो हमें अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति बनानी होगी और उसके लिए स्वयं साधक, साधन और साधना का सृजन करना होगा। ठीक इसी प्रकार प्राणी को शिव का वास्तविक रूप दर्शन के लिए प्रयत्न करना होगा। शिव का वास्तविक रूप परम ज्योति है। वह इन वाह्य चक्षुओं द्वारा देखा नहीं जा सकता, केवल अनुभव किया जा सकता है। दिव्य चक्षु जिसे शास्त्रों में आलौकिक नेत्र, ज्ञान चक्षु, त्रिनेत्र या शिव नेत्र कहा गया है, के द्वारा ही उनका दर्शन किया जा सकता है। शिव के वाह्य ज्योतिर्लिंगों की पूजा के बाद भी साधकों के लिए हृदस्थ परमब्रह्म की अनुभूति परम आवश्यक है जो साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है। आज भी शिव भक्त कठिन परिस्थितियों के बावजूद उन्हें ढूंढने कैलास तक पहुंच जाते हैं।
 बावजूद अल्प समयावधि में शिव की महत्ता को पूरे श्रावण मास तक चलने वाली गंगाधाम (सुल्तानगंज) से बाबाधाम (देवघर) की पैदल यात्रा के दौरान समझा और महसूस किया जा सकता है।
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डॉ. राजीव रंजन ठाकुर

उद्दात दाता हैं भोलेनाथ


भाव भक्ति द्वारा समस्त देवगणों से पूजित एवं सेवित, करोड़ो सूर्यों की प्रखर कांति से युक्त, अष्टदल कमल से वेष्टित सदाशिव का लिंग रूप विग्रह समस्त चराचर की उत्पत्ति का कारण और समस्त भूतों एवं अष्ट दरिद्रों का नाश करने वाला है। शिवलिंग ब्रह्मा, विष्णु द्वारा पूजित होने के कारण जन्मजन्य दु:ख का विनाशक है। सदा शिव का लिंड्ड रूप कुंकम, चंदन, भष्म आदि से लिम्पित होने के कारण जन्म-जन्म के पापों का नाश करने वाला है। शिव के समस्त रूप मानव को आठों प्रहर, हर दिशा, दशा, काल और परिवेश मे रक्षा प्रदान करने मे सक्षम है। शिवलिंग की पूजा को पुराणों में भी श्रेष्ठ माना गया है। इसकी पूजा से समस्त पापों, विपत्तियों, रोगों आदि से छुटकारा मिल जाता है। जरा सोचिए कि भोलेनाथ का चरित्र कितना उद्दात है। एक ओर तो हम उनकी स्तुति करते हुए कहते है- कर्पूर गौंर करुणावतारं अर्थात जो कर्पूर के समान गौर वर्ण के हैं और साक्षात करुणा के अवतार है। वही संसार को पाप रूपी विष के मुक्ति दिलाने के लिए जब समुद्र मंथन के उपरांत प्राप्त विष को गले में उतार लिया तो नील कंठ कहलाये। उसके बाद हम कहने लगे नीलांम्ब भुजस्य मल कोमलांगम् - अर्थात जो स्वयं लोगों को जीवन देने के लिए विष धारण कर कर्पुर वर्ण से नीलांम्बर हो गए। ऐसा किसी भी देव दानव या मानव से संभव है क्या? समस्त वैभव युक्त स्वर्ग का त्याग कर हिमखंड कैताश मे वास करना, शमशान मे निवास करना, बाघ का चर्म पहना, सर्पों की माला धारण करना, भांग, धतुर, कंद-मूल खाना, नंदी की सवारी करना आदि क्या कोई ऐसा त्याग कर सकता है क्या? बावजूद समस्त जगत में सबों के लिए सर्व सुलभ बाबा भोले नाथ जैसा
पथप्रदर्शक, गुरू, अध्येता, वैद्य, महाकाल, महामृत्युंजय, आशुतोष, नीलकंठ आदि कोई हो सकता है। कदापि नहीं। इसीलिए विप्र जन उनकी स्तुति करते हुए कहते है-ं बिमल विभूति बूढ़ बरद बहनमां से लम्बे-लम्बे लट लटाकवे बाबा बासुकि। परम आरत हूं मंै सुख शांति सब खोई, तेरे द्वारे भिक्षा मांगन आये बाब बासुकि। कहत सेवकगण दुहु कर जोरी बाबा दुखिया के दु:ख हरहुु बाबा बासुकि....। सचमुच समस्त जगत के उद्दात दाता हैं भोलनाथ।
