त्वमसि प्रशस्यो विदथेषु सहन्त्य। अग्ने रथीरध्वराणाम्।।
ऋग्वेद:-5/8/35/2
भवार्थ-
त्वम् - तू ही
असि - है
प्रशस्य - सर्वत्र स्तुति करने योग्य
विदथेषु - यज्ञ और युद्धों में
सहन्त्य - शत्रुओं के समूहों के घातक
अग्ने - हे सर्वज्ञ
रथी - शत्रुओं के योद्धाओं को जितने वाले
अध्वराणाम् - यज्ञ और युद्धों में
व्याख्या: - हे सर्वज्ञ। तू ही सर्वत्र स्तुति करने योग्य हो। यज्ञ और युद्धों में आप ही स्तोतव्य हो। जो तुम्हारी स्तुति को छोड़ कर अन्य जड़ादि की स्तुति करता है। उसके यज्ञ तथा युद्धों में विजय कभी सिद्ध नहीं होता है। शत्रुओं के समूहों के आप घातक हो। यज्ञ और युद्धों में आप ही रथी हो। हमारे शत्रुओं के योद्धाओं को जीतने वाले हो। इस कारण से हमारा पराजय कभी नहीं हो सकता।
ऋग्वेद:-5/8/35/2
त्वम् - तू ही
असि - है
प्रशस्य - सर्वत्र स्तुति करने योग्य
विदथेषु - यज्ञ और युद्धों में
सहन्त्य - शत्रुओं के समूहों के घातक
अग्ने - हे सर्वज्ञ
रथी - शत्रुओं के योद्धाओं को जितने वाले
अध्वराणाम् - यज्ञ और युद्धों में
व्याख्या: - हे सर्वज्ञ। तू ही सर्वत्र स्तुति करने योग्य हो। यज्ञ और युद्धों में आप ही स्तोतव्य हो। जो तुम्हारी स्तुति को छोड़ कर अन्य जड़ादि की स्तुति करता है। उसके यज्ञ तथा युद्धों में विजय कभी सिद्ध नहीं होता है। शत्रुओं के समूहों के आप घातक हो। यज्ञ और युद्धों में आप ही रथी हो। हमारे शत्रुओं के योद्धाओं को जीतने वाले हो। इस कारण से हमारा पराजय कभी नहीं हो सकता।
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