Tuesday, March 22, 2016

वेदसार 34

यो विश्वस्य जगत: प्राणतस्पतिर्यो ब्राह्मणे प्रथमो गा अविन्दत्।
इन्द्रो यो दस्यूंरधरां अवातिरन मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे।।
                                                            ऋग्वेद :-1/ 7/ 12/ 5

भावार्थ - य: - जो
विश्वस्य - सब का
जगत: - जगत्
स्थावर - जड़ अप्राणी का
प्राणत: - चेतना वाले जगत का
पति: - अधिष्ठाता और पालक
ब्रह्मणे - ब्रह्म अर्थात विद्वान के लिए ही
प्रथम: - प्रथम सदा से हंै
गा: -पृृथिवी का
अविन्दत् - लाभ और उसका
पृथिवी का - राज्य है
इंद्र: - परमैश्वर्यवान परमात्मा
दस्यून - डाकुओं को
अधरान- नीचे
अवरतिरत् -गिराता है
 मरुत्वन्तम् - उस परमानंद वल वाले इंद्र परमात्मा को
सख्याय - सखा होने के लिए
हवामहे - अत्यंत प्रार्थना से गदगद होके बुलावें।

व्याख्या - हे मनुष्यो। जो समस्त जगत जड़ अप्राणी का और चेतनावाले जगत का अधिष्ठाता और पालक है तथा जो समस्त जगत से सदा से प्रथम है और जिसने यही नियम बनाया है कि विद्वानों के लिए पृथिवी का लाभ और उसका राज्य है। जो परमेश्वर्यवान परमात्मा डाकुओं को नीचे गिराता है तथा उसको मार ही डालता है।
  अत: हे मित्रो आओ। अपने सब संप्रीति से मिलकर मरुत्वान अर्थात परमानन्त बल वाले इंद्र को सखा होने लिए अत्यंत गदगद होकर प्रार्थना कर बुलावें। वह शीघ्र ही कृपा करके अपने से परममित्रता करेगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

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