डॉ राजीव रंजन ठाकुर

सोलह मातृकाएं

किसी भी प्रकार की मंगल कामना और कार्य के निर्विध्न संपादन व संचालन के लिए भगवान गजानन के साथ ही सोलह मातृकाओं का स्मरण और पूजन अवश्य करना चाहिए। अनुष्ठान में अग्निकोण की वेदिका या पाटे पर सोलह कोष्ठक के चक्र की रचना कर उत्तर मुख या पूर्व मुख के क्रम से सुपारी व अक्षत पर क्रमश: इन 16 मातृकाओं की पूजा का विधान है। इससे न केवल कार्य की सिद्धि होती है बल्कि उसका संपूर्ण फल भी प्राप्त होता है। ये 16 मातृकाएं निम्नलिखित है- गौरी, पद्या, शची, मेघा, सावित्री, विजय, जपा, पष्ठी, स्वधा, स्वाहा, माताएं, लोकमताएं, धृति, पुष्टि, तुष्टी तथा कुल देवता। 
1. गौरी-: यश, मंगल, सुख-सुविधा आदि व्यवहारिक पदार्थ तथा मोक्ष-प्रदान करना इनका स्वभाविक गुण है। गौरी शरणगतवत्सला एवं तेज की अधिष्ठात्री देवी है। सूर्य में जो तेज है वह माता गौरी की कृपा से ही है। भगवान शंकर को सदा शक्ति संपन्न बनाए रखने में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। माता गौरी दु:ख, शोक, भय, उद्वेग को सदा के लिए नष्ट कर देती है। इसलिए देवी भागवत में कहा गया है कि बिना गौरी-गणेश की पूजा के कोई कार्य सफल नहीं हो सकता। आराधना स्त्रोत:- हेमाद्रितनयां देवीं वरदां शंकरप्रियाम्। लम्बोदरस्य जननीं गौरीमावाहयम्यहम्।
  2. पद्मा-: पद्मा माता लक्ष्मी का ही रूप है। जब-जब भगवान कल्कि का अवतार ग्रहण करते हैं तब-तब माता लक्ष्मी का नाम पद्मा ही होता है। पद्मा का अविर्भाव समुद्र मंथन के पश्चात हुआ है। वह समस्त ऐश्वर्य, वैभव, धन-धान्य और समृद्धि को प्रदान करती हंै। इसलिए यह विष्णुप्रिया हमेशा कमल पर विराजमान रहती हंै। ्रआराधना स्त्रोत- पद्मापत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नम:। पद्मासनायै पदमिन्यै वैष्णव्यै च नमो नम:।।
  3. शची-: ऋग्वेद के अनुसार विश्व में जितनी भी सौभाग्यशाली नारियां हैं उनमें शची सबसे अधिक सौभ्याग्यशालिनी हैं। इनके रूप से सम्मोहित होकर ही देवराज इन्द्र ने इनका वरण किया। शची पवित्रता में श्रेष्ठ और स्त्री जाति के लिए आदर्श हैं। रूप, यौवन और कामुकता का अभय वरदान प्राप्ति के लिए शची की आराधना श्रेयकर माना जाता है। आराधना स्त्रोत- दिव्यरूपां विशालाक्षीं शुचिकुण्डलधारिणीम। रत्न मुक्ताद्यलडंकररां शचीमावाहयाम्यहम्।।
  4. मेधा: मत्स्य पुराण के अनुसार यह आदि शक्ति प्राणिमात्र में शक्ति रूप में विद्यमान है। हममें जो निर्णयत्मिका बुद्धि शक्ति है वह आदिशक्ति स्वरूप ही है। माता मेधा बुद्धि में स्वच्छता लाती है। इसलिए बुद्धि को प्रखर और तेजस्वी बनाने एवं उसकी प्राप्ति के लिए मेधा का आह्वाहन करना चाहिए। आराधना स्त्रोत- वैवस्तवतकृत फुल्लाब्जतुल्याभां पद्मवसिनीम्। बुद्धि प्रसादिनी सौम्यां मेधाभावाहयाम्यहम्।।
