अग्नि : पूर्वेमिर्ऋषिभिरीडयो नूतनैरुत।
स देवां एह वक्षति।
ऋग्वेद-1/1/1/2
भावार्थ : अग्नि:- सब मनुष्यों के स्तुति योग्य।
पूर्वेभि:- विद्या अध्यण किए हुए।
ऋषिभि:- मंत्रों को देखने वाले।
नूतनै:- वेदार्थ पढऩे वाले नवीन ब्रह्मचारी।
ईडय:- स्तुति योग्य।
उत - हमलोग।
इह - संसारिक सुख के लिए।
आवक्षति - कृपा से प्राप्त करें।
व्याख्या - हे समस्त मनुष्यों के स्तुति करने योग्य ईश्वराग्ने। विद्याध्यन किए हुए प्राचीन मंत्रार्थ देखने वाले विद्वान और वेदार्थ पढऩे वाले नवीन ब्रह्मचारियों से स्तुति के योग्य और हमलोग जो मनुष्य विद्वान व मूर्ख हैं उनसे भी अवश्य आप ही स्तुति के योग्य हो। इसलिए स्तुति को प्राप्त हुए आप हमारे और समस्त संसार के सुख के लिए दिव्यगुण अर्थात विद्या को कृपा से प्राप्त करें। आप ही सबके इष्टदेव हो।
स देवां एह वक्षति।
ऋग्वेद-1/1/1/2
भावार्थ : अग्नि:- सब मनुष्यों के स्तुति योग्य।
पूर्वेभि:- विद्या अध्यण किए हुए।
ऋषिभि:- मंत्रों को देखने वाले।
नूतनै:- वेदार्थ पढऩे वाले नवीन ब्रह्मचारी।
ईडय:- स्तुति योग्य।
उत - हमलोग।
इह - संसारिक सुख के लिए।
आवक्षति - कृपा से प्राप्त करें।
व्याख्या - हे समस्त मनुष्यों के स्तुति करने योग्य ईश्वराग्ने। विद्याध्यन किए हुए प्राचीन मंत्रार्थ देखने वाले विद्वान और वेदार्थ पढऩे वाले नवीन ब्रह्मचारियों से स्तुति के योग्य और हमलोग जो मनुष्य विद्वान व मूर्ख हैं उनसे भी अवश्य आप ही स्तुति के योग्य हो। इसलिए स्तुति को प्राप्त हुए आप हमारे और समस्त संसार के सुख के लिए दिव्यगुण अर्थात विद्या को कृपा से प्राप्त करें। आप ही सबके इष्टदेव हो।
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