Sunday, August 28, 2016

वेद सार -61

 तद्विष्णो: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय: ।
दिवींव चक्षु- रातत
म्
                                            ऋग्वेद :-1/ 2/ 7/ 20

भावार्थ :-
 तद - उस
विष्णो: - विष्णु के
परमम् - परम अत्यन्तोत्कृष्ठ
पदम्- पद (जानने योग्य पूर्णान्द पद को)
 सदा - यथावत अच्छे विचार से  पश्यन्ति- देखते हैं
सूरय: - धर्मात्मा
दिवि- आकाश में
इव- जैसे
चक्षु:- नेत्र की व्याप्ति व सूर्य का प्रकाश
आततम्- सब ओर से व्याप्त है।

व्याख्या :- हे विद्धानो और मुमुक्षु जीवो विष्णु का जो परम अत्यन्तोत्कृष्ठ पद जिसको प्राप्त होके पूर्णानंद मे रहते हैं फिर वहां से शीघ्र दु:ख में नहीं  गिरते । उस पद को धर्मात्मा, जितेन्द्रीय, सबके हितकारक विद्वान लोग यथावत अच्छे विचार से देखते हैं, वह परमेश्वर का पद है। जिस दृष्टांत से कि जैसे आकाश में चक्षु व सूर्य का प्रकाश सब ओर से व्याप्त है वैसे ही परब्रह्म सब जगह मे परिपूर्ण एक रस भरा रहा है। वही परमपद स्वरूप परमात्मा परमपद है। इसी की प्राप्ति होने से जीव सब दु:खों से छूटता है, अन्यथा जीव को कभी परम सुख नही मिलता। इससे सब प्रकार परमेश्वर की प्राप्ति मे यथावत प्रयत्न होना चाहिए ।

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