  5. सावित्री-: सविता सूर्य के अधिष्ठातृ देवता होने से ही इन्हें सावित्री कहा जाता है। इनका आविर्भाव भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से हुआ है। सावित्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी है। संपूर्ण वैदिक वांडम्य इन्हीं का स्वरूप है। ऋग्वेद में कहा गया है कि माता सावित्री के स्मरण मात्र से ही प्राणी के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उसमें अभूतपूर्व नई ऊर्जा के संचार होने लगता है। आराधना स्त्रोत- ऊॅ हृीं क्लीं श्री सावित्र्यै स्वाहा।
  6. विजया-: विजया, विष्णु, रूद्र और सूर्य के श्रीविग्रहों में हमेशा निवास करती है। इसलिए जो भी प्राणी माता विजया का निरंतर स्मरण व आराधना करता है वह सदा विजयी होता है। आराधना स्त्रोत- विष्णु रूद्रार्कदेवानां शरीरेष्पु व्यवस्थिताम्। त्रैलोक्यवासिनी देवी विजयाभावाहयाभ्यहम।
  7. जया-: प्राणी को चहुं ओर से रक्षा प्रदान करने वाली माता जया का प्रादुर्भाव आदि शक्ति के रूप में हुआ है। दुर्गा सप्तशती के कवच में आदि शक्ति से प्रार्थना की गई है कि-' जया में चाग्रत: पातु विजया पातु पृष्ठत:Ó। अर्थात हे मां आप जया के रूप में आगे से और विजया के रूप में पीछे से मेरी रक्षा करें। आवाहन स्त्रोत: सुरारिमथिनीं देवी देवानामभयप्रदाम्। त्रैलोक्यवदिन्तां देवी जयामावाहयाम्यहम्।।
  8. पष्ठी-: लोक कल्याण के लिये माता भगवती ने अपना आविर्भाव ब्रह्मा के मन से किया है। अत: ये ब्रह्मा की मानस कन्या कही जाती हंै। ये जगत पर शासन करती है। इनकी सेना के प्रधान सेनापति कुमार स्कन्द है। ब्रह्मा की आज्ञा से इनका विवाह कुमार स्कन्द से हुआ। माता पष्ठी जिसे देवसेना भी कहा जाता है मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट हुई है। इसलिए इनका नाम षष्ठी देवी है। माता पुत्रहीन को पुत्र, प्रियाहीन को प्रिया-पत्नी और निर्धन को धन प्रदान करती हैं। विश्व के तमाम शिशुओं पर इनकी कृपा बरसती है। प्रसव गृह में छठे दिन, 21वें दिन और अन्नप्राशन के अवसर पर षष्ठी देवी की पूजा की जाती है। आवाहन स्त्रोत : मयूरवाहनां देवी खड्गशक्तिधनुर्धराम्। आवाहये देवसेनां तारकासुरमर्दिनीम्।।
  9. स्वधा-: पुराणों के अनुसार जबतक माता स्वधा का आविर्भाव नहीं हुआ था तब तक पितरों को भूख और प्यास से पीडि़त रहना पड़ता था। ब्रह्मवैवत्र्त पुराण के अनुसार स्वधा देवी का नाम लेने मात्र से ही समस्त तीर्थ स्नान का फल प्राप्त हो जाता है, और संपूर्ण पापों से मुक्ति मिल जाती है। ब्राह्मण वायपेय यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है। यदि स्वधा, स्वधा, स्वधा, तीन बार उच्चारण किया जाए तो श्राद्ध, बलिवैश्वदेव और तर्पण का फल प्राप्त हो जाता है। माता याचक को मनोवंछित वर प्रदान करती है। आराधना स्त्रोत: ब्रह्मणो मानसी कन्यां शश्र्वत्सुस्थिरयौवनाम्। पूज्यां पितृणां देवानां श्राद्धानां फलदां भजे।।
