Saturday, March 5, 2016

तंत्र- मंत्र- यंञ भाग -4

सिद्ध कुण्जिका स्तोत्र का पाठ करने मात्र से दुर्गासप्तशती का मिलता है फल

श्री मार्कण्डेय पुराण अंतर्गत देवी महात्मय में कुल 700 श्लोक हैं। यह महात्म्य दुर्गा सप्तशती के नाम से प्रसिद्ध है। दुर्गा सप्तशती धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारो पुरूषार्थों को प्रदान करने वाली है। जो पुरुष जिस भाव और जिस कामना से श्रद्धा एवं विधि के अनुसार दुर्गा सप्तशती का पाठ करता है उसे उसी भावना और कामना के अनुसार निश्चय ही फल की प्राप्ति होती है। लेकिन सप्तशती का पाठ करना इतना सरल भी नहीं है। इसी कठिनाई को देखते हुए स्वयं देवाधिदेव महादेव ने एक बार मां पार्वती से कहा कि हे देवी सुनो। मैं तुम्हे एक गुप्त रहस्य बताता हूं। क्योंकि तुम्हारे इस सप्तशती का पाठ समस्त मानव के लिए सुगम व आसान नहीं है, इसलिए इसके लिए मैं एक रास्ता निकालता हूं। मेरी समझ से इसका एक उपाय 'कुण्जिकास्तोत्रÓ  का पाठ होगा। यह समस्त सप्तशती का सार होगा। जिसे बीज मंत्र भी कह सकते हैं। इस मंत्र के पाठक को  कील, कवच, अर्गलास्तोत्र, शापोद्दार, न्यास, रात्रिसुक्त, देवीसुक्त के पाठ करने की भी आवश्यकता नहीं होगी और नाहि पूरा सप्तशती पढऩा होगा। जो मनुष्य प्रात: काल उपर्युक्त स्त्रोत का पाठ करेगा उसके सारे विघ्न और बाधा नष्ट हो जाएंगे और उसे समस्त दुर्गासप्तशती के पाठ के बराबर का फल प्राप्त होगा। वहीं जो मनुष्य इस कुण्जिकास्तोत्र का पाठ तथा देवी सुक्त के सहित सप्तशती पाठ से परम सिद्धि कि प्राप्ति होगी।
1.मारण- काम व क्रोध का नाश
2.मोहन- इष्टदेव की कृपा
3.वशीकरण- मन का वशीकरण
4.स्तम्भन- इंद्रियों की विषयों के प्रति उपरति और उच्चाटन, मोक्ष प्राप्ति के लिए छटपटाहट, ये सभी इस स्तोत्र के इस उद्देश्य से सेवन करने से सफल होते हैं।

सिद्ध कुण्जिका स्तोत्रम्
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'ऊं ऐं ह्रींं क्लीं चामुण्डाये विच्चै। ऊं ग्लौं हुं क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट स्वाहा।Ó
नमस्ते रूद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि। नम : कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषामर्दिनि।।
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि।
 जाग्रतं हि महादेवी जपं सिद्धंं कुरूष्व में।
 ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींंकारी प्रतिपालिका।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरुपे नमोस्तु ते।
 चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी।
 विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि।
धां धींं धूं धूर्जटे: पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
 क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवी शां शीं शूं में शुभं करू।
हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नम:।
 अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णां खां खीं खूं खेचरी तथा।
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्र सिद्धि कुरूष्व मे।Ó
अंत में देवाधिदेव ने कहा कि हे देवी  जो मनुष्य श्री मार्कण्डेय पुराण की कथा या पाठ सुनता है उसके करोड़ों कल्पों के किए हुए पाप समूह नष्ट हो जाते हैं तथा परम योग की प्राप्ति होती है। उसे न यमराज का भय होता है और न नरकों से। इस पृथ्वी पर उसकी वंश परंपरा सदा कायम रहती है।

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