नैनं प्राप्नोति शपथो न कृत्या नाभि शोचनम्।
नैनं विष्कन्धमश्नुते यस्तवा बिभत्र्याअंजन ।।
अथर्ववेद:-4/9/5
व्याख्या:- जो मनुष्य शुद्ध अन्त:करण से परमात्मा को अपनी आत्मा में स्थिर रखता है उसको आत्मिक और आध्यात्मिक शांति प्राप्त होती है तथा उसके आधिभौतिक तथा आधिदैविक कष्टों का विनाश हो जाता है।
ईष्र्याया ध्राजि प्रथमां प्रथमस्या उतापराम्।
अग्निं हृदय्यंश्शोकं तं ते निर्वापयामसि ।।
अथर्ववेद:-6/11/1
व्याख्या:--मनुष्य दूसरों की वृद्धि देखकर कभी ईष्र्या न करे । दूसरों की उन्नति अथवा सूख को अपना ही उन्नति और सूख माने ।
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