  10. स्वाहा: मनुष्य द्वारा यज्ञ या हवण के दौरान जो आहुति दी जाती है उसे संबंधित देवता तक पहुंचाने में स्वाहा देवी ही मदद करती है। इन्हीं के माध्यम से देवताओं का अंश उनके पास पहुंचता है। इनका विवाह अग्नि से हुआ है। अर्थात मनुष्य और देवताओं को जोडऩे की कड़ी का काम माता अपने पति अग्नि देव के साथ मिलकर करती हैं। इनकी पूजा से मनुष्य की समस्त अभिलाषाएं पूर्ण होती है। आराधना स्त्रोत: स्वाहां मन्त्राड़्गयुक्तां च मन्त्रसिद्धिस्वरूपिणीम। सिद्धां च सिद्धिदां नृणां कर्मणां फलदां भजे।।
  11. मातर:(मातृगण:) शुम्भ- निशुम्भ के अत्याचारों से जब समस्त जगत त्राहिमाम कर रहा था तब देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर माता जगदंबा हिमालय पर प्रकट हुई। इनके रूप- लावन्य को देखकर राक्षसी सेना मोहित हो गई और एक-एक कर घूम्रलोचन, चंड-मुंड, रक्त-वीज समेत निशुम्भ और शुम्भ माता जगदंबा के विभिन्न रूपों का ग्रास बन गये और समस्त लोको में फिर दैवीय शक्ति की स्थापना हुई। अत: माता अपने अनुयायियों की रक्षा हेतु जब भी आवश्यकता होती है तब- तब प्रकट होकर तमाम राक्षसी प्रकृति से उनकी रक्षा करती हैं। आवाहन स्त्रोत: आवाहयाम्यहं मातृ: सकला लोकपूजिता:। सर्वकल्याणरूपिण्यो वरदा दिव्य भूषिता: ।।
  12. लोक माताएं-: राक्षसराज अंधकासुर के वध के उपरांत उसके रक्त से उन्पन्न होने वालेे अनगिनत अंधक का भक्षण करने करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने अंगों से बत्तीस मातृकाओं की उत्पति की। ये सभी महान भाग्यशालिनी बलवती तथा त्रैलोक्य के सर्जन और संहार में समर्थ हंै। समस्त लोगों में विष्णु और शिव भक्तों की ये लोकमाताएं रक्षा कर उसका मनोरथ पूर्ण करती हैं। आवाहन स्त्रोत: आवाहये लोकमातृर्जयन्तीप्रमुखा: शुभा:। नानाभीष्टप्रदा शान्ता: सर्वलोकहितावहा:।। आवाहये लोक मातृर्जगत्पालन संस्थिता:। शक्राद्यैरर्चिता देवी स्तोत्रैराराधनैरतथा।
  13. घृति-: माता सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के प्रजापति पद से पदच्युत होने के पश्चात् उनके हित के लिए साठ कन्याओं के रूप में खुद को प्रकट किया। जिसकी पूजा कर राजा दक्ष पुन: प्रजापति हो गए। मत्स्य पुराण के अनुसार पिण्डारक धाम में आज भी देवी घृति रूप में विराजमान हंै। माता घृति की कृपा से ही मनुष्य धैर्य को प्राप्त करता हुआ धर्म मार्ग में प्रवेश करता है।
  14. पुष्टि-: माता पुष्टि की कृपा से ही संसार के समस्त प्राणियों का पोषण होता है। इसके बिना सभी प्राणी क्षीण हो जाते हंै। आवाहन स्त्रोत : पोषयन्ती जगत्सर्व शिवां सर्वासाधिकाम । बहुपुष्टिकरीं देवी पुष्टिमावाहयाम्यहम।।
  15. तुष्टि-: माता तुष्टि के कारण ही प्राणियों में संतोष की भावना बनी रहती है। माता समस्त प्राणियों का प्रयोजन सद्धि करती रहती हैं। आवाहन स्त्रोत: आवाहयामि संतुष्टि सूक्ष्मवस्त्रान्वितां शुभाम्। संतोष भावयित्रीं च रक्षन्तीमध्वरंं शुभम्।
  16. कुलदेवता-: मातृकाओं के पूजन क्रम में प्रथम भगवान गणेश तथा अंत में कुलदेवता की पूजा करनी चाहिए। इससे वंश, कुल, कुलाचार तथा मर्यादा की रक्षा होती है। इससे वंश नष्ट नहीं होता है और सुख, शांति तथा ऐश्वर्य की प्रप्ति होती है। आवाहन स्त्रोत: चूंकि अलग-अलग कुल के अलग-अलग देवता व देवियां होते हंै। इसलिए सबका मंत्र अलग-अलग है।
 डा.राजीव रंजन ठाकुर