Friday, December 2, 2016

वेद सार -82

 यद्द् देवा देवान् हविषायजन्तामत्र्यान् मनसामत्यैन । 
   मदेम तत्र परमे व्योमन पश्येम तदुदितों सूर्यस्य ।।
                                                             अथर्ववेद:-7/5/3

व्याख्या:- जो मनुष्य परमात्मा के नित्य उपकारी गुणोंं को अपने पूर्ण विश्वास औैर पुरुषार्थ से ग्रहण करते है, वो पुरुष आनंद का उपभोग करते हुए परमात्मा का दर्शन करते हैंै। वे अविद्या को नष्ट करके व ज्ञान प्राप्त करके उसी प्रकार सर्वत्र विचरण करते है जैसे सूर्य के निकलने पर अंधकार नष्ट हो जाता है और सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है।

 विराड् वा इदमग्र आसीत् तत्या जाताया ।
सर्वमबिभेदियमे वेेदं भविष्यतीति ।।
                                                           अथर्ववेद:-8/10/1

व्याख्या:- सृष्टि से पहले एक विराट शक्ति थी । उसे ही ईश्वरीय शक्ति कहते हंै। उसी से सृष्टि का प्रारंभ माना जाता है। उसी ने प्रकट होकर प्रत्येक जीवन में अपने को स्थित किया। उस विराट परमात्मा को जानकर ही मनुष्य इस संसार में समस्त कार्यो में निपुण होता है। 

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