विष्णो : कर्मणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे।
इन्द्रस्य युज्य : सखा ।।
ऋग्वेद:-1/2/7/19
भावार्थ :- विष्णो:- व्यापक ईश्वर के ।
कर्माणि - जगत की उत्पति, स्थिति, प्रलय आदि कर्मो को
पश्यत - तुम देखो
यत :- जिससे
व्रतानि - ब्रह्मर्यादिव्रत तथा सत्यभाषणादिव्रत और ईश्वर के नियमों के अनुष्ठान करने को
पस्पशे - समर्थ हुए हैं
इन्द्रस्य - इन्द्रियों के साथ वर्तमान कर्मों के कर्ता,भोक्ता जीव का
युज्य- योग्य
सखा - मित्र।
व्याख्या :- हे जीवो , विष्णु के किये दिव्य जगत की उत्पति स्थिति , प्रलय आदि कर्मों को तुम देखो। जिससे हमलोग ब्रह्मचर्यादि व्रत तथा सत्यभाषणादि व्रत और ईश्वर के नियमों का अनुष्ठान करने को जीव सुशरीरधारी हो के समर्थ हुए हैं। यह काम उसी के सामथ्र्य से है क्योंकि इन्द्रियों के साथ वर्तमान कर्मों का कर्ता, भोक्ता जो जीव इस का वहीं एक मित्र है अन्य कोई नहीं। क्योंकि ईश्वर जीव का अन्तर्यामी है। उससे परे जीव का हितकारी कोई और नहीं हो सकता, इसलिए परमात्मा से सदा मित्रता रखनी चाहिए।
इन्द्रस्य युज्य : सखा ।।
ऋग्वेद:-1/2/7/19
भावार्थ :- विष्णो:- व्यापक ईश्वर के ।
कर्माणि - जगत की उत्पति, स्थिति, प्रलय आदि कर्मो को
पश्यत - तुम देखो
यत :- जिससे
व्रतानि - ब्रह्मर्यादिव्रत तथा सत्यभाषणादिव्रत और ईश्वर के नियमों के अनुष्ठान करने को
पस्पशे - समर्थ हुए हैं
इन्द्रस्य - इन्द्रियों के साथ वर्तमान कर्मों के कर्ता,भोक्ता जीव का
युज्य- योग्य
सखा - मित्र।
व्याख्या :- हे जीवो , विष्णु के किये दिव्य जगत की उत्पति स्थिति , प्रलय आदि कर्मों को तुम देखो। जिससे हमलोग ब्रह्मचर्यादि व्रत तथा सत्यभाषणादि व्रत और ईश्वर के नियमों का अनुष्ठान करने को जीव सुशरीरधारी हो के समर्थ हुए हैं। यह काम उसी के सामथ्र्य से है क्योंकि इन्द्रियों के साथ वर्तमान कर्मों का कर्ता, भोक्ता जो जीव इस का वहीं एक मित्र है अन्य कोई नहीं। क्योंकि ईश्वर जीव का अन्तर्यामी है। उससे परे जीव का हितकारी कोई और नहीं हो सकता, इसलिए परमात्मा से सदा मित्रता रखनी चाहिए।
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