Tuesday, August 23, 2016

वेद सार -59

देवो देवानामसि मित्रो अद्भुतो वसुर्बसूनामसि चारूरध्वरे।
शर्मन्त्स्याम तव सप्रथस्तमेऽग्ने सख्ये रिंषामा वयं तन।।

                                                            ऋग्वेद:-1/ 6/ 32/13

भावार्थ:-
देव-परम विद्वान तथा परम आनंद देने वाले देवों को
असि- हो
वसु:-बास करने वाले
वसूनाम-पृथिवी आदि वसुओं के भी
चारू:-अत्यंत शोभायमान और शोभा देने वाले
अघ्वरे-ज्ञानादि यज्ञ में
शर्मन-आनंद स्वरूप
स्याम-हम लोग स्थिर हों
तव- आपके
सप्रथस्तमे- अति विस्तीर्ण में
सख्ये-आनंद स्वरूप सखाओं के कर्म में
मा- कभी न
रिषाम-परस्पर अप्रीतियुक्त हों
वयम्-हम लोग
तव-आपके अनुग्रह से

व्याख्या:- हे मनुष्यो। वह कैसा परमात्मा है? कि हम लोग उसकी स्तुति करें। हे अग्ने। आप परमविद्वान हो तथा उसको परमानंद देने वाले हो तथा अद्भुत मित्र और सबके सुखकारक सखा हो। पृथिव्यदि वसुओं के भी वास कराने वाले से तथा ज्ञानादि यज्ञ में अत्यंत शोभायमान और शोभा के देने वाले हो।
हे परमात्मन। आप के अति विस्तीर्ण
आनंदस्वरूप सखाओं के कर्म में हमलोग स्थिर हों जिससे हमको कभी दु:ख न प्राप्त हो और आपके अनुग्रह से हम लोग परस्पर अप्रीतियुक्त कभी न हों।

No comments:

Post a Comment