Saturday, September 24, 2016

वेद सार-71


मृळ नो रूद्रोत नो मयस्कृधि  क्षयद्वीराय नमसा बिधेम ते ।
यच्छं च योश्च मनुरायेजे पिता तदश्याम तव रूद्र प्रणीतिषु ।

                                                              ऋग्वेद:- 1/8/5/2



भावार्थ :-
 मृळ-सुखीकर
न: -हमको
रूद्र - हे दुष्टों को रूलाने वाले रूद्रेश्वर
उत - तथा
मयस्कृधि- अत्यन्त सुख का संपादन कर
क्षयद्वीराय- शत्रुओं के वीरों का क्षय करने वाले
नमसा- अत्यन्त नमस्कार आदि से
विधेम- परिचर्या करें
ते - आपकी
यत्- हमारी समस्त प्रजा को
शम् - सुखी कर
यो:- प्रजा के
च - रोगों का भी
मनु:- मान्यकारक
आयेजे - स्वप्रजा को संगत और अनेकविध लाडन करता है
तद - वीरों के चक्रवर्ती राज्य को
अश्याम - प्राप्त हों
तव - आपकी
रूद्र- हे रूद्र भगवन
प्रणीतिषु - उत्तम न्याययुक्त नीतियों मे

व्याख्या :- हे दुष्टों को रूलानेहारे रूद्रेश्वर हमको सुखी कर। शत्रुओं के वीरों का क्षय करने वाले अत्यन्त नमस्करादि से आपकी परिचर्या करने वाले हमलोगों का रक्षण यथावत कर ।
हे रूद्र। आप हमारे पिता हो,हमारी समस्त प्रजा को सुखी कर। प्रजा के रोगों का भी नाश कर । जैसे मनु स्वप्रजा को संगत और अनेक विधि से लाडन करता है वैसे आप हमारा पालन करो । हे रूद्र आपकी आज्ञा का प्रणय अर्थात उत्तम न्याययुक्त नीतियों में प्रवृत होके वीरो के चक्रवर्ती राज्य को आपके अनुग्रह से प्राप्त हो।

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